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‘कोई भी मंत्री बन जाए, सीएम बन जाए, हमारे हालात ऐसे ही रहेंगे’: दिल्ली में लैंडफिल के पास किन हालात में रह रहे हैं लोग- ग्राउंड रिपोर्ट

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Source :- BBC INDIA

दिल्ली में कूड़े के पहाड़

इमेज स्रोत, Rohit Lohia/BBC

पहाड़ जैसे ऊंचे हो रहे भलस्वा लैंडफिल की तलहटी में बसी है कलंदर कॉलोनी और दादा शिव पाटिल नगर. यहां आबादी और कचरे के पहाड़ के बीच की सीमा मिट चुकी है.

दिल्ली में ऐसे तीन बड़े लैंडफिल हैं, जहां कचरे का निपटान किया जाता है. रोज़ाना पैदा होने वाला क़रीब 11 हज़ार टन कूड़ा सैकड़ों ट्रकों के ज़रिए यहां तक पहुंचता है.

कचरे के इन पहाड़ों के पास घनी आबादी रहती है, हालांकि इसका सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन ये हज़ारों में है. कई लोग, जिनमें अधिकतर नाबालिग बच्चे हैं, यहां ताक़तवर चुंबकों के ज़रिए कचरे से कबाड़ बीनते नज़र आ जाते हैं.

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एक नाबालिग बच्चा मुस्कुराते हुए कहता है, “ये हमारी चुन-चुन पार्टी है, इस कचरे में सब मिलता है. कई बार हम दो सौ रुपये भी नहीं कमा पाते और कई बार अगर क़िस्मत अच्छी हो तो इस कचरे में मिलने वाला माल हज़ारों में बिकता है.”

भलस्वा लैंडफिल से सटकर बसी कलंदर कॉलोनी में नालियों का गंदा पानी सड़कों पर बह रहा है. मक्खियां बजबजा रही हैं. कई बच्चे, सड़क के सूखे हिस्से पर कंचे खेल रहे हैं.

रोशनी अपनी झुग्गी तक जाने वाली सड़क को साफ़ कर रही हैं. आक्रोशित स्वर में वो कहती हैं, “हम जैसे लोग यहां कीड़ों की तरह रह रहे हैं. हम पर किसी का ध्यान नहीं जाता. नाली में गिरकर मेरी टांग टूट गई, इलाज में भारी ख़र्चा आया.”

रोशनी कहती हैं, “इस गली में सड़क हमने अपने पैसों से बनवाई है. साफ़-सफ़ाई भी हम ख़ुद ही करते हैं.”

इस कॉलोनी में रहने वाले अधिकतर लोगों की शिकायतें एक जैसी हैं.

यहां पसरी गंदगी और नलों से आने वाला ख़राब पानी लोगों के लिए सबसे बड़ी समस्या है.

गुलशन के पैरों में पस पड़ गया है. गली की गंदगी दिखाते हुए वो कहती हैं, “यहां लोग बीमार पड़ जाते हैं, लेकिन कोई सुध नहीं लेता. मेरे पैरों में पस पड़ा गया, स्टीफंस अस्पताल में इलाज कराना पड़ा.”

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गंदगी में फंसी ज़िंदगी

कूड़े के ढेर के पास खड़ा लड़का

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एक दो मंज़िला झुग्गी की सीढ़ियों से कुछ बच्चे हाथों में किताबें लिए उतर रहे हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन कर रहीं तनु यहां बच्चों को पढ़ाती हैं.

नीचे टूटी नालियों से गंदा पानी बह रहा है. बच्चों के लिए सड़क पार करना मुश्किल है.

तनु उन्हें हाथ पकड़कर आगे निकालती हैं. अकसर ये बच्चे नाली पार करते हुए कीचड़ में गिर जाते हैं.

तनु कहती हैं, “हम इन्हीं नालियों के बीच रह रहे हैं. इस तरह की झुग्गी में कोई मर्ज़ी से नहीं रहता, बल्कि सब यहां मजबूरी में रहते हैं.”

