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तमिलनाडु राज्यपाल मामला

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55 मिनट पहले

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट को एक ‘प्रेसीडेंशियल रेफ़रेंस भेजा है. इसमें यह राय मांगी गई है कि क्या सुप्रीम कोर्ट राज्यपालों और राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजे गए राज्य के विधेयकों को मंज़ूरी देने के लिए समय-सीमा निर्धारित कर सकता है?

भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को सौंपे गए इस ज्ञापन में, राष्ट्रपति ने कुछ सवाल पूछे हैं.

इन नोट में यह सवाल भी शामिल है कि “क्या राज्य विधानमंडल से पारित विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू किया जा सकता है?”

इस मामले पर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने सोशल मीडिया एक्स पर एक पोस्ट में कहा है, ” भारत की ताक़त इसकी विविधता में है- जो राज्यों का एक संघ है और हर किसी की अपनी आवाज़ है.”

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राहुल गांधी ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के पोस्ट को शेयर करते हुए आरोप लगाया है कि मोदी सरकार राज्यों की आवाज़ को दबाने और निर्वाचित राज्य सरकारों को परेशान करने के लिए राज्यपालों का इस्तेमाल कर रही है.

हम जानने की कोशिश करेंगे कि ऐसे मामले में जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कोई फ़ैसला दिया हो, क्या अब राष्ट्रपति की तरफ से भेजे गए नोट का उस फ़ैसले पर कोई असर पड़ेगा और इस कदम पर तमिलनाडु सरकार का क्या रुख है?

राहुल गांधी ने लिखा है कि यह संघीय ढांचे पर ख़तरनाक प्रहार है और इसका विरोध ज़रूर किया जाना चाहिए.

राष्ट्रपति का ‘नोट’ क्या होता है?

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इस संदर्भ में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट को एक नोट भेजा है, जिसमें पूछा गया है कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए राज्य विधानमंडल में पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समय-सीमा निर्धारित करना संभव है?

राष्ट्रपति का नोट संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत भेजा जाता है.

इस अनुच्छेद के तहत, “यदि किसी कानून के संबंध में कभी कोई सवाल पैदा हुआ हो या इसकी संभावना हो और राष्ट्रपति को ऐसा लगता है कि यह इतना महत्वपूर्ण है कि इस पर सुप्रीम कोर्ट की राय ज़रूरी है तो राष्ट्रपति इन सवालों को कोर्ट के पास उसका विचार जानने के लिए भेज सकते हैं.”

“और सुप्रीम कोर्ट, उचित जांच के बाद, राष्ट्रपति को इस पर अपनी राय दे सकता है.”

आठ अप्रैल को तमिलनाडु सरकार की एक याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल विधेयकों को लंबे समय तक रोक कर नहीं रख सकते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए तमिलनाडु सरकार के विधेयकों को अपनी स्वीकृति दी थी, जिसमें कहा गया कि राज्यपाल का तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित विश्वविद्यालयों से संबंधित विधेयकों को अपनी स्वीकृति न देना ‘अवैध’ है.

सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल द्वारा विधेयकों को स्वीकृति देने के लिए समय-सीमा भी निर्धारित की थी. इस फ़ैसले के साथ ही विधेयकों पर फ़ैसला लेने के लिए निर्धारित समय-सीमा स्वतः ही राष्ट्रपति पर भी लागू हो गई.

तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि

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सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “ये विधेयक राज्यपाल के पास लंबे समय से लंबित थे. राज्यपाल ने सद्भावनापूर्ण तरीक़े से काम नहीं किया.”

दरअसल संबंधित विधेयक 19 अक्तूबर, 2022 को तमिलनाडु विधानसभा में पारित कर राज्यपाल की मंज़ूरी के लिए भेजे गए थे. क़रीब एक साल बाद 13 नवंबर 2023 को राज्यपाल ने इन विधेयकों को मंज़ूरी देने से इनकार कर दिया था.

इसके बाद 18 नवंबर 2023 को ये विधेयक दोबारा सदन में पारित कर राज्यपाल के पास भेजे गए. उसके बाद राज्यपाल ने इसे 28 नवंबर 2023 को राष्ट्रपति के पास भेज दिया था.

