Source :- BBC INDIA
16 जनवरी 1970 के दिन लीबिया के प्रधानमंत्री बनने वाले मुअम्मर ग़द्दाफ़ी के ख़्वाब और ख़्याल में भी नहीं होगा कि उनकी सत्ता 42 साल लंबी होगी और उसका अंजाम कैसा होगा.
अपनी सत्ता के दौर में उन्होंने अपने ख़िलाफ़ किसी भी तरह के विरोध को बेहद बेदर्दी से कुचल कर रखा.
शायद यही वजह थी कि उनके सामने कोई और नेतृत्व नहीं उभर सका.
और फिर साल 2011 में ट्यूनीशिया से शुरू होने वाले ‘अरब स्प्रिंग’ का सैलाब कर्नल मुअम्मर ग़द्दाफ़ी को भी बहा ले गया.
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20 अक्तूबर 2011 को विद्रोहियों के हाथों मारे गए मुअम्मर ग़द्दाफ़ी बद्दू कबीले के एक किसान के बेटे थे. गांव से शुरुआत करते हुए वह अरब दुनिया के प्रभावी नेता कैसे बने?
सेना में भर्ती और तरक़्क़ी
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के अनुसार मुअम्मर ग़द्दाफ़ी 1942 में पैदा हुए और उनके पिता एक बद्दू किसान थे.
मुअम्मर ग़द्दाफ़ी स्कूल की शिक्षा पूरी करने के बाद बेनग़ाज़ी में यूनिवर्सिटी की शिक्षा लेने पहुंचे.
साल 1961 में उनके राजनीतिक झुकाव और विचारधारा की वजह से उन्हें यूनिवर्सिटी से निकाल दिया गया.
मुअम्मर ग़द्दाफ़ी ने इस दौरान यूनिवर्सिटी ऑफ़ लीबिया से लॉ की डिग्री हासिल की. यहां उनके पास लीबिया की फ़ौज में भर्ती होने का मौक़ा मिला.
सेना में नौकरी के ज़रिए लीबिया में बेहतर शिक्षा ली जा सकती थी. सेना को एक बढ़िया आर्थिक विकल्प के रूप में देखा जाता था.
इसीलिए शायद वह उच्च शिक्षा पूरी करने से पहले ही सेना में भर्ती हो गए. उनके इसे फ़ैसले ने एक दिन उन्हें सत्ता के गलियारों में पहुंचा दिया. जवानी में मुअम्मर ग़द्दाफ़ी मिस्र के जमाल अब्दुल नासिर और उनकी नीतियों के प्रशंसक थे.
मुअम्मर ग़द्दाफ़ी ने भी उन प्रदर्शनों में हिस्सा लिया जो 1956 में मिस्र की ओर से स्वेज़ नहर के राष्ट्रीय अधिग्रहण के बाद ब्रिटेन, फ़्रांस और इसराइल के हमले के ख़िलाफ़ अरब दुनिया में शुरू हुए थे.
लीबिया में मिलिट्री ट्रेनिंग पूरी करने के बाद ग़द्दाफ़ी को 1965 में ट्रेनिंग के लिए ब्रिटेन भेज दिया गया.
लीबिया की सेना में मुअम्मर ग़द्दाफ़ी ने असाधारण तेज़ी से तरक़्क़ी की और इस दौरान शाही परिवार के ख़िलाफ़ बग़ावत की योजना बनाने लगे.
लीबिया में बादशाहत के ख़िलाफ़ बग़ावत की योजना फ़ौजी ट्रेनिंग के दौर से ही मुअम्मर ग़द्दाफ़ी के मन में थी. आख़िरकार साल 1969 में ब्रिटेन से ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने बेनग़ाज़ी शहर को केंद्र बनाकर सैनिक विद्रोह कर दिया. इस विद्रोह के अंत में वे लीबिया के शासक बनकर उभरे.