तनु पढ़-लिखकर कुछ करना चाहती हैं ताक़ि अपने परिवार को यहां से निकाल सकें.

एक तरफ कचरे का बड़ा पहाड़, दूसरी तरफ़ रिहायशी झुग्गी में पसरी गंदगी. यहां रहने वाले लोग ये दावा करते हैं कि इसका उनकी सेहत पर भी असर हो रहा है.

रिसर्चर अतिन बिस्वास का बयान.

19 साल की तमन्ना अपनी दो छोटी बहनों के साथ एक किराए की झुग्गी में रह रही हैं. उनका जन्म इसी बस्ती में हुआ.

तमन्ना के माता-पिता की बीमारियों से मौत हो गई है. उनकी मां की नौ साल पहले कैंसर से मौत हो गई और डेढ़ साल पहले टीबी से पिता की मौत हो गई.

अब उन पर अपनी दोनों छोटी बहनों का पेट पालने की ज़िम्मेदारी है.

तमन्ना कहती हैं, “हम कैसे रह रहे हैं, हम ही जानते हैं. झुग्गी का किराया देना पड़ता है. कई दिन हमारे पास खाने के लिए भी कुछ नहीं होता. लोग हमें रोटियां देते हैं.”

माता-पिता की मौत के बाद बेसहारा छूटी इन बच्चियों तक किसी तरह की कोई सरकारी मदद नहीं पहुंच पा रही हैं. इनके दस्तावेज़ भी नहीं बन पाए हैं, जिससे इनकी ज़िंदगी और मुश्किल हो गई है.

तमन्ना की एक पड़ोसन कहती हैं, “यहां लोग अक्सर बीमार पड़ जाते हैं. हमें तो सरकारी अस्पताल में भी इलाज के लिए धक्के खाने पड़ते हैं.”

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‘सुधार की कोई उम्मीद नहीं’

सुधार सिंह की बात

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सुधार सिंह की झुग्गी बिलकुल भलस्वा लैंडफिल से सटकर बनी है. उनके घर तक जाने वाली गली कूड़े से अटी पड़ी है.

अपनी छत पर खड़े होकर सुधार सिंह कहते हैं, “जब गांव से आते हैं, तो मोटे-तगड़े होकर आते हैं, लेकिन यहां के वातावरण की वजह से शरीर घट जाता है. लगता है 80-90 साल के बूढ़े हो गए हैं.”

दिल्ली में विधानसभा चुनाव हैं और इसका शोर इन झुग्गी-बस्तियों में भी सुनाई देता है. जगह-जगह उम्मीदवारों के पोस्टर लगे हैं. प्रचार गाड़ियां नारे और वादे का शोर मचाते हुए गुज़र रही हैं.

लेकिन, क्या सुधार सिंह को सुधार की कोई उम्मीद है?

मुस्कुराते हुए सुधार सिंह कहते हैं, “चालीस साल की उम्र हो गई है, अब तक तो यहां कुछ हुआ नहीं हैं, ऐसा लगता है कि अब हमारे श्मशान जाने के बाद ही यहां कुछ सुधार होगा.”

यहां रहने वाले अधिकतर लोगों को सांस लेने में दिक्कत होती है. माधव सिंह कहते हैं, “जब लैंडफिल में धुआं उठता है तो सांस लेना मुश्किल हो जाता है.”

हालांकि, कई लोग ये कहते हैं कि अब उन्हें इन हालात में रहने की आदत हो गई है.

क़रीब पचास साल की एक महिला कहती हैं, “यहां कोई ख़ुशी से नहीं रह रहा है, सब मजबूरी में रह रहे हैं. कौन इस कूड़े के ढेर पर रहना चाहेगा. बारिश होती है तो घरों में कीचड़ भर जाता है. बैठने तक की जगह नहीं होती. फिर भी लोग यहां रह ही रहे हैं.”

