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नई दिल्ली: कांग्रेस सरकार के कार्यकाल के दौरान हुए चर्चित कोयला घोटाले का मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में गूंज उठा है। इस घोटाले के कारण तत्कालीन सरकार की कार्यप्रणाली और उसमें हुई गड़बड़ियों को लेकर गंभीर सवाल उठते रहे हैं। हाल ही में, इस केस की सुनवाई कर रहे सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश केवी विश्वनाथन ने खुद को सुनवाई से अलग कर लिया। जस्टिस विश्वनाथन ने कहा कि वह इस मामले में पहले वकील के रूप में पेश हो चुके हैं। हालांकि, उनके इस फैसले के पीछे की वास्तविक वजहें वही बेहतर जानते हैं।  

इस मामले में अभी तक मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ में न्यायाधीश संजय कुमार और केवी विश्वनाथन शामिल थे। लेकिन अब सीजेआई संजीव खन्ना को इस केस की सुनवाई के लिए नई पीठ का गठन करना होगा। सीजेआई ने कहा है कि 10 फरवरी से शुरू होने वाली सुनवाई से पहले नई पीठ का गठन कर लिया जाएगा। ज्ञात हो कि, कोयला घोटाले का मामला कांग्रेस के शासनकाल के दौरान 1993 से 2010 के बीच केंद्र सरकार द्वारा किए गए कोयला खदान आवंटनों से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 में कांग्रेस सरकार द्वारा आवंटित की गई 214 कोयला ब्लॉकों के आवंटन को गलत मानते हुए रद्द कर दिया था। कोर्ट का मानना था कि इन आवंटनों में गहरी अनियमितताएं और भ्रष्टाचार हुआ है, अब वो भ्रष्टाचार किया किसने होगा? ये भी विचारणीय प्रश्न है। 

इन खदानों का आवंटन एक निर्धारित प्रक्रिया के तहत किया जाना चाहिए था, लेकिन कथित तौर पर इस प्रक्रिया को ताक पर रखकर मनमानी तरीके से खदानें बांटी गईं। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की गंभीरता को देखते हुए विशेष सीबीआई जज से ट्रायल कराने का आदेश दिया था। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया था कि इस मामले में किसी भी प्रकार की रोक लगाने के लिए केवल सुप्रीम कोर्ट में ही याचिका दायर की जा सकती है। इस घोटाले में कांग्रेस के कई बड़े नेताओं के नाम सामने आए थे। यहां तक कि कांग्रेस के एक पूर्व सांसद समेत कई लोगों को दोषी करार देते हुए सजा भी सुनाई गई। लेकिन जानकारों का मानना है कि जो सजा हुई वह निचले स्तर पर हुई गड़बड़ियों के लिए थी, जबकि असली खेल ऊपर के स्तर पर हुआ था।  

इस मामले में सवाल सीधे तौर पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन मनमोहन सरकार पर उठते हैं। कोयला खदानों के आवंटन जैसी बड़ी प्रक्रिया केंद्रीय स्तर पर होती है, और उस पर प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर जरूरी होते हैं। हालांकि, कुछ रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से धोखे से उन आवंटनों पर हस्ताक्षर करवा लिए गए, जिन पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाए। इतना ही नहीं, कांग्रेस सरकार की कार्यशैली पर सवाल तब और गहराए जब यह सामने आया कि मनमोहन सरकार के समय असली ताकत प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) के बजाय नेशनल एडवाइजरी काउंसिल (NAC) के पास थी। यह काउंसिल सोनिया गांधी की अध्यक्षता में काम करती थी और इसके कई सदस्य गांधी परिवार के करीबी थे। ऐसा कहा जाता है कि इस काउंसिल का प्रभाव इतना था कि प्रधानमंत्री को भी उनके निर्देशों का पालन करना पड़ता था। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के सलाहकार रहे संजय बारू ये तमाम बातें अपनी किताब में बता चुके हैं, जिससे आरोपों की पुष्टि भी होती है। 

जानकारों का मानना है कि कोयला खदानों के आवंटन की फाइलें भी इस काउंसिल की नजरों से गुजरी होंगी। कई आरोपों के अनुसार, मनमोहन सिंह को NAC के दबाव में उन आवंटनों पर हस्ताक्षर करने पड़े, जो बाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में अवैध साबित हुए। हालाँकि, आरोप और प्रत्यारोप का खेल तो सुप्रीम कोर्ट में जारी है, देश की सबसे बड़ी अदालत इस गंभीर मामले में बेहद गंभीर तरीके से जांच कर रही है। चूँकि मामला पेचीदा है, और शायद बड़ी कड़ियाँ भी जुड़ सकती हैं।  

कोयला घोटाले में हजारों करोड़ रुपये का भ्रष्टाचार होने की बात कही जाती है। लेकिन इतने बड़े घोटाले के बावजूद इस मामले में मुख्य दोषियों को अब तक सजा नहीं मिल पाई है। यह मामला कई सालों से अदालत में है, लेकिन सुनवाई की धीमी गति पर भी सवाल उठते रहे हैं। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले से जुड़ी सभी लंबित याचिकाओं को एक जगह संकलित करने और उनकी समीक्षा करने का आदेश दिया है। अदालत ने 2014 और 2017 के फैसलों से संबंधित स्पेशल अनुमति याचिकाओं (SLPs) को लेकर रजिस्ट्री को एक व्यापक रिपोर्ट तैयार करने का निर्देश दिया है।  

इस पूरे मामले में कांग्रेस पार्टी पर गंभीर आरोप हैं। तत्कालीन सरकार पर यह सवाल उठता है कि अगर सब कुछ नियमों के तहत हो रहा था, तो सुप्रीम कोर्ट को उन 214 खदानों के आवंटन को रद्द करने की जरूरत क्यों पड़ी? आखिर वह कौन-सी गड़बड़ी थी, जिसकी वजह से इन आवंटनों को अवैध ठहराया गया? कांग्रेस की मुश्किलें इसलिए भी बढ़ जाती हैं क्योंकि यह मामला न केवल आर्थिक घोटाले से जुड़ा है, बल्कि इससे देश के खनिज संसाधनों के दुरुपयोग का भी आरोप जुड़ा हुआ है।  

कोयला घोटाले को लेकर कांग्रेस पार्टी अब भी सवालों के घेरे में है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा आवंटन रद्द किए जाने के इतने साल बाद भी इस मामले का हल नहीं निकल पाया है। जस्टिस केवी विश्वनाथन का इस मामले से अलग होना कहीं न कहीं इस घोटाले की सुनवाई में और देरी का संकेत देता है। यह भी सोचने वाली बात है कि इतने बड़े घोटाले के बावजूद मुख्य दोषियों को सजा कब मिलेगी? क्या कांग्रेस पार्टी कभी इन गंभीर आरोपों से मुक्त हो पाएगी? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश के खनिज संसाधनों के साथ हुई इस बड़ी लापरवाही का जिम्मेदार कौन है?  

इस पूरे मामले का हल कब निकलेगा, यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि जब तक न्याय नहीं होगा, तब तक यह मामला न केवल कांग्रेस बल्कि पूरे देश की राजनीति पर एक गहरे धब्बे के रूप में बना रहेगा।

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