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पहली मारुति 800

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जिस तरह बीसवीं सदी के शुरू में अमेरिकी में फ़ोर्ड मॉडल-टी और दूसरे विश्व युद्ध के बाद फ़ॉक्सवैगन की बीटल ने यूरोप में आम लोगों की ज़िंदगी को बदल कर रख दी थी, यह काफ़ी हद तक उसी तरह की कहानी है.

14 दिसंबर, 1983 को गुड़गांव की फ़ैक्ट्री के गेट से गेंदे के फूलों से सजी हुई एक छोटी-सी सफ़ेद कार बाहर निकली. भारत में बनी इस कार को चला रहे थे इंडियन एयरलाइंस में काम करने वाले हरपाल सिंह जो इसे अपने ग्रीन पार्क स्थित घर ले जा रहे थे.

इस कार की चाबियां हरपाल सिंह को सौंपने के बाद भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक भावुक भाषण दिया था, “आप लोगों को शायद इस बात का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं है कि इस कार के चलते हमें किस हद तक तिरस्कार और तोहमतों का सामना करना पड़ा है.”

जब इंदिरा गांधी बता रही थीं कि किस तरह उनके छोटे बेटे संजय भारत की पहली छोटी कार विकसित करने के प्रयास में गर्म और धूल भरे वर्कशॉप में घंटों बिताया करते थे, तो उनकी आँखें भरी हुई थीं. बीच-बीच में उनका गला रुंध आता था और वह पानी का एक घूंट पीकर अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करने की कोशिश करती थीं.

हरपाल सिंह को मारुति 800 की चाबी सौंपती हुईं इंदिरा गांधी

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कार बनाने में तीन निजी कंपनियों का एकाधिकार

संजय गांधी को कारों का जुनून था. कारों का शौक उन्हें अपने पिता फ़िरोज़ गांधी से मिला था. उनके पास काले रंग की एक मौरिस कार हुआ करती थी. उन्हें अपनी कार को चाक-चौबंद रखने का बहुत शौक था. संजय अक्सर अपने पिता को अपनी कार की देखभाल करते हुए देखते थे. शायद यही वजह थी कि उन्होंने दुनिया की मशहूर कार कंपनी रोल्स रॉयस में तीन साल तक कार बनाने के गुर सीखे थे और भारत लौटकर कार बनाने की मुहिम में जुट गए थे.

मारुति उद्योग के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक रहे और इस समय मारुति सुज़ूकी के अध्यक्ष रवींद्र चंद्र भार्गव अपनी किताब ‘द मारुति स्टोरी’ में लिखते हैं, “उस समय के भारत के लिए, जिसको समाजवाद और केंद्रीय योजना की घुट्टी पिलाई गई थी, आम लोगों की कार बनाने के बारे में सोचना एक असंभव-सा सपना था. उस समय भारत में सिर्फ़ तीन कंपनियां कार बना रही थीं. कलकत्ता की हिंदुस्तान मोटर्स जो एंबेसडर कार बनाती थी, बंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल जो फ़िएट कार बनाती थी और चेन्नई की स्टैंडर्ड मोटर्स जो स्टैंडर्ड हेरल्ड कार बनाया करती थी.”

कारों की मांग आपूर्ति से कहीं अधिक थी और कारों की प्रतीक्षा सूची 82 हज़ार तक पहुंच गई थी. इसका मतलब यह था कि लोगों को कार खरीदने के लिए दो साल तक का इंतज़ार करना पड़ता था. फ़िएट कार पाने के लिए तो प्रतीक्षा समय पांच साल का था.

भार्गव लिखते हैं, “सन 1968 में कारों के दाम 14 हज़ार से 16 हज़ार रुपये के बीच हुआ करते थे जो कि उस समय के रहन-सहन के स्तर के हिसाब से बहुत ऊंची कीमत थी. कारों की गुणवत्ता दयनीय हुआ करती थी. ख़राब गुणवत्ता का कारण था प्रतिस्पर्धा का न होना और मांग और आपूर्ति के बीच लंबा अंतर होना.”

आरसी भार्गव की किताब

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मारुति को कार बनाने का लाइसेंस

उस ज़माने में कारों को विलासिता की चीज़ माना जाता था और उनके इस्तेमाल को बहुत अधिक प्रोत्साहन नहीं दिया जाता था.