प्रदूषण रोकने और पर्यावरण को बचाने के लिए भारत में कई क़ानून हैं. क़ानून के तहत किसी भी लैंडफिल साइट के 200 मीटर के दायरे में आबादी नहीं हो सकती.

इसके अलावा जल प्रदूषण और वायु प्रदूषण को रोकने के भी सख़्त प्रावधान है.

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ना शौचालय, ना मैदान

लैंड फिल

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लैंडफिल से लीचेट (प्रदूषित पानी के रिसाव) को रोकना नगर प्रशासन की क़ानूनी ज़िम्मेदारी है. लेकिन, भलस्वा लैंडफिल और आबादी के बीच कोई फ़ासला नहीं है.

शौच की समस्या के समाधान के लिए यहां सरकार ने एक बड़ा टॉयलेट परिसर बनवाया था. अब ये गंदगी से अटा पड़ा है. यहां लगे स्वच्छ भारत मिशन के पोस्टर पर लिखा है- एक क़दम स्वच्छता की ओर.

इस पोस्टर के अलावा स्वच्छता या सफाई यहां कहीं दिखाई नहीं देती. भीतर घुसते ही ऐसी बदबू आती है कि कुछ पल ठहरना भी मुश्किल हो जाता है.

इस शौचालय परिसर के ठीक बाहर बच्चों के खेलने का मैदान है, जो अब कूड़े का ढेर बन चुका है. इस पार्क की दीवार ही अब ऐसा एकमात्र स्थान है, जहां बच्चे खेल सकते हैं.

कुछ बच्चे बारी-बारी से दीवार पर चढ़ते-उतरते हैं.

स्थानीय निवासी चांद कहते हैं, “यहां हज़ारों बच्चे हैं, लेकिन खेलने के लिए एक पार्क तक नहीं. बच्चे इन्हीं गंदी नालियों में खेलते हैं और बीमार पड़ जाते हैं.”

अधिकतर गलियां यहां इतनी संकरी हैं कि दो लोग अगर निकले तो सटकर चलना पड़े.

चांद कहते हैं, “यदि यहां एंबुलेंस या फायर ब्रिगेड की गाड़ी बुलानी हो, तो वो यहां नहीं पहुंच पाएगी. किसी को भी यहां के हालात की परवाह नहीं हैं.”

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ना सूरज की रोशनी, ना योजनाओं का उजाला

सुनीता देवी

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इस झुग्गी की कई गलियों में ना सूरज की रोशनी पहुंच पाती है और ना ही सरकारी योजनाएं. समाज के आख़िरी पायदान पर खड़े लोग यहां बेहद मुश्किल हालात में रहने को मजबूर हैं.

दोपहर के वक्त, अधिकतर महिलाएं घर के बाहर बैठी हुई फली से चने निकालती दिखती जाती हैं.

ये महिलाएं मंडी भेजने के लिए चने निकाल रही हैं. पूरा दिन काम करने पर बमुश्किल पचास रुपए की मज़दूरी होती है.

तीन बच्चों की मां सुनीता भी चने छीलने में व्यस्त हैं. उनकी झुग्गी में टिमटिमा रहा अकेला बल्ब देखने लायक रोशनी नहीं दे पा रहा है.

सुनीता कहती हैं, “तीन बच्चे हैं इस वजह से मैं काम पर नहीं जा पाती हूं, पति कुछ कमा नहीं पाते हैं, ये चने छीलकर जो चालीस पचास रुपये बन जाते हैं उसी से खाना बनाती हूं.”

उदास होकर सुनीता कहती हैं, “कई बार तो बच्चों के लिए खाना भी नहीं बन पाता. छोटा सिलेंडर है, गैस ख़त्म हो जाए, तो महंगा गैस ख़रीदना पड़ता है.”

सुनीता को ना केंद्र सरकार की मुफ्त सिलेंडर योजना का फ़ायदा मिला है और ना ही उनके पास राशन कार्ड है.

