Source :- BBC INDIA
भारत दुनिया के शीर्ष तीन देशों में से एक है, जिसके पश्चिमी घाट में मीठे पानी की मछली की
प्रजातियां एशिया में सबसे ज़्यादा ख़तरे में हैं.
यह बात एक मशहूर अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुई वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्ट में सामने आई है.
इसके मुताबिक़, इंडोनेशिया, भारत और तंज़ानिया (इसी क्रम में) वो तीन देश हैं, जहां मीठे पानी में मौजूद 25 फ़ीसदी जैव विविधता “विलुप्त होने के भारी जोख़िम” का सामना कर रही है.
दक्षिण भारत में मीठे पानी की संकटग्रस्त प्रजातियां बड़ी संख्या में पाई जाती हैं. दक्षिण भारत वो हिस्सा है, जिसके दायरे में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के पश्चिमी घाट वाले इलाके़ आते हैं.
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दरअसल, पश्चिमी घाट को अमेज़न बेसिन, लेक विक्टोरिया (केन्या, तंज़ानिया और युगांडा), लेक टिटिकाका (बोलीविया और पेरू) और श्रीलंका के वेट ज़ोन के समान पाया गया है, ‘जहां मीठे पानी में मिलने वाली मछली की वो प्रजातियां अच्छी मात्रा में हैं, जिन पर ख़तरा है.’
इनके अलावा, लेक टिटिकाका, चिली का बायोबियो इलाक़ा और द अज़ोरस (पुर्तगाल) इन सभी जगहों पर भी वो प्रजातियाँ ज़्यादा हैं, जिन पर “बहुत ज़्यादा ख़तरा” है.
यह ‘मल्टी टैक्सन ग्लोबल फ्रेशवाटर जीव’ असेसमेंट इंटरनेशनल यूनियन फ़ॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर की ओर से किया गया है. ये रिपोर्ट एक अंतरराष्ट्रीय साइंस जर्नल ‘द नेचर’ में प्रकाशित हुई है.
यह आकलन दुनिया भर में एक हज़ार से ज़्यादा लोगों के 20 वर्षों से ज़्यादा समय तक किए गए काम का परिणाम है.
राजीव राघवन, केरल यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़िशरिज़ एंड ओसन स्टडीज़ के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और आईयूसीएन फ्रेशवाटर फ़िश स्पेशलिस्ट ग्रुप के दक्षिण एशिया के प्रमुख हैं.
उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, “भारत में मूल मुद्दा यह है कि वाइल्ड लाइफ और बायोडायवर्सिटीज़ से जुड़ी हमारी अधिकांश योजनाएं पूरी तरह से करिश्माई स्तनधारियों जैसे बाघ, हाथी, गैंडे और पक्षियों पर केंद्रित है. इन सभी के लिए बहुत ज़्यादा ध्यान, पैसा और संसाधन दिया जाता है.”
“लेकिन भारत में किसी मछली के लिए कोई व्यवस्थित योजना नहीं है, जिसमें यह तय किया जाए कि उसे कैसे बचाया जाए.”
विलुप्त होने की कगार पर भारतीय प्रजातियां
विभिन्न राज्यों में विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकीं मीठे पानी की मछली की कुछ प्रमुख प्रजातियों के नाम कुछ इस तरह के हैं.
महाराष्ट्रः डेक्कन बार्ब और ज़ेब्रा लोच.
केरलः मालाबार महासीर, रेडलाइन टॉरपीडो बार्ब, ब्लैक कॉलरेड कैटफिश और पेनिनसुलर हिल बार्ब.
तमिलनाडुः डेवेरियो नीलघेरिएन्सिस, भवानी बार्ब और गर्रा कालाकाडेन्सिस.
कर्नाटक-तमिलनाडुः हम्पबैक महासीर, नीलगिरी मिस्टस, हिप्सेलोबार्बस डबियस और केनेरा पर्लस्पॉट.
पश्चिमी घाट दुनिया की सबसे आइकॉनिक मीठे पानी की मछली की प्रजातियों का घर भी है.