राष्ट्रपति के 14 सवाल

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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से उसकी राय जानने के लिए जो नोट भेजे हैं, उसमें ये 14 सवाल किए गए हैं..

1. जब संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की स्वीकृति के लिए कोई विधेयक भेजा जाता है, तो उनके सामने क्या संवैधानिक विकल्प होते हैं?

2. जब राज्यपाल के पास कोई विधेयक भेजा जाता है, तो क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य होता है?

3. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को संविधान से मिली विवेकाधीन शक्तियों का इस्तेमाल करना उचित है?

4. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के काम की न्यायिक समीक्षा पर संविधान का अनुच्छेद 361 पूरी तरह प्रतिबंध लगाता है?

5. क्या अदालतें राज्यपाल के लिए अनुच्छेद 200 के तहत सभी शक्तियों का प्रयोग करने के लिए समय सीमा निर्धारित कर सकती हैं? भले ही इसके लिए संविधान ने कोई समय सीमा तय नहीं की हो?

6. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का इस्तेमाल कोर्ट की समीक्षा के अधीन है?

7. क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के विवेक के इस्तेमाल के लिए कोर्ट कोई समय सीमा निर्धारित कर सकता है?

8. जब राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति के लिए या अन्य वजहों से किसी विधेयक को अलग करता है, तो क्या राष्ट्रपति अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की सलाह और राय लेने के लिए बाध्य है?

9. क्या विचाराधीन विधेयक के कानून बनने से पहले राज्यपाल और राष्ट्रपति अनुच्छेद 200 और 201 के तहत जो फ़ैसले लेते हैं, वो उचित हैं? क्या अदालतों को कानून बनने से पहले किसी भी तरह से विधेयक की विषय-वस्तु पर फ़ैसला लेने की अनुमति है?

10. क्या अनुच्छेद 142 का हवाला देते हुए कोर्ट के आदेश से राष्ट्रपति/राज्यपालों की संवैधानिक शक्तियों को बदला जा सकता है?

11. क्या राज्य विधानमंडल से पारित विधेयक को राज्यपाल की सहमति के बिना कानून के रूप में लागू किया जा सकता है?

12. भारत के संविधान के अनुच्छेद 145(3) के प्रावधानों के अधीन, क्या सुप्रीम कोर्ट की किसी भी पीठ के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि वह पहले यह तय करे कि उसके सामने संविधान की व्याख्या से संबंधित मुद्दे हैं या नहीं, और उसे कम से कम पांच जजों की पीठ को भेजे?

13. क्या अनुच्छेद 142 के तहत राष्ट्रपति/राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों और आदेशों को किसी भी तरह से बदला जा सकता है? क्या अनुच्छेद 142 के तहत कोई विपरीत आदेश या प्रावधान जारी किया जा सकता है?

14. क्या अनुच्छेद 131 के तहत मिले अधिकारों के अलावा, संविधान केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवादों का निपटारा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर पाबंदी लगाता है?

तमिलनाडु सरकार क्या कह रही है?

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इस मामले पर टिप्पणी करते हुए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने कहा है, “केंद्र की बीजेपी सरकार सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसले को बदलने का प्रयास कर रही है, जिसमें रुकावटें खड़ी करने वाले राज्यपालों के ख़िलाफ़ राज्य की निर्वाचित सरकार के अधिकारों की रक्षा की गई थी.”

“मैंने सभी गैर बीजेपी सरकारों और क्षेत्रीय दलों से इस गंभीर क़ानूनी लड़ाई के समय एक होने का आग्रह किया है, ताकि संघीय ढांचे की रक्षा की जा सके और संविधान की मूलभूत संरचना को बचाया जा सके.”

इससे पहले भी स्टालिन ने इस मुद्दे पर कई टिप्पणियां की हैं.

उन्होंने कहा है, “मैं ‘राष्ट्रपति के नोट’ की कड़ी निंदा करता हूं, जो तमिलनाडु के राज्यपाल के मामले और अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले से तय संवैधानिक स्थिति को कमजोर करने का प्रयास करता है.”