ये झुग्गी सुनीता के परिवार ने नौ साल पहले ख़रीदी थी, लेकिन अभी तक इसमें उनके नाम का मीटर नहीं लग सका है.

अपना आधार कार्ड दिखाते हुए सुनीता कहती हैं, “मीटर नहीं लगा तो राशन कार्ड भी नहीं बना. मेरा तो वोट भी नहीं पाया है. कई बार फार्म भरने और चक्कर काटने के बाद भी अब तक लिस्ट में मेरा नाम नहीं आया है.”

लेकिन, सुनीता जानती हैं कि उनके लिए वोट देना कितना ज़रूरी है.

वो उदास होकर कहती हैं, “वोट डालूंगी तो सरकार के पास मेरा नाम जाएगा. सरकार को पता चलेगा कि मैं यहां रहती हूं और ज़िंदा हूं. सरकार से कुछ राशन या पैसा मिल जाएगा.”

सुनीता को उम्मीद है कि अगर वो वोट डाल पाईं, तो उनकी ज़िंदगी में बदलाव आएगा. लेकिन, यहां रहने वाले अधिकतर लोगों को ऐसा नहीं लगता.

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‘हम कीड़े जैसे जीते हैं’

झुग्गी के बाहर महिला

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अपनी झुग्गी के बाहर आग ताप रही चनौता देवी चुनाव पर सवाल पूछने पर आक्रोशित हो जाती हैं.

चनौता देवी कहती हैं, “कोई पूछने नहीं आता है कि ठंड में तुम कैसे जी रहे हो. पानी ख़रीदने के लिए हमारे पास पंद्रह रुपये नहीं होते हैं, गंदा पानी पीना पड़ता है. अगर हम अपनी नाली या पानी की शिकायत लेकर जाएं तो कोई कुछ नहीं सुनता है. ग़रीबों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है.”

चनौता कहती हैं, “कोई भी प्रधान बन जाए, मंत्री बन जाए, सीएम बन जाए, हमारे हालात ऐसे ही रहेंगे. जब अब तक किसी ने कुछ नहीं किया, तो आगे कौन क्या करेगा.”

यहां जगह-जगह आम आदमी पार्टी की ‘महिला सम्मान योजना’ और कांग्रेस की ‘प्यारी दीदी योजना’ के पोस्टर लगे हैं. लेकिन, यहां रहने वाले लोग व्यवस्था से इतने निराश हैं कि उन्हें ये वादे भी छलावा ही लग रहे हैं.

चनौता कहती हैं, “कोई कह रहा है 2100 ले लो, कोई कह रहा है 2500 ले लो, कोई तीन हज़ार दे रहा है. सब हमारा वोट ख़रीदना चाहते हैं, किसी को हमारे हालात बदलने से मतलब नहीं हैं.”

निराश होकर चनौता कहती हैं, “हम इधर-उधर भागदौड़ करते हैं, शिकायत लगाते हैं, गुहार लगाते हैं, लेकिन कुछ होता नहीं है. आखिर हम गंदी नाली के कीड़ों की तरह यहीं पड़े रहते हैं.”

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ग़ाज़ीपुर लैंडफिल के पास भी ऐसे ही हालात

1984 में बने ग़ाज़ीपुर लैंडफिल में अब भी कूड़ा डाला जा रहा है.

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पूर्वी दिल्ली में गाज़ीपुर लैंडफिल के पास भी हालात बहुत अलग नहीं है. लैंडफिल के ठीक सामने रहने वाली बिलकिस को सांस लेने में तकलीफ है.

बिलकिस शिकायती लहज़े में कहती हैं, “इतनी बार, इतने लोगों से इस खत्ते (लैंडफिल) के बारे में शिकायत की, कभी कुछ नहीं हुआ.”

