Source :- BBC INDIA
डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ ले चुके हैं. उन्होंने बड़े बदलावों के एजेंडा के साथ व्हाइट हाउस में वापसी की है.
पिछले साल पांच नवंबर 2023 को ट्रंप ने अपने पहले राष्ट्रपति चुनावी भाषण में कहा था, “मैं इस सिद्धांत (मोटो) के तहत शासन करूंगा कि वादे किए गए और वादे निभाए गए.”
उसी रात डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि वह अमेरिका को दुनिया का सबसे महान देश बनाएंगे.
उनके प्रस्तावों या वादों में देश की सीमाओं को सील करने के लिए मेक्सिको के साथ सीमा पर दीवार का निर्माण जारी रखना और बिना दस्तावेज़ वाले लाखों विदेशियों को देश से बाहर निकालना है. इसके बारे में उनका दावा है कि यह अमेरिकी इतिहास का सबसे बड़ा ‘देश निकाला’ होगा.
उन्होंने सरकार की नौकरशाही यानी लालफ़ीताशाही को कम करने, टैक्स घटाने और विदेशी आयातों पर 10 से 20 फ़ीसदी तक का टैक्स लगाने का वादा भी किया है. यह टैक्स चीन के साथ आयात के मामले में 60 फ़ीसदी तक पहुंच जाएगा.
अपने इन वादों को पूरा करने के लिए ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी पर भरोसा कर रहे हैं, जो कि उनके समर्थन में एकजुट है.
पार्टी के पास संसद के दोनों सदनों प्रतिनिधि सभा (निचला सदन) और सीनेट (उच्च सदन) दोनों में बहुमत है. इसे अमेरिका में ‘ट्राईफ़ैक्टा’ या एकजुट सरकार कहते हैं.
अमेरिकी व्यवस्था में ‘ट्राईफ़ैक्टा’ या एकजुट सरकार वह स्थिति है जब सत्ताधारी पार्टी का प्रतिनिधि सभा और सीनेट दोनों में ही बहुमत हो.
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
प्रोफ़ेसर मार्क पीटरसन बीबीसी मुंडों से कहते हैं, “एकजुट सरकार होने का मतलब है कि व्यवस्था एकसदनीय संसदीय प्रणाली की तरह काम करना शुरू कर देती है.”
“जहां सरकार और संसद दोनों पर ही बहुमत हासिल करने वाली पार्टी का नियंत्रण होता है. यह एकजुट सरकार के तौर पर काम करता है और व्यवहारिक तौर पर जो चाहे कर सकता है.”
प्रोफ़ेसर मार्क पीटरसन कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय लॉस एंजिल्स (यूसीएलए) में पब्लिक पॉलिसी, राजनीतिक विज्ञान और क़ानून के प्रोफ़ेसर हैं.
इसके अलावा अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट देश की तीसरी स्वतंत्र इकाई है. इसमें भी मौजूदा समय में छह कंज़र्वेटिव जज हैं. जिनमें से तीन को डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में नियुक्त किया था.
वहीं सुप्रीम कोर्ट में तीन लिबरल जज हैं. इसका मतलब यह है कि सरकार के फ़ैसलों को असानी से सुप्रीम कोर्ट से हरी झंडी मिल सकती है.
तो क्या इसका मतलब यह है कि डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में बिना किसी चेक-बैलेंस य़ानी बेलग़ाम होकर अपनी सरकार चलाएंगे?
ऐसा नहीं है. क्योंकि अमेरिकी व्यवस्था के अनुसार छह ऐसे बिंदु हैं जो डोनाल्ड ट्रंप को बेलग़ाम होने से रोकेंगे.
1. दोनों सदनों में बहुमत तो है पर…
भले ही रिपब्लिकन पार्टी के पास संसद के दोनों सदनो में बहुमत है. मगर ऐसी गारंटी नहीं है कि पार्टी आराम से अपने सभी प्रस्तावों को मंजूर करा सकेगी.
नवंबर में आए राष्ट्रपति चुनावी नतीजों में रिपब्लिकन पार्टी को 220 सीटें मिली हैं. वहीं डेमोक्रेटिक पार्टी को 215 सीटों पर ही जीत मिली है.
हालांकि, इसके बाद एक रिपब्लिकन कांग्रेस सदस्य ने अपना पद छोड़ दिया है. साथ ही दो और रिपब्लिकन कांग्रेस सदस्य जल्द ही सरकारी पदों पर जाने के लिए इस्तीफ़ा देने वाले हैं.
