Source :- BBC INDIA
मध्य पूर्व दुनिया का एक ऐसा अहम क्षेत्र है जहां होने वाली गतिविधियां कई देशों को प्रभावित करती हैं. ऐसे में सवाल ये उठता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर वापसी के बाद डोनाल्ड ट्रंप की इस क्षेत्र को लेकर क्या नीति होगी?
चुनाव जीतने के बाद और शपथ ग्रहण से पहले ही ट्रंप जिस तरह से कई मुद्दों को लेकर लगातार बयान दे रहे हैं वो उन्हें अमेरिकी इतिहास में बाक़ी के राष्ट्रपतियों से बिलकुल अलग बनाता है.
पिछले साल पांच नवंबर को चुनाव नतीजे आने के बाद से ही ट्रंप लगातार अमेरिका की विदेश नीति में हस्तक्षेप करते दिख रहे हैं जबकि उन्होंने अभी औपचारिक रूप से राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभाला भी नहीं है.
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ग़ज़ा युद्ध को लेकर ट्रंप के दावे
मध्य पूर्व, हमेशा ही ट्रंप के फ़ोकस में रहा है. लेकिन अमेरिका के क़रीबी सहयोगी इसराइल के हालात अब वो नहीं रहे जो उनके पिछले कार्यकाल में थे.
चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने दावा किया था कि वो मध्य पूर्व में चल रही लड़ाई रुकवा देंगे.
साथ ही उन्होंने हमास को चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर उनके पदभार ग्रहण करने से पहले हमास, सभी बंधको को छोड़ने के लिए राज़ी नहीं होता तो उसे इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे.
ट्रंप ने ये बयान हमास का नाम लेकर बार-बार दोहराया.
जानकारों का मानना है कि ट्रंप की इस धमकी ने ग़ज़ा में सीज़फ़ायर क़ायम करने में अहम भूमिका निभाई. जबकि एक साल पहले बाइडन प्रशासन की युद्धविराम की कोशिशें नाकाम हो गई थीं.
हमास ही नहीं, बल्कि ट्रंप ने इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू पर भी इस डील को मानने के लिए दबाव बनाया.
जबकि पूर्व में नेतन्याहू और उनकी कैबिनेट के कई सदस्य इस सीज़फ़ायर की कई शर्तों से सहमत नहीं थे.
ट्रंप ने अपने मध्य पूर्व दूत स्टीव वायकॉफ़ को इस समझौते में हिस्सा लेने के लिए भेजा था.
वायकॉफ़ नेतन्याहू से भी मिले. ये युद्धविराम समझौता कितना कामयाब होता है ये इस बात पर निर्भर रहेगा कि इसराइल और ट्रंप दोनों का ही इस मामले में क्या रुख़ रहेगा.
युद्धविराम के बाद से कई सवाल पैदा हो रहे हैं. जैसे ग़ज़ा पट्टी पर किसकी हुक़ूमत होगी, हमास का क्या भविष्य होगा. साथ ही मध्य पूर्व में शक्ति संतुलन में क्या किसी तरह का बदलाव आएगा?
ईरान को लेकर ट्रंप का रुख़?
सवाल ये भी उठता है कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम का क्या होगा.
इस बात की संभावना तो बिलकुल नहीं है कि ट्रंप, ईरान को परमाणु हथियार पाने के लिए कार्यक्रम जारी रखने देंगे.
अमेरिकी सूत्रों के मुताबिक़ ट्रंप ने नेतन्याहू को भरोसा दिलाया है कि अगर ईरान परमाणु हथियार हासिल करने की कोशिश करता है या उसके क़रीब पहुंचता है तो इसराइल को मिलिट्री ऑपरेशन करने की छूट है और मुमकिन है कि अमेरिका भी इस ऑपरेशन में शामिल होगा.
इसराइल-हिज़बुल्लाह की लड़ाई और सीरिया में बशर-अल-असद की सत्ता गिरने के बाद से मध्य पूर्व में ईरान के दबदबे को झटका लगा है.
अनुमान लगाया जा रहा है कि ट्रंप अब और ज़्यादा प्रत्यक्ष तरीक़े से ईरान पर दबाव डालेंगे.
इराक़ पर भी सबकी नज़र होगी जहां ईरान समर्थित हथियारबंद गिरोह हैं और अमेरिका के समर्थन वाली सरकार है.
कुल मिलाकर देखना होगा कि ट्रंप किस हद तक ईरान पर दबाव डालते हैं और ईरान इन दबावों का किस हद तक सामना करने में सक्षम होगा.