उन्होंने अपने एक्स पोस्ट में आगे कहा, “यह प्रयास स्पष्ट रूप से दिखाता है कि तमिलनाडु के राज्यपाल ने लोगों के जनादेश को कमजोर करने के लिए बीजेपी के इशारे पर काम किया.”

“यह लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित राज्य सरकारों को राज्यपालों, जो केंद्र सरकार के एजेंट के तौर पर काम करते हैं उनके नियंत्रण में लाकर कमजोर करने का एक गंभीर प्रयास है.”

मुख्यमंत्री स्टालिन ने अपनी पोस्ट में 3 सवाल उठाए हैं.

पहला, राज्यपालों को फ़ैसला लेने के लिए समय सीमा निर्धारित करने पर कोई आपत्ति क्यों होनी चाहिए?

दूसरा, क्या बीजेपी बिल को मंज़ूरी देने में अनिश्चितकालीन देरी की अनुमति देकर अपने राज्यपालों द्वारा खड़ी ‘रुकावटों’ को वैध बनाने की कोशिश कर रही है?

तीसरा, क्या केंद्र सरकार गैर-बीजेपी राज्य विधानसभाओं को बंद करना चाहती है?

स्टालिन ने कहा है, “हम अपनी पूरी ताक़त से इस लड़ाई को लड़ेंगे. तमिलनाडु लड़ेगा, तमिलनाडु जीतेगा.”

क्या इससे सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर असर पड़ेगा?

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संविधान विशेषज्ञ और वरिष्ठ वकील विजयन कहते हैं, “प्रेसीडेंशिल रेफ़रेंस किसी भी तरह से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को प्रभावित नहीं करता है.”

बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 136 और 142 के तहत फैसला दिया है. सुप्रीम कोर्ट के दिए गए फैसले के बारे में राष्ट्रपति का रेफ़रेंस भेजना उस फैसले की समीक्षा के लिए अपील या अनुरोध नहीं माना जा सकता.”

विजयन कहते हैं, “राष्ट्रपति ने केवल राय मांगी है. इस तरह से अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर कोई राय व्यक्त करता है, तो वह केवल एक राय होगी और न तो यह बाध्यकारी होगा और न ही यह कोई अलग फ़ैसला होगा. इसलिए यह किसी भी तरह से पहले से दिए गए फ़ैसले को प्रभावित नहीं करेगा.”

विजयन के मुताबिक़ राष्ट्रपति का किसी मामले से जुड़े फैसले पर कोर्ट की राय मांगने के लिए नोट भेजना बहुत दुर्लभ है.

क्या डीएमके को लग सकता है झटका

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तमिलनाडु के वरिष्ठ पत्रकार सिकामनी कहते हैं, “हलांकि इसे उन राज्य सरकारों को कमजोर करने के प्रयास के रूप में देखा जाएगा जहां बीजेपी का शासन नहीं है लेकिन इससे डीएमके को झटका नहीं लगेगा.”

उन्होंने आगे कहा, “राज्य के विधेयकों से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आपत्ति जताई थी. उसके जवाब में राष्ट्रपति का नोट जारी किया गया है.”

क़रीब एक महीने पहले उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले को लेकर न्यायपालिका के बारे में सख़्त टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था कि, ‘अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं.’

उप राष्ट्रपति ने कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 142 एक ऐसा परमाणु मिसाइल बन गया है जो लोकतांत्रिक ताक़तों के ख़िलाफ़ न्यायपालिका के पास चौबीसों घंटे मौजूद रहता है.

सिकामनी का कहना है, “डीएमके का आरोप था कि राज्यपाल ने अपना कर्तव्य नहीं निभाया और अपने काम में देरी की. सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फ़ैसले में इसका ज़िक्र किया और कहा कि यह संविधान के अनुच्छेद 200 के ख़िलाफ़ है.”

उन्होंने कहा, “राष्ट्रपति द्वारा इस तरह के फ़ैसले के ख़िलाफ़ उठाए गए सवालों को केंद्र सरकार के सवाल माना जाएगा. इसलिए यह डीएमके के लिए एक सकारात्मक साबित होगा जो अपनी राजनीति में राज्य के अधिकारों के महत्व को प्रमुखता देती है.”

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

SOURCE : BBC NEWS