इसका मतलब है कि कम से कम प्रतिनिधि सभा में दो महीनों तक रूढ़िवादी रिपब्लिकन पार्टी के पास बहुमत से केवल दो वोट ही ज़्यादा होगा. जो पार्टी के लिए आसान स्थिति नहीं होगी.
प्रोफ़ेसर मार्क पीटरसन के मुताबिक़, “आधुनिक समय में यह सबसे कमज़ोर बहुमत है. भले ही रिपब्लिकन पार्टी मज़बूती से एकजुट है. लेकिन सदन में अपने नाममात्र के बहुमत के बलबूते सदन को नियंत्रित करने के लिए उन सभी को बहुत कठिन स्थिति में भी एकजुट रहना होगा. जो बहुत मुश्किल है.”
सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी के 43 सदस्यों के मुक़ाबले रिपब्लिकन पार्टी के 53 सदस्य हैं. इसका मतलब है कि रिपब्लिकन पार्टी के पास बड़े प्रस्तावों को पास कराने के लिए पूर्ण बहुमत से अभी भी सात वोट कम हैं.
प्रोफ़ेसर मार्क पीटरसन के मुताबिक़, रिपब्लिकन जो कुछ भी करना चाहते हैं, उसके लिए उन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ बातचीत करनी होगी. क्योंकि डेमोक्रेटिक पार्टी लगभग किसी भी प्रस्ताव को वीटो के ज़रिए रोक सकती है.
बातचीत वह प्रक्रिया है जो सीनेट सदस्यों को बजट के प्रावधानों को साधारण बहुमत से (60 सदस्यों के बजाय 51 सदस्य) से मंज़ूर करने की अनुमति देती है.
पिछले कुछ दशकों में अमेरिकी कांग्रेस में ध्रुवीकरण की वजह से यह प्रक्रिया अपनाई गई थी. लेकिन सभी मामलों में ऐसा नहीं हो सकता.
प्रोफ़ेसर पीटरसन कहते हैं, “जिन भी राष्ट्रपतियों के पास बड़े बदलाव करने के अवसर थे, वह बड़े बहुमत जैसे कि दोनों सदनों में 60 फ़ीसदी के बहुमत के साथ सत्ता में आए थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. लेकिन यह सच में चौंकाने वाला होगा कि ट्रंप अपने रिपब्लिकन सहयोगियों के साथ वास्तव में अपने चुनावी वादों पर काम कर पाएं.”
एक्सपर्ट्स कहते हैं कि अपने पहले कार्यकाल के शुरुआती दो सालों के दौरान भी डोनाल्ड ट्रंप के पास दोनों ही सदनों में मज़बूत बहुमत था. लेकिन उस दौरान वह कर मैं कटौती का केवल एक अहम क़ानून ही पास करवा पाए थे.
2. एक स्वतंत्र न्यायपालिका
भले ही अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में कंज़र्वेटिव जजों का बहुमत है, जिनमें से तीन ट्रंप के पहले शासन काल में नियुक्त हुए थे. लेकिन फिर भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि सभी प्रशासनिक पहलों की मंज़ूरी मिल ही जाएगी.
यह सच है कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने साल 1970 से ही मौजूद गर्भपात के अधिकार के संघीय संरक्षण को वापस ले लिया था. जैसा कि डोनाल्ड ट्रंप ने साल 2016 के दौरान अपने चुनावी अभियान में वादा किया था. इस फ़ैसले का नए नियुक्त किए गए जजों ने भी समर्थन दिया था.
सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक़, “अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति को किसी भी आपराधिक अभियोजन से पूरी तरह से छूट का अधिकार है.” इस वजह से ट्रंप ख़ुद के ख़िलाफ़ चल रहे कई मुक़दमों से बरी भी हो गए.
हालांकि उस फ़ैसले में यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि निजी मामलों में राष्ट्रपति को यह छूट नहीं मिलेगी.
इसके अलावा कोर्ट ने डोनाल्ड ट्रंप और रिपब्लिकन पार्टी की उन शिकायतों को भी ख़ारिज कर दिया था जिसमें, 2022 के राष्ट्रपति चुनावों के नतीजों को पलटने की कोशिश के आरोप लगाए गए थे.
कोर्ट ने ट्रंप प्रशासन के डीएसीए प्रोग्राम को ख़त्म करने की कोशिशों के प्रस्ताव को भी ख़ारिज कर दिया गया था. डीएसीए प्रोग्राम उन सैकड़ों या हज़ारों लोगों की रक्षा करता है जिन्होंने बिना काग़ज़ात के नाबालिग अवस्था में प्रवेश किया था.