उदाहरण के लिए हम्पबैक्ड महासीर. यह एक बड़ी मछली है, जो 60 किलो तक की हो सकती है. आईयूसीएन रेड लिस्ट में इसे “गंभीर तौर पर लुप्तप्राय” के तौर पर शामिल किया गया है.
राघवन ने बताया, “यह मछली जहां रहती है, उस इलाक़े को नदी परियोजनाओं, रेत, खनन, इस मछली के अवैध शिकार और आक्रामक विदेशी प्रजातियों से ख़तरा है. इसलिए जहां हम्पबैक्ड महासीर रहती है, उस नदी और सहायक नदियों की सुरक्षा इस मछली के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ज़रूरी है.”
“इसके अलावा मछली पकड़ने के नियमों के अलावा विदेशी आक्रामक प्रजातियों की शुरुआत पर प्रतिबंध लगाने की भी ज़रूरत है.”
राघवन के मुताबिक, महासीर के समान पश्चिमी घाट में 30 से 40 प्रजातियां हैं, जिनके विलुप्त होने का ख़तरा है.
राघवन के अनुसार पश्चिमी घाट में मीठे पानी की मछली की 300 से ज़्यादा प्रजातियां मौजूद हैं. यहां मीठे पानी के जीवों की असाधारण विविधता है.
यह एशिया में एकमात्र इलाक़ा है, जहां मीठे पानी की मछलियों के दो परिवार रहते हैं. ये दोनों ही ग्राउंड वाटर और भूमिगत इलाक़ों में रहते हैं.
पश्चिमी घाट की कई स्थानीय और मीठे पानी की लुप्तप्राय प्रजातियां बहुत ही छोटे इलाक़े में पाई जाती हैं. कभी-कभी यह एक ही स्थान पर या फिर एक ही नदी में मिलती हैं.
इसी तरह आईयूसीएन रेड लिस्ट में लुप्तप्राय प्रजातियों में 23,496 जीव शामिल हैं. इनमें डेकापोड क्रस्टेशियंस जैसे- झींगा, केकड़े, क्रेफ़िश और झींगे, मछलियां और ओडोनेट्स (जैसे- ड्रेगोन्फ्लाइज़ और डेमसेल्फ़िज़) शामिल हैं.
रिपोर्ट बताती है कि इन प्रजातियों के सामने प्रदूषण, बांध और जल निकासी, कृषि और आक्रामक प्रजातियों के साथ-साथ अत्यधिक कटाई से भी विलुप्त होने का ख़तरा है.
क्यों मंडरा रहा है ये ख़तरा
राघवन बताते हैं, “सबसे बड़ा ख़तरा इनके रहने की जगहों में गिरावट या कमी होना है. इन जगहों को कई वजहों से नुक़सान होता है. उदाहरण के लिए प्रदूषण फैलाने वाले चीज़ें ऊपर से नीचे की ओर बहकर आती हैं. ऊपरी इलाकों में चाय, इलायची आदि के बागान होते हैं और वहां कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है.”
वो कहते हैं, “जलधारा की शुरुआत से लेकर उसके समुद्र में पहुंचने तक प्रदूषण फैलाने वाले कई तत्व उसमें मिल चुके होते हैं. ये उद्योग, कृषि और मानव गतिविधियों से जुड़े तत्व होते हैं, जो प्रदूषण फैलाने का काम करते हैं.”
वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्ट बताती है, “वैश्विक स्तर पर जैव विविधता में गिरावट आ रही है और खासतौर पर मीठे पानी का ईको-सिस्टम इससे प्रभावित हो रहा है.”
इसके मुताबिक़ “जितने प्राकृतिक आंतरिक स्थलों वेटलैंड (इनमें पीटलैंड, दलदल, झीलें, नदियां, तालाब आदि शामिल हैं) की निगरानी की गई, उसमें यह बात निकलकर आई कि 1970 से लेकर 2015 तक 35 फ़ीसदी वेटलैंड ख़त्म हो चुके हैं.”