विद्रोह और तेल
एक सितंबर 1969 को कर्नल मुअम्मर ग़द्दाफ़ी के नेतृत्व में सेना ने लीबिया के बादशाह की सत्ता का तख़्ता पलट दिया.
ख़ुद ग़द्दाफ़ी फ़ौज के कमांडर इन चीफ़ बन गए और साथ ही साथ क्रांति परिषद के नए अध्यक्ष की हैसियत से राष्ट्राध्यक्ष भी. लेकिन उन्होंने कर्नल का रैंक ही लगाए रखा.
सत्ता में आते ही ग़द्दाफ़ी ने अमेरिकी और ब्रिटिश सैनिक अड्डों को खत्म करते हुए 1970 में ही इतालवी और यहूदी आबादियों को भी देश से बाहर कर दिया.
1973 में कर्नल ग़द्दाफ़ी ने देश के तेल के सभी केंद्रों का राष्ट्रीय अधिग्रहण कर लिया. उन्होंने देश में शराब और जुए पर भी पाबंदी लगा दी.
इस दौरान उन्होंने अंतरराष्ट्रीय तेल कंपनियों के अधिकारियों को चुनौती देते हुए कहा था, “जो लोग पांच हज़ार साल तक बिना तेल के ज़िंदा रहे वह अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए कुछ साल और भी ज़िंदा रह सकते हैं.”
उनकी तरफ़ से दी गई यह चुनौती काम कर गई और लीबिया विकासशील देशों में वह पहला देश बना जिसने अपने तेल उत्पादन का बड़ा हिस्सा हासिल कर लिया.
दूसरे अरब देशों ने जल्द ही इस उदाहरण से सीख लेते हुए सन 1970 के दशक में अरब पेट्रोल बूम यानी अरब देशों में तेल की क्रांति की बुनियाद रखी.
इस तरह लीबिया ‘काले सोने’ से लाभ लेने के लिए अच्छी स्थिति में आ गया था क्योंकि यहां तेल का उत्पादन खाड़ी देशों जितना था लेकिन अफ़्रीका में इस देश की कुल आबादी केवल 30 लाख थी.
इस तरह तेल ने लीबिया को बहुत जल्द ही बहुत अमीर बना दिया.
कर्नल ग़द्दाफ़ी इसराइल से बातचीत के घोर विरोधी थे और इसी वजह से वह अरब दुनिया में एक ऐसे नेता बन कर उभरे जिन्होंने मिस्र और इसराइल के बीच शांति समझौते को भी अस्वीकार कर दिया.
ग़द्दाफ़ी का नज़रिया
1970 की शुरुआत में ग़द्दाफ़ी ने ‘ग्रीन बुक’ नाम की किताब के ज़रिए अपना राजनीतिक नज़रिया पेश किया. इसके तहत इस्लामी समाजवाद को प्राथमिकता दी गई और आर्थिक संस्थानों को राष्ट्रीय अधिग्रहण में लेने का ऐलान किया गया.
इस किताब के अनुसार समाज की समस्याओं का हल लोकतंत्र या किसी और व्यवस्था में नहीं था. लोकतंत्र को ग़द्दाफ़ी ने सबसे बड़े दल की तानाशाही का नाम दिया था. ग़द्दाफ़ी के अनुसार सरकार ऐसी समितियों से चलाई जानी चाहिए जो सभी बातों की ज़िम्मेदार हों.
1979 में ग़द्दाफ़ी ने लीबिया का औपचारिक नेतृत्व तो छोड़ दिया. उन्होंने दावा किया कि अब वो केवल एक क्रांतिकारी नेता हैं. लेकिन सत्ता और शक्ति उनके हाथों में ही रही.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कर्नल ग़द्दाफ़ी और उनकी सरकार अपने अप्रत्याशित फ़ैसलों की वजह से मशहूर हुई.
