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सदके की रकम को बताया गया ‘नापाक’
इसके पीछे की वजह जब सामने आई तो हर कोई हैरान था और मोहम्मद रफी पूरी तरह शॉक्ड थे। यास्मीन ने 2012 की किताब में लिखा, “मस्जिद समिति ने फैसला किया था कि रफी साहब की कमाई का इस्तेमाल मस्जिद के लिए नहीं किया जा सकता। उनकी कमाई ‘पाक’ नहीं है, क्योंकि इस्लाम में ‘गाने’ को जायज पेशा नहीं माना जाता और इसलिए कई धार्मिक हस्तियां ऐसे जरियों से कमाए गए पैसे को अस्वीकार कर देती थीं।” रफी को एक शांत और शालीन शख्स के तौर पर जाना जाता था जो रुक-रुक कर बोलते थे, लेकिन उस दिन उन्होंने “आपा खो दिया और एक ही सांस में सब कुछ बोल गए।”
रफी ने मस्जिद को दिया था करारा जवाब
उस वक्त रफी ने जो कहा था, उसका जिक्र करते हुए यास्मीन ने उनके हवाले से किताब में लिखा, “अल्लाह ने मुझे बचपन से ही यही हुनर दिया है, जिसका मैं पूरी मेहनत और ईमानदारी से रियाज करता हूं और यह दुनिया के सामने भी है। फिर भी मेरी कमाई ‘नापाक’ है? इस विषय पर दो राय हो सकती है, लेकिन अगर इस मामले में इस्लाम का मूल संदेश यही है, तो सिर्फ अल्लाह ही जानता है कि किसकी कमाई ‘जायज’ है और किसकी ‘नाजायज’।” किसी भी धार्मिक काम में मदद करने या जरूरतमंदों को दान देने की रफी की आदत लाहौर में उनके बचपन के दिनों से थी, जब नन्हे रफी एक फकीर की ओर आकर्षित हुए थे।
हर सिग्नल पर सिक्के बांटते जाते थे रफी
कई कहानियां यह भी बताती हैं कि फकीर के प्रभाव के कारण ही रफी ने मन ही मन संगीत को अपना जीवन बनाने का इरादा पक्का कर लिया। यह फकीर सूफी कवियों के गीत गाते थे। यास्मीन की किताब के अनुसार, ‘अब्बा’ हमेशा अपने साथ कार में नोट और सिक्कों से भरा एक बक्सा रखते थे। यास्मीन लिखती हैं, “जब गाड़ी ट्रैफिक सिग्नल पर रुकती थी, तो भिखारी उन्हें ‘हाजी साहब’, ‘रफी भाई’ या ‘रफी साहब’ कहकर पुकारते थे और हाथ आगे बढ़ा देते थे। अब्बा पूरे सफर में पैसे बांटते रहते थे। उन्होंने कभी किसी हाथ को खाली नहीं छोड़ा।”
गुल्लक तोड़कर फकीर को दिए सारे पैसे
रफी इसके पीछे की वजह बताते थे। वह कहा करते, “बचपन से ही मेरी यही आदत रही है। एक बार जिस फकीर के पीछे-पीछे मैं गली में जाता था, उसने मुझसे कहा कि उसे पैसों की जरूरत है। मैंने इस पर सोचने में एक पल नहीं गंवाया, क्योंकि मैं मदद करने के लिए उत्सुक था।” महज 10 साल के रफी ने मिट्टी की गुल्लक से सारे पैसे निकाल कर उस फकीर को दे दिए, जिसमें उनके माता-पिता अपने खुले पैसे और कुछ बचत जमा किया करते थे। बाद में काफी साल बाद रफी ने इसका जिक्र कर कहा, “मुझे याद है कि मेरी इस हरकत के लिए मुझे डांटा गया और मेरी पिटाई भी हुई।”
जब रफी ने भिखारी को दिया 100 का नोट
रफी के बेटे शाहिद रफी ने लेखिका सुजाता देव द्वारा लिखित रफी की जीवनी “मोहम्मद रफी: गोल्डन वॉयस ऑफ द सिल्वर स्क्रीन” में एक अन्य घटना का जिक्र कर बताया कि गायक भावनाओं में इतना बह गए थे कि उन्होंने एक भिखारी को 100 रुपये दे दिए थे। उस वक्त शहर में मानसून का मौसम था और रफी साहब ने स्टूडियो जाते समय अपने बेटे को स्कूल छोड़ने का फैसला किया। एक भिखारी मंद गति से चल रही कार के पास भीख मांगने आया, लेकिन रफी के पास सिक्के कम पड़ गए और उन्होंने कहा, ‘इंशाअल्लाह, अगली बार ले लेना’। भिखारी ने खिड़की से अंदर झांककर गाना शुरू किया, ‘पहले पैसा फिर भगवान, बाबू देते जाना दान, देते जाना’। यह रफी का गाना था, जो उन्होंने ‘मिस मेरी’ (1957) में गाया था। रफी के दिल को यह घटना छू गई और उन्होंने भिखारी को 100 रुपये का नोट दे दिया।
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