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नई दिल्ली: फेसबुक और इंस्टाग्राम की स्वामित्व वाली कंपनी मेटा और इसके सीईओ मार्क जुकरबर्ग एक बार फिर विवादों के केंद्र में हैं। भारत की संसद की आईटी मामलों की स्थायी समिति ने मेटा को तलब करने का फैसला किया है। यह विवाद जुकरबर्ग की हालिया टिप्पणी से शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि कोविड महामारी के बाद अधिकांश सरकारें सत्ता से बाहर हो गईं, और इस संदर्भ में भारत का नाम भी लिया।  

मार्क जुकरबर्ग ने 10 जनवरी, 2025 को जो रोगन के पॉडकास्ट में भारत सहित कई देशों का जिक्र करते हुए कहा कि कोविड के बाद कई मौजूदा सरकारें सत्ता में नहीं रहीं। उनके इस बयान ने भारत में तीखी प्रतिक्रियाएं पैदा कीं। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इसे तथ्यात्मक रूप से गलत बताते हुए कहा कि 2024 के चुनावों में 64 करोड़ से अधिक मतदाताओं ने हिस्सा लिया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए को एक बार फिर स्पष्ट बहुमत दिया।  

मंत्री ने जुकरबर्ग के बयान को निराशाजनक करार देते हुए कहा, “दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में, जनता ने अपना भरोसा व्यक्त किया है। मेटा के सीईओ द्वारा गलत जानकारी फैलाना न केवल निराशाजनक है, बल्कि भारत की छवि को भी धूमिल करता है।” इस मुद्दे को गंभीर मानते हुए संसद की आईटी मामलों की स्थायी समिति के प्रमुख निशिकांत दुबे ने मेटा को तलब करने का ऐलान किया। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पहले ट्विटर) पर लिखा, “मेरी समिति गलत जानकारी के लिए मेटा को बुलाएगी। किसी भी लोकतांत्रिक देश की छवि को नुकसान पहुँचाने वाली जानकारी के लिए माफी मांगनी चाहिए।”  

उन्होंने यह भी कहा कि मेटा को भारतीय संसद और जनता से माफी मांगनी होगी। यह कदम इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जुकरबर्ग की टिप्पणी के बाद मेटा ने अब तक कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है। जुकरबर्ग के बयान के बाद न तो मेटा ने कोई सफाई दी और न ही सीईओ ने अपनी टिप्पणी पर खेद जताया। यह चुप्पी सवाल खड़े करती है कि क्या मेटा और इसके प्रमुख भारत जैसे लोकतांत्रिक देश की गंभीरता को समझते हैं? जुकरबर्ग का बयान न केवल तथ्यात्मक रूप से गलत है, बल्कि यह भारत जैसे बड़े लोकतंत्र की स्थिरता और विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करता है।  

अब जब संसदीय समिति ने मेटा को तलब किया है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि कंपनी और इसके सीईओ इस मामले में क्या रुख अपनाते हैं। क्या मेटा इस विवाद को शांत करने के लिए माफी मांगेगा, या यह मामला और लंबा खिंचेगा?  भारत जैसे देश, जहां लोकतंत्र और संवैधानिक प्रक्रियाओं का सम्मान सर्वोपरि है, में इस तरह के बयान स्वीकार्य नहीं हो सकते। यह घटना केवल मेटा के सीईओ की जिम्मेदारी पर सवाल नहीं उठाती, बल्कि यह भी दिखाती है कि तकनीकी कंपनियों को उनके नेताओं की टिप्पणियों के लिए जिम्मेदार ठहराना कितना जरूरी है।  

सवाल यह है कि क्या मेटा और जुकरबर्ग भारत की जनता और संसद से माफी मांगकर अपनी गलती को सुधारेंगे? या यह चुप्पी उन्हें और अधिक आलोचनाओं का सामना करने पर मजबूर करेगी?  

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