भारतीय सड़कों पर जो विदेशी कारें दिखाई देती थीं वे दूतावासों की होती थीं या फिर गिने-चुने रईसों की. विदेशी राजनयिक बिना इम्पोर्ट ड्यूटी दिए हुए इन कारों को भारत ला सकते थे. भारत से वापस जाते समय वे इन कारों को ऊंचे दामों पर बेचते थे.

इसे देखते हुए भारत सरकार ने नियम बनाया कि इन विदेशी कारों को सिर्फ़ सरकारी कंपनी स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन को ही बेचा जा सकता है. यह कंपनी बाद में इन कारों की नीलामी करती थी और भारी मुनाफ़ा कमाती थी.

1971 में कार बनाने के लिए तीन लाइसेंस दिए गए, उनमें से एक संजय गांधी को दिया गया था और दूसरी दो कंपनियाँ थीं- बड़ौदा के मनुभाई ठक्कर की और बंगलौर की सनराइज़ ऑटो इंडस्ट्रीज़.

संजय गाँधी ने कार बनाने के बारे में सबसे पहले मंत्रणा की थी दिल्ली फ़्लाइंग क्लब के इंस्ट्रक्टर कैप्टेन टिल्लू से. टिल्लू ने ही उन्हें उत्तरी दिल्ली के भीड़ वाले इलाके गुलाबी बाग़ में काम करने के लिए एक शेड दिलवाया था.

सन 1966 में इसी शेड में एक वर्कशॉप शुरू किया गया था. उस समय संजय के पास कार बनाने के कोई उपकरण नहीं थे. उन्होंने दो मैकेनिकों को नौकरी पर रख अपना काम शुरू कर दिया था.

जाने-माने पत्रकार विनोद मेहता अपनी किताब ‘द संजय स्टोरी’ में लिखते हैं, “1967 के मध्य से संजय ने इस कार पर पागलों की तरह काम करना शुरू कर दिया था. वह सुबह 8 बजे घर से निकलते थे और देर रात घर लौटते थे. एक बार वर्कशॉप में हुए विस्फोट से संजय गांधी झुलस गए थे. उस ज़माने में गुलाबी बाग़ एक गंदा इलाका हुआ करता था जहां कूड़े के ढेर और बहते हुए सीवर होते थे. इस माहौल में प्रधानमंत्री का बेटा सुबह आठ बजे से शाम सात बजे तक मोटरों के पुर्जों के साथ जूझता रहता था.”

मारुति कार का सबसे पहले सपना देखा था संजय गांधी ने

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मारुति के ख़िलाफ़ जांच आयोग

चूंकि वह जगह छोटी पड़ रही थी इसलिए कुछ दिनों बाद उस वर्कशॉप को पश्चिमी दिल्ली में मोती बाग़ के औद्योगिक क्षेत्र में शिफ़्ट कर दिया गया था.

मारुति कंपनी की शुरुआत 4 जून, 1971 को हुई और उसे एक साल में 50 हज़ार कारें बनाने का आशय पत्र और औद्योगिक लाइसेंस जारी कर दिया गया. हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसी लाल ने मारुति मोटर्स लिमिटेड को गुड़गांव में 297 एकड़ का प्लॉट 35 लाख रुपये में उपलब्ध करवाया.

जल्द ही फ़ैक्ट्री के निर्माण का काम शुरू हो गया और 10 लाख वर्ग फ़ीट के क्षेत्र को अंग्रेज़ी के ‘यू’ अक्षर के आकार में कवर कर दिया गया. एक साल के अंदर संजय ने कार का ढांचा तैयार कर लिया. इसे 1972 के इंडिया इंटरनेशनल व्यापार मेले में दिखाया भी गया.

इस बीच देश में इमरजेंसी लग गई और संजय राजनीति में दिलचस्पी लेने लगे. मार्च 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस की हार हुई और जनता पार्टी सत्ता में आ गई. सत्ता में आते ही उसने मारुति के ख़िलाफ़ डीएस गुप्ता जांच आयोग बैठा दिया.