यमन और हूती विद्रोही
मध्य पूर्व के लिए यमन भी बेहद अहम होने वाला है. हूती विद्रोहियों के साथ जारी जंग, ट्रंप को विरासत में मिलेगी.
हूतियों के ख़िलाफ़ अमेरिकी सैन्य कार्रवाई के बावजूद बाइडन प्रशासन लाल सागर में हूती हमलों के ख़तरे को ख़त्म करने में नाकाम रहा है.
अपने पिछले कार्यकाल के आख़िरी दिनों में ट्रंप ने हूती को आतंकवादी संगठन की लिस्ट में डाला था. लेकिन यमन में हूती विद्रोहियों से डील करने के लिए बाइ़डन प्रशासन ने उन्हें इस लिस्ट से हटा दिया था.
अनुमान जताया जा रहा है कि ट्रंप दोबारा से हूती को आतंकवादी संगठन की लिस्ट में डाल देंगे और हूतियों के ख़िलाफ़ अमेरिकी सैन्य कार्रवाई में और तेज़ी आएगी.
लेबनान में ईरान के कम होते दबदबे को और कैसे कम किया जाए इसे लेकर भी ट्रंप क़दम उठा सकते हैं. हाल ही में लेबनान में वहां जोसेफ़ औन नए राष्ट्रपति चुने गए और प्रधानमंत्री पद के लिए नवाफ़ सलाम के नाम पर सहमति बनी है. इन दोनों को ही लेबनान पसंद नहीं करता है.
सीरिया के हालात और ट्रंप
सीरिया के हालात भी ट्रंप के पिछले कार्यकाल की तुलना में काफ़ी बदल गए हैं.
अब वहां के नए नेता अहमद अल-शरा ने कहा है कि वो सभी से बेहतर संबंध चाहते हैं.
तुर्की का भी इसमें अहम रोल होगा जिसे एक तरह से ट्रंप ने भी स्वीकारा है.
अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप ने कोशिश की थी कि पूर्वी सीरिया में अमेरिकी मौजूदगी कम की जा सके. इससे वहां तुर्की का प्रभाव बढ़ जाता जो अमेरिका समर्थित कुर्दिश विद्रोही दल सीरियन डेमोक्रेटिक फ़ोर्स के लिए अच्छा नहीं था.
ट्रंप अपने नए कार्यकाल में कुर्दिश सहयोगियों का साथ शायद ना छोड़ें लेकिन इराक़ और सीरिया में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति के बारे में कोई निर्णायक फ़ैसला ज़रूर ले सकते हैं.
साथ ही वो सहयोगी तुर्की और विरोधी ईरान को लेकर क्या फ़ैसले लेते हैं इस पर भी सबकी नज़रें टिकी होंगी.
मध्य-पूर्व के परंपरागत सहयोगी
ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका के मध्य पूर्व के उसके परंपरागत सहयोगियों जैसे सऊदी अरब, यूएई, मिस्र, क़तर, कुवैत, बहरीन, ओमान और जॉर्डन से संबंध और मज़बूत होने की संभावना है.
क्योंकि ट्रंप का फ़ोकस मध्य पूर्व के साथ ऐसे संबंध बढ़ाने पर होगा जिससे अमेरिका की सैन्य और आर्थिक ताक़त और मज़बूत हो. भले ही इसके लिए इन देशों के मानवाधिकारों को लेकर कमज़ोर रिकॉर्ड्स को नज़रअंदाज़ ही क्यों ना करना पड़े.
अगर ट्रंप, सऊदी अरब और इसराइल के बीच किसी तरह की डील करवा पाए तो ये उनके लिए बेहद बड़ी उपलब्धि होगी.
लेकिन इसराइल के साथ बेहतर संबंधों के एवज़ में सऊदी अरब बहुत बड़ी क़ीमत चाहेगा.
जैसे सऊदी अरब अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम को आगे बढ़ाना चाहेगा. साथ ही एक फ़लस्तीनी राज्य की स्थापना की गारंटी भी वो मांग सकता है. कुल मिलाकर ट्रंप की मध्य पूर्व नीति में आर्थिक मोर्चे पर बड़ा फ़ोकस होगा.
बाइडन प्रशासन की नीतियों के फ़ोकस में मुख्य रूप से चीन से मुक़ाबला था तो ट्रंप चाहेंगे कि मध्य पूर्व से बेहतर रिश्ते बनाकर आर्थिक मोर्चे पर चीन को काफ़ी पीछा छोड़ सकें.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
SOURCE : BBC NEWS