यहीं रहने वाले मोहम्मद आक़िल कहते हैं, “कई बार खत्ते में आग लगती है, तो घरों में धुआं भर जाता है. सांस तक नहीं ले पाते. हवा में हर वक़्त बदबू रहती हैं. यहां लोग बीमार रहते हैं, मेरी मां को मास्क लग गया है. बीवी को सांस लेने में तक़लीफ़ है. बच्चों के सीने में दर्द रहता है.”

क़रीब चार साल से यहां क्लिनिक चला रहे एक हेल्थ प्रेक्टिशनर कहते हैं, “सबसे ज़्यादा मरीज़ सांस की शिकायत लेकर आते हैं. सांस में तकलीफ़ की शिकायत के साथ आने वाले बच्चों की तादाद भी बढ़ रही है.”

ज़ुबैदा को अब मास्क लगाए रखना पड़ता है और भाप लेनी होती है. अपनी दवाओं की टोकरी दिखाते हुए वो कहती हैं, “हर वक़्त गले में दर्द रहता है. दवा ना खाओ तो दिन नहीं बीतता.”

ये लैंडफिल जब बने थे, तब दिल्ली की आबादी इन तक नहीं पहुंची थी. लेकिन, अब इनके इर्द-गिर्द बड़े रिहायशी इलाक़े हैं.

ऐसे में अब ना आबादी को हटाना आसान है और ना ही लैंडफिल को.

राजनेताओं ने समय-समय पर इन्हें आबादी से दूर हटाने के वादे किए हैं. दिल्ली का मुख्यमंत्री रहते हुए अरविंद केजरीवाल ने इन्हें पूरी तरह हटाने का वादा किया था.

लेकिन, स्थानीय लोगों के मुताबिक़, इन कूड़े के पहाड़ों का आकार बढ़ता ही जा रहा है.

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समाधान नहीं आसान

ग़ाज़ीपुर लैंडफिल

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सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट से जुड़े रिसर्चर अतिन बिस्वास कहते हैं, “लैंडफिल को आबादी से दूर करना कोई मामूली काम नही है. ये लैंडफिल तीस-चालीस साल पहले बने थे. जब ये बने थे, तब इनके आसपास कोई आबादी नहीं थी.”

अतिन बिस्वास कहते हैं, “ये भी देखना होगा कि लैंडफिल के आस-पास कौन रह रहा है. यहां सबसे कमज़ोर वर्ग के लोग रहते हैं, जो सस्ती ज़मीन की वजह से यहां बस जाते हैं. यहां रहने वाले लोगों के लिए आसान विकल्प है, इसलिए वो यहां बस जाते हैं.”

अतिन बिस्वास का मानना है कि असल समस्या लैंडफिल नहीं बल्कि यहां पहुंचने वाला कूड़ा है.

बिस्वास कहते हैं, “90 फ़ीसदी कूड़े-कचरे का निपटारा लैंडफिल पहुंचने से पहले ही हो जाना चाहिए. ऐसा करने के लिए सामाजिक स्तर पर जागरूकता लानी होगी. लोग जागरूक होंगे तो कम वेस्ट पैदा होगा.”

चुनाव के समय नेता इन लैंडफिल को हटाने का, साफ़-सफ़ाई कराने का वादा करते रहे हैं. लेकिन, ज़मीनी हक़ीक़त इससे कहीं दूर है.

लैंडफिल की तरफ़ देखते हुए महफ़ूज़ा कहती हैं, “बार-बार इस खत्ते को हटाने का वादा किया जाता है. लेकिन, ये और बड़ा होता जाता है. अब हम ही यहां से मकान बेचकर कहीं और जाने का सोच रहे हैं.”

चुनाव के समय इन लैंडफिल के पास रहने वाले लोगों में सभी दलों के प्रति उदासीनता नज़र आती है.

चनौता देवी कहती हैं, “कूड़े के पास रहने वाले हम जैसे लोगों को कीड़ा समझा जाता है. हमें सिर्फ़ वोट के वक़्त याद किया जाता है. आज वोट दे देंगे, कल कोई पूछने नहीं आएगा.”

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.

SOURCE : BBC NEWS