कंपनी में श्रमिक आंदोलन शुरू हो गया. आरसी भार्गव लिखते हैं, “एक दिन मारुति के मज़दूरों ने 12 घंटे तक संजय गांधी का घेराव किया. उनकी मांग थी कि सरकार कंपनी का राष्ट्रीयकरण कर दे. उन्होंने कहा कि वह संजय को तभी जाने देंगे जब वह वादा करें कि वह कभी भी कंपनी का रुख़ नहीं करेंगे. संजय यह बात मान गए. उस दिन के बाद से वह कभी भी उस फ़ैक्ट्री में नहीं गए जिसे उन्होंने इतने जतन से बनाया था.”

6 मार्च, 1978 को कंपनी आधिकारिक रूप से बंद कर दी गई.

संजय गांधी

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मारुति का राष्ट्रीयकरण

तीन वर्ष बाद सन 1980 में इंदिरा गांधी एक बार फिर सत्ता में आ गईं. मारुति को दोबारा ज़िंदा करने के प्रयास होने लगे और विदेशी कार निर्माताओं से सहयोग पर मंत्रणा चलने लगी लेकिन इस बीच 23 जून, 1980 को संजय गांधी का एक विमान दुर्घटना में निधन हो गया.

इंदिरा गांधी नहीं चाहती थीं कि उनके बेटे की मृत्यु के बाद उनका कार बनाने का सपना भी हमेशा के लिए टूट जाए. उन्होंने संजय की जगह सांसद बने अरुण नेहरू को तलब किया और पूछा कि मारुति को दोबारा शुरू करने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है.

अरुण नेहरू ने कहा कि यह परियोजना तभी सफल हो सकती है जब इसके लिए विदेशी तकनीक का इस्तेमाल किया जाए और एक साल में कम-से-कम एक लाख कारें बनाने का लक्ष्य रखा जाए. मारुति मोटर्स के राष्ट्रीयकरण के लिए एक अध्यादेश जारी किया गया और बिल पास कर इसे कानूनी वैधता दे दी गई.

24 फ़रवरी, 1981 को मारुति उद्योग लिमिटेड 100 फ़ीसदी सरकारी कंपनी बन गई. कंपनी के प्रबंध निदेशक के तौर पर भारी उद्योग सचिव और बीएचईएल के प्रमुख रह चुके वी कृष्णामूर्ति को चुना गया. उनको दिसंबर, 1983 तक यानी अगले 30 महीने में कंपनी को शुरू करने का लक्ष्य दिया गया.

मारुति उद्योग के पहले प्रमुख वी कृष्णमूर्ति

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दुनिया की बड़ी कार कंपनियों से संपर्क

मारुति ने स्थापित होते ही भारत में कार बनाने के लिए दुनिया की बड़ी कार निर्माता कंपनियों जैसे रेनो, फ़ॉक्सवैगन, फ़िएट, टोयोटा, मित्सुबिशी और निसान जैसी कंपनियों के दरवाज़े खटखटाने शुरू कर दिए.

इन सभी ने यह सोचकर मारुति से सहयोग करने से इनकार कर दिया कि भारत में वाहन उद्योग का कोई भविष्य नहीं है. कुछ ही दिनों में मारुति के अधिकारियों को स्पष्ट हो गया कि सिर्फ़ जापानी कारें ही भीड़ भरी संकरी भारतीय सड़कों पर फ़िट बैठेंगी.

चार सीटों वाली जापानी कारों की ख़ासियत थीं कि उनमें सामान रखने के लिए भी जगह थी, कम ईंधन में ज़्यादा दूर जा सकती थीं और जापान में उस समय उनकी कीमत करीब 30 हज़ार रुपये थी.

आखिर में तीन जापानी कार कंपनियां शॉर्टलिस्ट की गईं दाईहात्सू, मित्सुबिशी और सुज़ूकी. कृष्णामूर्ति के नेतृत्व में मारुति का दल मित्सुबिशी से बात करने टोक्यो पहुंचा.

वी कृष्णमूर्ति अपनी आत्मकथा ‘एट द हेल्म, अ मेमॉएर’ में लिखते हैं, “मित्सुबिशी ने हमें चार दरवाज़ों वाली ‘मिनिका’ कार ऑफ़र की, जब हमारी मित्सुबिशी के अधिकारियों से मुलाकात हुई तो उनके चालीस अधिकारी एक बड़ी मेज़ के एक तरफ़ बैठे हुए थे. मेज़ की दूसरी तरफ़ मारुति के सिर्फ़ चार अधिकारी थे. हमें तभी लग गया कि मित्सुबिशी कुछ ज़्यादा ही बड़ी कंपनी है जिसके प्रबंधन में कई परतें हैं. उनके प्रबंधन के चोटी के व्यक्ति से बात करना एवरेस्ट फ़तह करने के समान होगा. बाद में मैंने इंदिरा गांधी से इस बारे में बात की और उन्हें बताया कि मारुति के अधिकारियों के लिए मित्सुबिशी के दूसरे पायदान के व्यक्ति से भी संपर्क करना टेढ़ी खीर साबित होगा.”