रिपोर्ट के मुताबिक़- “ये गिरावट जंगलों में गिरावट के मुक़ाबले तीन गुनी तेज़ी से हुई है. अब जितने भी वेटलैंड वाले इलाके वाले आवास बचे हैं, उनमें 65 फ़ीसदी ऐसे हैं, जिन पर मध्यम से लेकर उच्च स्तर तक का ख़तरा है. इसके अलावा 37 फ़ीसदी नदियां ऐसी हैं, जो पूरी तरह से मुक्त तौर पर नहीं बह रही हैं.”
इसकी दूसरी वजह को राघवन “सीधा इंफ्रास्ट्रक्चर” के तौर पर परिभाषित करते हैं, जो कि नदियों पर पुलों के निर्माण, बांध और नहरों के चैनलाइज़ेशन से जुड़ा है.
उन्होंने कहा, “अगर आप बांध के नीचे का हिस्सा देखें तो आप पाएंगे कि अधिकांश हिस्सा सूखा है, क्योंकि पानी को बांधों द्वारा रोक लिया जाता है.”
“इसलिए, बांध के निचले हिस्से में रहने वाले लोग और जैव विविधता हमेशा प्रभावित होती है. यह कुछ कारण हैं, जिनके कारण (मछलियों और जलीय जीवों के) आवास में कमी आती है या वो नष्ट हो जाते हैं.”
संक्षेप में, इसका मतलब यह है कि मनुष्यों के अस्तित्व के लिए जितने भी संसाधन आवश्यक हैं, वो सभी मीठे पानी की जैव विविधता के संरक्षण के रास्ते में आ रहे हैं.
यह मानव और जानवरों के संघर्ष जैसा है, जो न सिर्फ़ कृषि समुदाय को प्रभावित करता है, बल्कि शहरी मानव आवासों को भी प्रभावित कर रहा है. वर्तमान में यह शहरों और महानगरों के किनारे पर मौजूद है.
बड़ी चुनौती
राघवन ने कहा, “आप यह कह सकते हैं कि बाघ या हाथी किसी भी मानवीय ज़रूरतों में योगदान नहीं देते हैं, मगर आप यह नहीं कह सकते हैं कि आप मछली या निचले जलीय जीव नहीं पकड़ सकते, क्योंकि यह सामुदायिक उद्देश्य की पूर्ति करते हैं.”
“ये काम गरीब लोगों को भोजन और रोज़गार मुहैया करवाता है. इसमें संतुलन बनाना सबसे मुश्किल काम है. यह भी एक कारण है कि मीठे पानी के जीवों के संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया जाता है, क्योंकि अधिकांश लोग इस मामले में सामुदायिक दृष्टिकोण से सोचते हैं.”
वह यह भी बताते हैं कि मछली खाद्य सुरक्षा और आजीविका के लिए एक अहम घटक है. मगर, इसके अलावा वो पोषक तत्वों का पुर्नचक्रण भी करती है.
पानी को फिल्टर करती है. उनकी भूमिका ईकोलॉजिकल होने के साथ-साथ व्यावसायिक भी है, जो मानवीय मांगों से जुड़ी है.
राघवन इस बात से सहमत हैं कि, “मुख्य चिंता इस बात की है कि स्तनधारियों और पक्षियों के बजाए मछली और अन्य मीठे पानी के जीव आजीविका का स्रोत हैं.”
“इसलिए, इनके संरक्षण और आजीविका की बहस के बीच संतुलन बनाना बहुत कठिन है.”
रिपोर्ट कहती है, “मीठे पानी की मछलियों का संरक्षण ख़ासतौर पर उन इलाक़ों में महत्वपूर्ण है, जहां समुदाय प्रोटीन संबंधी ज़रूरतों के लिए इन मछलियों पर निर्भर हैं. अन्यथा खाद्य सुरक्षा और आजीविका और अर्थव्यवस्था से समझौता करना पड़ेगा.”
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SOURCE : BBC NEWS