उन्होंने कई संगठनों को फंड देने शुरू किए. इनमें अमेरिकी ब्लैक पैंथर्स और नेशन ऑफ़ इस्लाम तक शामिल थे. ग़द्दाफ़ी ने उत्तरी आयरलैंड में आयरिश रिपब्लिकन आर्मी (आईआरए) का भी समर्थन किया.
लीबिया के ख़ुफ़िया एजेंट विदेश में आलोचकों को निशाना बनाते रहे. उस दौर में ग़द्दाफ़ी सरकार पर कई जानलेवा घटनाओं के आरोप भी लगे. फिर 1986 में एक ऐसी घटना हुई जो बहुत ही अहम साबित हुई.
यह मामला जर्मनी की राजधानी बर्लिन में एक ऐसे क्लब में होने वाला धमाका था जहां अमेरिकी सैनिक जाया करते थे. इस धमाके का आरोप लीबिया के एजेंटों पर लगा.
उस वक़्त अमेरिकी राष्ट्रपति रोनल्ड रेगन ने दो सैनिकों की मौत के बाद त्रिपोली और बेनग़ाज़ी पर हवाई हमलों का आदेश दिया. इन हमलों में लीबिया का भारी नुक़सान हुआ और कई नागरिकों की मौत हुई.
जिन लोगों की मौत हुई उनमें कथित तौर पर कर्नल ग़द्दाफ़ी की मुंह बोली बेटी भी शामिल थी लेकिन ख़ुद ग़द्दाफ़ी बच निकले.
इसके बाद 1988 में ‘पैन ऐम’ का यात्री विमान स्कॉटलैंड के शहर लॉकरबी में क्रैश हुआ तो 270 लोगों की जान चली गई.
इस क्रैश के लिए भी लीबिया पर ही आरोप लगा.
लॉकरबी समझौता
ग़द्दाफ़ी ने शुरू में लॉकरबी धमाके के दो संदिग्ध आरोपियों को स्कॉटलैंड के हवाले करने से इनकार कर दिया था.
इसके बाद प्रतिबंधों और वार्ताओं का एक सिलसिला शुरू हुआ जो 1999 में उस समय ख़त्म हुआ जब ग़द्दाफ़ी ने उन दोनों को आख़िरकार स्कॉटलैंड के हवाले कर दिया.
उनमें से एक को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई जबकि दूसरे को बरी कर दिया गया.
अगस्त 2003 में लीबिया ने संयुक्त राष्ट्र को लिखे एक पत्र में इस धमाके की ज़िम्मेदारी स्वीकार की और घटना के प्रभावितों को लगभग 2.7 अरब डॉलर का मुआवज़ा दिया. इसके जवाब में सितंबर 2003 में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने लीबिया पर लगाए गए प्रतिबंध ख़त्म कर दिए.
इसके बाद लीबिया ने 1989 में तबाह होने वाले एक फ़्रांसीसी यात्री जहाज़ के साथ-साथ बर्लिन क्लब के प्रभावितों को भी मुआवज़ा अदा किया.
लॉकरबी समझौते और कर्नल ग़द्दाफ़ी की ओर से ख़ुफ़िया परमाणु और रासायनिक प्रोग्राम की बात स्वीकार करने और उसे छोड़ने के ऐलान ने पश्चिमी शक्तियों से लीबिया के बेहतर संबंध का रास्ता बनाया.
अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध ख़त्म हो जाने के बाद लीबिया की अंतरराष्ट्रीय राजनीति में वापसी हुई.
इसके बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर समेत कई बड़ी हस्तियां ग़द्दाफ़ी के शानदार महल में उनके बद्दू तंबू (टेंट) में दिखे.
यह तंबू कर्नल ग़द्दाफ़ी के अंतरराष्ट्रीय दौरे में उनके साथ ही यूरोप और अमेरिका का सफ़र किया करता था. उस दौर में लीबिया ने यूरोप की हथियार बनाने वाली कंपनियों और तेल की कंपनियों के साथ कई कारोबारी समझौते किए.