सुप्रीम कोर्ट ने अफोर्डेबल केयर एक्ट (जिसे आमतौर पर ओबामाकेयर कहा जाता है) से कुछ सुरक्षा उपायों को बरकरार रखा था.
इसके साथ ही कार्यस्थल पर एलजीबीटीई+ लोगों को भेदभाव से बचाने वाले दूसरे प्रावधानों को भी सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा था. ये दोनों ही प्रावधान रिपब्लिकन पार्टी की योजनाओं के ख़िलाफ़ थे.
प्यू स्टडी सेंटर के अनुसार, “सुप्रीम कोर्ट के अलावा अमेरिका की ज़िला अदालतों के 60 फ़ीसदी जजों की नियुक्ति डेमोक्रेटिक जो बाइडन के कार्यकाल में हुई थी. जबकि ज़िला अदालतों के 40 फ़ीसदी जजों की नियुक्ति ही रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में हुई थी.”
प्रोफ़ेसर पीटरसन कहते हैं, “न्यायपालिका आज़ादी के साथ अमेरिकी व्यवस्था का तीसरा अहम स्तंभ है. जिसके ज़्यादातर सदस्यों को ट्रंप या रिपब्लिकन पार्टी ने नियुक्त नहीं किया है.”
पीटरसन का मानना है कि जजों को अपने फ़ैसले क़ानून या सुप्रीम कोर्ट के स्थापित निर्देशों के अनुसार देने चाहिए.
3. अमेरिका के अलग-अलग राज्यों की सरकारें
अमेरिका एक संघीय व्यवस्था वाला देश है. संघीय व्यवस्था व्हाइट हाउस से लागू किए गए बदलावों पर ज़रूरी सीमाएं लागू करती है.
अमेरिकी संविधान का 10वां संशोधन राज्य या प्रदेश की सरकारों को बड़े स्तरों पर शक्ति देता है. परंपरागत रूप से राज्यों के पास सुरक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक लाभ, शिक्षा, चुनावी प्रक्रिया, आपराधिक क़ानून, श्रम नियम और संपत्ति से जुड़े अधिकार रहे हैं.
इसी तरह काउंटी और शहरी प्रशासन के पास सार्वजनिक सुरक्षा, शहरी नियोजन, ज़मीनों का इस्तेमाल और इस तरह की दूसरी ज़िम्मेदारियां हैं.
राज्यों, काउंटी और शहरी प्रशासन के पास ट्रंप सरकार की कुछ पहलों का विरोध करने की शक्ति है.
प्रोफ़ेसर पीटरसन अनुमान लगाते हैं, “डेमोक्रेटिक पार्टी ज़रूर इन शक्तियों का इस्तेमाल ट्रंप प्रशासन के ख़िलाफ़ करेगी.”
उन्होंने कहा, “मैं कैलिफ़ोर्निया में रहता हूं जो कि अमेरिका का सबसे बड़ा राज्य है और विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. यह पूरी तरह से ना तो डोमोक्रेटिक है, ना ही लिबरल है और ना ही प्रोग्रेसिव है. लेकिन यह उस दिशा में मज़बूती से आगे बढ़ रहा है.”
प्रोफ़ेसर पीटरसन के अनुसार, “कैलिफ़ोर्निया ट्रंप प्रशासन की परवाह किए बिना या विरोध करते हुए ही काम करेगा. जैसे पिछले कुछ समय के दौरान टेक्सास और दूसरे राज्यों ने ओबामा और बाइडन प्रशासन की परवाह नहीं की थी.”
मौजूदा समय में अमेरिका के 50 में से 23 राज्यों में डेमोक्रेटिक पार्टी के गवर्नर हैं. इन राज्यों का सहयोग या विरोध ट्रंप प्रशासन की बड़ी संख्या में प्रवासियों को देश से बाहर निकालने जैसी योजनाओं के लिए अहम हो सकता है.
क्योंकि इस तरह के जटिल और कठिन कामों के लिए स्थानीय सरकारों के समर्थन की ज़रूरत पड़ती है.
कई शहरों और राज्यों ने ख़ुद को प्रवासियों के लिए “संरक्षित” स्थान घोषित कर दिया है. जिस वजह से प्रवासियों के मुद्दे पर उनका सहयोग संघीय सरकार के साथ सीमित हो गया है.
4. एक पेशेवर नौकरशाही
डोनाल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान, रिपब्लिकन पार्टी के भीतर ही यह शिकायतें उठने लगी थीं कि वह अपनी राजनीतिक योजनाओं को पूरी तरह से लागू नहीं कर पा रहे थे. इसकी वजह राज्य और नौकरशाही के कामकाज को समझने में कमी और सार्वजनिक अधिकारियों या सिविल सर्विसेज़ का विरोध भी था.