वी कृष्णमूर्ति की किताब

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मारुति और सुज़ूकी के बीच समझौता

कुछ दिनों बाद मारुति प्रबंधन की सुज़ूकी के अफ़सरों से मुलाकात हुई तो नज़ारा बिल्कुल अलग था. इस बैठक में सुज़ूकी के प्रमुख ओसुमु सुज़ूकी समेत कंपनी के चार अधिकारी शामिल हुए. इस मुलाक़ात से कृष्णमूर्ति को लग गया कि इस संगठन के साथ काम किया जा सकता है.

आरसी भार्गव लिखते हैं, “कृष्णमूर्ति सुज़ूकी के तेज़ी से फ़ैसला लेने के गुण से सबसे अधिक प्रभावित हुए. यह भी लगा कि सुज़ूकी लागत के प्रति बहुत सचेत है. उनके दफ़्तर में एयरकंडीशनर तक नहीं था. उस ज़माने में सुज़ूकी का पाकिस्तान में एक प्लांट हुआ करता था, जिसके प्रदर्शन से वह ख़ुश नहीं थे. सारा फ़र्क कार्य संस्कृति का था. सुज़की को इस बात से परेशानी थी कि मज़दूर काम पर देर से आते थे. सुज़ूकी ने साफ़ कर दिया कि अगर मारुति को वही गुणवत्ता चाहिए जो जापान में है तो उसके श्रमिकों को उस तरह काम करना सीखना होगा जैसे जापानी करते हैं.”

एक अप्रैल 1982 को सुज़ूकी भारत आए. 14 अप्रैल, 1982 को सुज़ूकी और मारुति के बीच औपचारिक समझौते पर दस्तख़त हुए. उस समय तक भारत की सोवियत संघ से निकटता और औद्योगिक नीति में समाजवादी पुट जापान की नीतियों से मेल नहीं खाता था.

यहां तक कि भारत में जापान का दूतावास भी इस निवेश के पक्ष में नहीं था लेकिन सुज़ुकी ने इसके बावजूद आगे बढ़ने का फ़ैसला किया.

मारुति के पूर्व प्रबंध निदेशक जगदीश खट्टर अपनी आत्मकथा ‘ड्रिवेन’ में लिखते हैं, “सुज़ूकी का तर्क साफ़ था. मारुति में उनका निवेश सुज़ूकी के साल भर के लाभ के बराबर था. उनके लिए यह एक तरह का जुआ था या तो वह दोहरा मुनाफ़ा कमाएंगे या पूरी तरह से डूब जाएंगे. मारुति ने पांच साल में एक लाख कारें बनाने की क्षमता हासिल करने की योजना बनाई थी जो उस समय बहुत ही महत्वाकांक्षी और दुस्साहसी लग रही थी.”

सुज़ूकी के प्रमुख ओसुमु सुज़ूकी

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मारुति का लोगों में क्रेज़

दोनों पक्षों में यह तय हुआ कि भारत में यह कार बेचने से पहले उस कार को यहां के लोगों को दिखाना ज़रूरी है.

जापान से कई कारें भारत लाई गईं और उन्हें जापानी ड्राइवरों ने कलकत्ता से दिल्ली और फिर शिमला और मुंबई तक ड्राइव किया. जहां-जहां से वह गुज़रे लोगों ने इस कार को देखने के लिए भीड़ लगा दी. दशकों बाद भारतीय लोगों ने एंबेसडर या फ़िएट के अलावा कोई दूसरी कार भारतीय सड़कों पर देखी थी.