अनोखे तरीक़े अपनाने के लिए मशहूर कर्नल ग़द्दाफ़ी अक्सर टेलीविज़न पर तंबू में रहते हुए दिखाई देते.
कहा जाता था कि उनके निजी सुरक्षा कर्मियों में महिलाओं की बहुलता थी.
अरब जगत में बदलाव
फ़रवरी 2011 में ट्यूनीशिया और मिस्र में आम लोगों के प्रदर्शनों ने ज़ैनुल आबेदीन और हुस्नी मुबारक की लंबी सत्ता को ख़त्म किया तो लीबिया में मुअम्मर ग़द्दाफ़ी के ख़िलाफ़ भी प्रदर्शन शुरू हो गए.
देश भर में हो रहे प्रदर्शनों से निपटने के लिए ग़द्दाफ़ी की सरकार ने ताक़त से रोकने का प्रयास किया. पुलिस और क़ानून लागू करने वाली संस्थाओं ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं.
प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ लड़ाकू विमानों और हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल भी किया गया.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय और मानवाधिकार संगठनों ने भी लीबिया के इन कदमों की निंदा की.
दूसरी ओर ख़ुद कर्नल ग़द्दाफ़ी की सरकार के वरिष्ठ अधिकारी भी इस स्थिति से नाराज़ हो गए. इसी वजह से क़ानून मंत्री ने इस्तीफ़ा दिया और कई राजदूतों ने भी सरकार की निंदा की.
22 फ़रवरी को कर्नल ग़द्दाफ़ी ने सरकारी टीवी पर एक संबोधन में इस्तीफ़ा देने से इनकार करते हुए प्रदर्शनकारियों को ‘ग़द्दार’ बताया.
उन्होंने दावा किया कि विपक्ष अल-क़ायदा के संरक्षण में है और प्रदर्शनकारी ड्रग्स का इस्तेमाल कर रहे हैं. उन्होंने अपने समर्थकों से कहा कि वह प्रदर्शनकारियों से उनकी रक्षा करें.
लेकिन धीरे-धीरे ग़द्दाफ़ी की सत्ता पर पकड़ कमज़ोर होती चली गई और उनके विरोधी फ़रवरी के आख़िर तक लीबिया में बड़े इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर चुके थे.
इसके बाद त्रिपोली की भी घेराबंदी कर ली गई जहां ग़द्दाफ़ी अकेले पड़ चुके थे और उन पर इस्तीफ़ा देने का दबाव बढ़ रहा था.
28 फ़रवरी को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने ग़द्दाफ़ी सरकार पर नए प्रतिबंध लगा दिए और उनके परिवार की संपत्तियां भी फ़्रीज़ कर दीं.
28 फ़रवरी को संयुक्त राष्ट्र ने ऐलान किया कि कर्नल ग़द्दाफ़ी से जुड़ी 30 अरब डॉलर की संपत्ति फ़्रीज़ की जा चुकी है.
उसी दिन पश्चिमी मीडिया को दिए अपने इंटरव्यू में कर्नल ग़द्दाफ़ी ने दावा किया कि जनता अब भी उनसे प्यार करती है.
उन्होंने इस आरोप से इनकार किया कि उनकी सरकार ने प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ ताक़त का इस्तेमाल किया. उन्होंने यह दावा भी दोहराया कि उनके विरोधी अलक़ायदा के संरक्षण में काम कर रहे हैं.
कर्नल ग़द्दाफ़ी की सेना ने भी आश्चर्यजनक ढंग से बहुत से इलाक़े विद्रोहियों के क़ब्ज़े से वापस ले लिए. ऐसे में जब लीबिया की सेना बेनग़ाज़ी की ओर बढ़ रही थी तो संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने 17 मार्च को सैनिक हस्तक्षेप के लिए वोट दिया और ‘नेटो’ की ओर से हवाई बमबारी ने कर्नल ग़द्दाफ़ी की फ़ौज को भारी नुक़सान पहुंचाया.