नौकरशाहों ने ट्रंप प्रशासन के आदेशों को ग़ैरक़ानूनी या ग़लत मानते हुए उन्हें लागू करने में देरी की थी.
अपने पहले कार्यकाल के अंत में डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश की मंज़ूरी दी थी. जिसके ज़रिए वह हज़ारों सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल कर उनकी जगह अपने समर्थकों को नियुक्त कर सकते थे.
लेकिन इस आदेश को बाइडन प्रशासन ने निरस्त कर दिया था. पर ट्रंप ने अपने अभियान के दौरान दोबारा से उनको हटाने वाले कार्यकारी आदेश पर विचार करने को कहा था.
वास्तव में इस दूसरे शासन के लिए डोनाल्ड ट्रंप के करीबी कंज़रवेटिव ग्रुप ने ऐसे हज़ारों पेशवरों का डेटा बेस तैयार किया है, जो कि ट्रंप की राजनीतिक विचारधारा से ताल्लुक़ रखते हैं. ताकि उनको सरकारी अधिकारियों की जगह नियुक्त किया जा सके.
इस पहल को संस्थागत, क़ानूनी, राजनीतिक और मज़दूर संगठनों के स्तर पर विरोध का सामना करना पड़ सकता है.
प्रोफ़ेसर पीटरसन कहते हैं, “मुझे लगता है कि अदालतें ट्रंप की इस पहल के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया देंगी. सार्वजनिक सेवाएं किसी वजह से बनाई गई हैं और एक क़ानून है जो इनकी रक्षा करता है. इसीलिए नई सरकार के गठन तक बड़े पैमाने पर संघीय कर्मचारियों के ख़िलाफ़ कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जा सकेगा.”
हालांकि सीमित स्तर पर कुछ बातें ऐसी हो सकती हैं जिनसे असर पड़ेगा. जैसे कि जब सरकार किसी ऑफ़िस को वॉशिंगटन डीसी से बाहर किसी और जगह पर भेजने का फ़ैसला करती है, तब कुछ अधिकारियों को इस्तीफ़ा देना पड़ सकता है. क्योंकि वह अधिकारी अपने परिवारों को वहां लेकर नहीं जा सकते.
5. मीडिया और सिविल सोसाइटी
जब डोनाल्ड ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति बने थे तब मीडिया ने उनके प्रशासन की आलोचना की थी. इसके अलावा अलग-अलग यूनियन और सिविल सोसाइटीज़ भी दबाव डालकर और अदालतों के ज़रिए ट्रंप के कई फ़ैसलों को रोकने के लिए लामबंद हुए थे.
हालांकि मीडिया के मामले में स्थितियां थोड़ी सी बदली हैं. जैसे कि वॉशिंगटन पोस्ट ने ट्रंप के पहले कार्यकाल में इस बात का रिकॉर्ड रखा था कि उन्होंने कितनी बार झूठ बोला है या ग़लत जानकारी दी है. (चार साल में 30 हज़ार से भी ज़्यादा).
हालांकि इसके ठीक उलट इस बार वॉशिंगटन पोस्ट ने अपने रोज़ाना छपने वाले संपादकीय लेख को ना छापने का फ़ैसला किया. इस संपादकीय लेख में वॉशिंगटन पोस्ट चुनावों पर अपना नज़रिया रखता था.
इसकी बजाय अख़बार ने डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस को बढ़ावा देने की योजना बनाई थी.
पारंपरिक रूप से एक और लिबरल विचारधारा वाले अख़बार ‘द लॉस एंजेलिस टाइम्स ने भी ठीक ऐसा ही किया था.
दरअसल एमेजॉन के संस्थापक और द वॉशिंगटन पोस्ट के मालिक जेफ़ बेज़ोस ने फ़्लोरिडा स्थित ट्रंप के मार-ए-लागो निवास पर उनसे मुलाक़ात की थी. लेकिन कई दूसरे मीडिया संस्थानों ने ट्रंप सरकार के लिए अपना आलोचनात्मक रुख बरकरार रखा है.
इसके अलावा सिविल लिबर्टीज़ यूनियन (एसीएलयू) जैसे कई नागरिक समाज संगठनों के बारे में भी यही कहा जा सकता है. इस संगठन के 17 लाख सदस्य हैं और यह पहले से ही नए राष्ट्रपति के कुछ प्रस्तावों को रोकने की कोशिश करने के इरादे स्पष्ट कर चुका है.