आरसी भार्गव ने लिखा, “सुज़ूकी की फ़िनिश, पेंट गुणवत्ता और माइलेज इन कारों से कहीं बेहतर थी. कई जगह लोग ट्रैफ़िक लाइट पर इन कारों के चारों ओर घेरा बनाकर उसे देखने लगते थे. जब उद्योग मंत्री नारायणदत्त तिवारी ने पहली बार इस कार को देखा तो उनका पहला सवाल था ‘इसमें होल्डाल कहां रखोगे?’ उन्हें कार का बूट दिखाया गया लेकिन उन्हें लगा कि यह होल्डाल के लिए बहुत छोटा है. उन्होंने सलाह दी कि सामान के लिए कार की छत पर अलग से लगेज कैरियर बनाया जाए. मारुति ने उनकी सलाह पर अमल करने की कोशिश की लेकिन लोगों ने उसे पसंद नहीं किया.”

इस टेस्ट ड्राइव से ही भारत की परिस्थितियों के अनुरूप कार में कई परिवर्तन किए गए, मसलन ऊंचा ग्राउंड क्लियेरेंस, तगड़े हॉर्न और मज़बूत शॉक एब्ज़ॉर्बर्स.

लाइन में लगी मारुति कारें

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जापान में ट्रेनिंग

मारुति ने भारतीय उद्योग जगत में नई संस्कृति शुरू की जिसे ‘मारुति संस्कृति’ का नाम दिया गया.

वी कृष्णमूर्ति ने लिखा, “हम पर सरकार का नियंत्रण भले ही रहा हो, हमने तय किया कि हम सरकारी कंपनी की तरह काम नहीं करेंगे. मैंने चुपचाप कंपनी के सारे लेटरपैडों से ‘भारत सरकार का उपक्रम’ वाक्य हटवा दिया. हमने यह भी तय किया कि अनुशासन, समय की पाबंदी, उत्पादकता और गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया जाएगा. कंपनी में नियम बनाया गया कि सिर्फ़ प्रथम श्रेणी में पास हुए इंजीनयरिंग स्नातकों को ही कंपनी में नौकरी दी जाएगी, वह भी लिखित परीक्षा और इंटरव्यू पास करने के बाद.”

कृष्णमूर्ति लिखते हैं, “भारतीय उद्योग जगत में उस समय सबसे बड़ी समस्या थी मज़दूरों की काम से गैर-हाज़िरी. हमने उन लोगों को बोनस देना शुरू किया जो काम पर लगातार हाज़िर रहते थे. हमने उन लोगों को तरक्की दी और ट्रेनिंग के लिए जापान भी भेजा. एक और नई चीज़ हमने शुरू की वह थी रोज़ शिफ़्ट शुरू होने से पहले मज़दूरों की शारीरिक कसरत. हमने पूरी कंपनी में सबके वर्दी पहनने को अनिवार्य कर दिया. जैसे-जैसे मारुति की ख्याति बढ़ी उसकी वर्दी एक तरह का ‘स्टेटस सिंबल’ हो गई.”

मारुति की चेकिंग

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कार की क़ीमत साढ़े 52 हज़ार रुपये

जब मारुति 800 की बिक्री शुरू हुई तो इसकी कीमत रखी गई साढ़े 47 हज़ार रुपये. इसमें तकरीबन छह हज़ार रुपये का उत्पाद शुल्क भी शामिल था.

डीलर कमीशन और बिक्री कर के बाद दिल्ली में कार को लाने की कीमत 52,500 रुपये थी. इस कीमत को अगले तीन साल तक बरकरार रखा गया.

रातोंरात नई नवेली मारुति ने पुरानी पड़ चुकी एंबेसडर और फ़िएट को पछाड़ना शुरू कर दिया. नतीजा यह हुआ कि पहले दो वर्षों में भारत में कारों की बिक्री दोगुनी हो गई. लोग ‘आउट ऑफ़ टर्न’ कार लेने के लिए इसकी आधिकारिक कीमत से दोगुनी कीमत तक देने के लिए तैयार होने लगे.

मारुति 800

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भारतीय लोगों की कई पीढ़ियों के लिए मारुति 800 उनकी पहली कार थी.

फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सचिन तेंदुलकर तक ने अपने जीवन में कम-से-कम एक बार मारुति 800 के स्वामित्व का आनंद लिया.

मारुति 800 ने रातों-रात सिर्फ़ अपने बूते पर भारतीय मोटर उद्योग की सूरत बदल कर रख दी.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.

SOURCE : BBC NEWS