मार्च के अंत में कर्नल ग़द्दाफ़ी की सरकार को उस समय बड़ा धक्का लगा जब दो सीनियर अधिकारियों ने वफ़ादारी बदल ली. लेकिन ग़द्दाफ़ी त्रिपोली पर नियंत्रण बनाये हुए थे और उन्होंने ऐलान किया कि वह हर संभव ढंग से प्रतिरोध करेंगे.
30 अप्रैल को नेटो की वायुसेना ने त्रिपोली में ग़द्दाफ़ी के बाब अल-अज़ीज़िया पर हमला किया जिसमें उनके छोटे बेटे सैफ़ अल-अरब और तीन पोते मारे गए. इस हमले में ग़द्दाफ़ी को निशाना बनाया गया था लेकिन वह बच गए.
कर्नल ग़द्दाफ़ी की मौत
27 जून को ग़द्दाफ़ी, उनके बेटे और इंटेलीजेंस चीफ़ की गिरफ़्तारी के लिए वारंट जारी कर दिए गए.
इसके बाद अगस्त में विद्रोही लीबिया की राजधानी त्रिपोली में घुस आए और 23 अगस्त को ग़द्दाफ़ी के हेडक्वार्टर बाब अल-अज़ीज़िया कंपाउंड पर क़ब्ज़ा कर लिया.
लेकिन ख़ुद ग़द्दाफ़ी का कुछ पता न चल सका था. उन्होंने कई ऑडियो संदेश में लीबिया की जनता से विद्रोहियों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने की अपील की.
विद्रोहियों की ओर से ग़द्दाफ़ी के बारे में जानकारी देने के लिए 1.17 मिलियन डॉलर की इनामी रक़म की घोषणा भी कई गई.
ऐसे में सिएर्त नाम के तटीय शहर की घेराबंदी हुई और कुछ सूत्रों के अनुसार कर्नल ग़द्दाफ़ी ने अपने कुछ समर्थकों के साथ इस घेराबंदी को तोड़कर निकलने की कोशिश की.
गाड़ियों में सवार कर्नल ग़द्दाफ़ी और उनके साथी लड़ते हुए विरोधी लड़ाकों के बीच से निकलने की कोशिश कर रहे थे.
गाड़ियों के इस क़ाफ़िले में कर्नल ग़द्दाफ़ी की सेना के प्रमुख अबू बकर यूनुस और ग़द्दाफ़ी के बेटे मोतसिम भी शामिल थे. उसी समय नेटो में फ़ाइटर जेट ने इस काफ़िले पर हमला बोल दिया.
नेटो के इस हमले में हथियारों से लैस पंद्रह गाड़ियां तबाह हो गईं. लेकिन कर्नल ग़द्दाफ़ी और उनके कुछ साथी इस हमले में बच गए.
ग़द्दाफ़ी पानी की निकासी के दो बड़े पाइपों में छिप गए. कुछ ही देर बाद ग़द्दाफ़ी के विरोधी लड़ाके भी वहां पहुंच गए.
सालिम बकेर नाम के एक लड़ाके ने बाद में रॉयटर्स को बताया, “पहले हमने एंटी एयरक्राफ़्ट गनों से कर्नल ग़द्दाफ़ी और उनके साथियों की तरफ़ फ़ायरिंग की लेकिन इसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ.”
“फिर हम पैदल उनकी तरफ़ गए. जब हम उस जगह के पास पहुंचे जहां कर्नल ग़द्दाफ़ी और उनके साथी छिपे हुए थे तो अचानक ही ग़द्दाफ़ी का एक लड़ाका अपनी बंदूक़ हवा में लहराते हुए बाहर निकल आया और जैसे ही उसने मुझे देखा तो उसने मुझ पर फ़ायरिंग शुरू कर दी.”
सालिम बकेर ने कहा, “उस लड़ाके ने चिल्ला कर कहा कि मेरे मालिक यहां हैं, मेरे मालिक यहां हैं और वह ज़ख़्मी हैं.”