एक बयान में संगठन ने कहा है, “जब ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति पद पर थे तब हमने उनके प्रशासन के ख़िलाफ़ 430 बार क़ानूनी कदम उठाए थे. हमारे पास उनसे लड़ने और जीतने की रणनीति है.”
संगठन ने अपने एक और बयान में कहा, “इस बार अमेरिकी चुनावों में डोनाल्ड ट्रंप की जीत का यह मतलब भी है कि वह उन नीतियों को फिर से लागू करेंगे, जिसके बारे में उन्होंने साल 2020 में पद छोड़ते वक़्त कहा था. इसका मतलब है कि ज़्यादा से ज़्यादा प्रवासी अपने परिवार से अलग हो जाएंगे. ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को प्रजनन संबंधी प्रतिबंधों की वजह से सेहत का गंभीर नुक़सान झेलना होगा. ट्रंप संघीय सरकार का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ एक ख़तरनाक हथियार के तौर पर करेंगे.”
6. नागरिकों की प्राथमिकताएं
डोनाल्ड ट्रंप अपने सरकारी एजेंडे को कितना पूरा कर पातें हैं, यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि उनका एजेंडा नागरिकों की असल चिंताओं के साथ कितना फ़िट बैठ पाता है? और ट्रंप उन चिंताओं को कितना समझ पाते हैं?
यह ख़ास तौर पर इसलिए भी अहम है क्योंकि ट्रंप पॉपुलर वोट में तो जीते हैं, लेकिन उन्हें नागरिकों से वास्तव में बहुत ज़्यादा समर्थन नहीं मिला है.
प्रोफ़ेसर पीटरसन कहते हैं, “डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव जीता है. यह सच्चाई है. लेकिन उनको केवल 49.9 फ़ीसदी ही पॉपुलर वोट मिले हैं जो कि कुल मतदाताओं का आधा हिस्सा भी नहीं है. वह कमला हैरिस से केवल 1.5 फ़ीसदी वोटों के अंतर से जीते हैं. यह राष्ट्रपति चुनावों की सबसे क़रीबी जीतों में से एक है.”
एक्सपर्ट्स का यह भी कहना है कि चुनाव में जिन भी मतदाताओं ने ट्रंप का समर्थन किया, वह भी उनके कट्टर विचारों या प्रस्तावों का समर्थन नहीं करते हैं.
विशेषज्ञों के अनुसार, “इनमें भी एक बड़ा हिस्सा ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के समर्थकों का है. ट्रंप जो भी करना चाहते हैं वह उसका समर्थन करेंगे. वहीं दूसरा हिस्सा रिपब्लिकन पार्टी के समर्थकों का है, जो ट्रंप को ख़ासा पसंद नहीं करते हैं. वह बस ट्रंप को इसलिए चाहते हैं क्योंकि वह रूढ़िवादी हैं. वह टैक्स में कटौती और कम रेगुलेशन चाहते हैं.”
जानकार कहते हैं, “इसके बाद ऐसे लोगों का समूह है जिन्होंने बढ़ती महंगाई की वजह से ट्रंप को वोट दिया था. वह बदलाव चाहते थे और उनके पास ट्रंप ही एक विकल्प थे.”
प्रोफ़ेसर पीटरसन कहते हैं, “उनमें से भी कई लोग ओबामाकेयर को ख़त्म करने, सिविल सर्विसेज़ को ख़त्म करने या क्लाइमेट चेंज से जुड़ी पॉलिसी को ख़त्म करने जैसे फ़ैसलों पर ट्रंप का समर्थन नहीं करेंगे.”
यह एक ऐसी स्थिति है जिससे सरकार पर संयम बरतने का दबाव होगा. इससे ना केवल ट्रंप की लोकप्रियता पर असर पड़ेगा, बल्कि साल 2026 में होने वाले मध्यावधि चुनावों में रिपब्लिकन पार्टी को नुक़सान भी उठाना पड़ा सकता है.
लेकिन अगर ट्रंप को अपने किसी प्रस्ताव पर इस तरह के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा तो वह क्या करेंगे?
पीटरसन कहते हैं, “डोनाल्ड ट्रंप ज़रूरत के हिसाब से ख़ुद को ढालेंगे और अपने लक्ष्यों को हासिल ना कर पाने के लिए दूसरों को दोषी ठहराएंगे.”
वह कहते हैं, “डोनाल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल की शुरुआत में ही जब ओबामाकेयर की लोकप्रियता बढ़ी थी, तब सरकार ने उसे ख़त्म करने का फ़ैसला किया था. लेकिन आख़िर में व्हाइट हाउस को कुछ बदलावों के साथ अपने फ़ैसले से पीछे हटना पड़ा.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
SOURCE : BBC NEWS