सालिम बकेर का कहना था, “हमने कर्नल ग़द्दाफ़ी को बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया. उस वक़्त उन्होंने कहा कि यह क्या हो रहा है.”
एक अन्य चश्मदीद ने बताया कि ग़द्दाफ़ी को देखते ही उन्हें 9 एमएम गन से गोली मार दी गई. इसके बाद कर्नल ग़द्दाफ़ी को गंभीर रूप से घायल स्थिति में गिरफ़्तार किया गया.
अल-जज़ीरा टीवी चैनल पर जो फ़ुटेज दिखाया गया उसमें ग़द्दाफ़ी गंभीर रूप से घायल स्थिति में थे और उनके विरोधी लड़ाके उसी हालत में उनके साथ मारपीट कर रहे थे.
इसके बाद की घटनाओं का जो सिलसिला हुआ वह साफ़ नहीं है.
लेकिन लीबिया की अस्थायी राष्ट्रीय परिषद के प्रधानमंत्री महमूद जिब्रिल ने बाद में पत्रकारों को बताया कि कर्नल ग़द्दाफ़ी की पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उनकी मौत गोलियां लगने से हुई.
महमूद जिब्रिल ने बताया था, “कर्नल ग़द्दाफ़ी को ज़िंदा पकड़ा गया था और उन्होंने कोई प्रतिरोध नहीं किया. जब उन्हें गाड़ी में डालकर वहां से ले जाया जा रहा था तो वह गाड़ी दोनों ओर से हो रही लड़ाकों की फ़ायरिंग के बीच में आ गई और एक गोली कर्नल ग़द्दाफ़ी के सर में लगी जिससे वह मारे गए.”
‘ख़िलाफ़त का ख़्वाब’
कर्नल ग़द्दाफ़ी एक तानाशाह शासक थे जिन्होंने चार दशकों तक लीबिया पर शासन किया. उनका परिवार तेल और दूसरे कई व्यवसायों की वजह से अमीर हुआ. कहा जाता है कि कर्नल ग़द्दाफ़ी की नीति वफ़ादारी ख़रीदने की थी जिसके तहत उन्होंने दौलत बांटी.
दूसरी तरफ़ ग़द्दाफ़ी ने बहुत से प्रोजेक्ट शुरू करवाए जिनमें एक के तहत देश के उत्तर में पानी की व्यवस्था कराई गई.
वह अपने लिबास के साथ-साथ अपने बयानों की वजह से भी मशहूर थे. एक ऐसे ही बयान में उन्होंने कहा था कि फ़लस्तीनियों और इसराइलियों को एक ही राज्य में इकट्ठा होना चाहिए क्योंकि ज़मीन इतनी ज़्यादा नहीं कि दो अलग-अलग राज्य बन सकें.
अरब लीग की बैठकों में सिगार का धुआं छोड़ते और ख़ुद को अफ़्रीका के ‘बादशाहों का बादशाह’ बताते थे.
समय के साथ ग़द्दाफ़ी की विचारधारा भी बदलती रही. शुरू में उन्होंने अरब राष्ट्र को एक करने का नारा दिया और ख़ुद को जमाल अब्दुल नासिर जैसे अरब राष्ट्रवादी नेता के तौर पर पेश किया था.
लेकिन जब उनको अंदाज़ा हुआ कि यह ख़्वाब पूरा होना मुश्किल है तो उन्होंने अफ़्रीका की ओर देखना शुरू किया और ख़ुद को अफ़्रीका के नेता के तौर पर पेश करना शुरू कर दिया.
फिर एक ऐसा वक़्त आया जब उन्होंने इस्लामी दुनिया पर ध्यान देना शुरू किया और यह भी कहा कि उत्तरी अफ़्रीका में सुन्नी और शिया के मतभेदों को ख़त्म करने के लिए दूसरी फ़ातमी ख़िलाफ़त स्थापित की जाए.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
SOURCE : BBC NEWS