Source :- BBC INDIA

इमेज स्रोत, Ziya Paval/Zahad
भारत के पहले ट्रांसजेंडर दंपती को केरल हाई कोर्ट के एक फ़ैसले से बड़ी राहत मिली है.
हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद अब ये दंपती अपनी बेटी के जन्म प्रमाण पत्र में ‘पिता’ और ‘माता’ की जगह ख़ुद को ‘अभिभावक’ के रूप में दर्ज करा सकेंगे.
जस्टिस ज़ियाद रहमान की अध्यक्षता में हाई कोर्ट की बेंच ने याचिकाकर्ता ज़िया और ज़हद के पक्ष में फ़ैसला सुनाया.
कोझिकोड़ नगर पालिका ने उनके इस आवेदन को ख़ारिज कर दिया था कि उन्हें माता और पिता की जगह अभिभावक माना जाए.
फ़ैसला क्यों है ऐतिहासिक

इमेज स्रोत, hckrecruitment.nic.in
दो बुनियादी कारणों से कोर्ट के इस फ़ैसले को ऐतिहासिक माना जा रहा है. पहला यह कि इसने ट्रांसजेंडर दंपती को एक परिवार के रूप में मान्यता दी है.
दूसरा, इसने ट्रांसजेंडर समुदाय की इस मांग को और मज़बूत किया है कि उन्हें बच्चों को गोद लेने में सक्षम माना जाए. हालांकि बेंगलुरु के एक मामले में फ़ैमिली कोर्ट का फ़ैसला पहले से मौजूद है.
इस तरह के कई मामलों में पैरवी करने वाले कर्नाटक के एक पूर्व सरकारी वकील बीटी वेंकटेश बीबीसी हिंदी से कहते हैं, “हालिया फ़ैसला नालसा मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2014 के फ़ैसले का विस्तार माना जा रहा है. नालसा मामले में ट्रांसजेंडरों के अधिकारों को पुरुष या महिलाओं के अधिकारों के समान ही माना गया था. केरल का फ़ैसला नालसा के फ़ैसले को एक नया आयाम देता है.”
केरल की पहली ट्रांसजेंडर वकील पद्मा लक्ष्मी बीबीसी हिंदी से कहती हैं, “इससे बाक़ी जोड़ों को गर्व के साथ और बिना किसी पूर्वाग्रह के जीने में मदद मिलेगी. इससे और अधिक लोगों को खुलकर सामने आने में मदद मिलेगी और यह अन्य जोड़ों के लिए एक संकेत है कि वो अपना परिवार बनाने के लिए बच्चों को गोद ले सकते हैं.”
बेंच ने निगम को आदेश दिया है कि वो फ़ैसले के दो महीनों के अंदर ‘माता’ और ‘पिता’ की जगह ‘परिजन’ लिखा संशोधित जन्म प्रमाण पत्र जारी करे.
ज़िया और ज़हद की कहानी

इमेज स्रोत, Ziya Paval/Zahad
हाई कोर्ट का आदेश अभी जारी होना है लेकिन याचिकाकर्ताओं की वकील पद्मा लक्ष्मी कहती हैं कि जस्टिस रहमान ने अपने आदेश के आख़िरी पैरा को कोर्ट में पढ़ा था.
लक्ष्मी ने आदेश का हवाला देते हुए कहा, “प्रतिवादी को पिता और माता के बारे में बताने वाले कॉलम को हटाकर, याचिकाकर्ताओं का बिना उनका लिंग बताए अभिभावकों के तौर पर दर्ज हुआ जन्म प्रमाण पत्र जारी करना होगा. इस आदेश के प्राप्त होने के दो महीने के अंदर इसे जारी करना होगा.”
25 वर्षीय ज़िया और 24 वर्षीय ज़हद दो साल पहले सोशल मीडिया पर तब चर्चा में आए थे जब उन्होंने अपनी उन तस्वीरों को जारी किया जिसमें ज़हद प्रेग्नेंट नज़र आ रहे हैं. इसके बाद ज़हद ने कोझिकोड के सरकारी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में एक लड़की को जन्म दिया.
जन्म के समय महिला पहचान के साथ पैदा हुए ज़हद लिंग परिवर्तन प्रक्रिया के बाद एक ट्रांस मेन बन गए थे. वहीं ज़िया जिनकी जन्म के समय पुरुष पहचान मानी गई थी उन्होंने भी लिंग परिवर्तन प्रक्रिया को चुना और दोनों ने बच्चा पैदा करने का फ़ैसला किया.
इस दंपति के घर 8 फ़रवरी 2023 को एक बच्ची का जन्म हुआ. इसके बाद परिजनों ने जन्म प्रमाण पत्र के लिए कोझिकोड नगर पालिका का रुख़ किया जिसने प्रमाण पत्र पर माता के तौर पर ज़हद (ट्रांसजेंडर) और पिता के तौर पर ज़िया (ट्रांसजेंडर) का नाम दर्ज किया.
पुरुष और महिला की तरह ट्रांसजेंडरों के भी अधिकार

इमेज स्रोत, Ziya Paval/Zahad
याचिका में कहा गया था कि नगर निगम से निवेदन किया गया था कि वो माता और पिता के नाम को नज़रअंदाज़ करें क्योंकि बच्चे की जैविक मां ख़ुद की पहचान एक साल से पुरुष के तौर पर मानती है और समाज में एक पुरुष समुदाय के रूप में रहती है.
याचिका में कहा गया, “चूंकि वैज्ञानिक रूप से इस तथ्य में विरोधाभास है कि पुरुष ने बच्चे को जन्म दिया, इसलिए याचिकाकर्ताओं ने प्रशासन से निवेदन किया कि पिता और माता का ज़िक्र किए बिना सिर्फ़ अभिभावक लिखें, ताकि तीसरे याचिकाकर्ता (बच्ची) को स्कूल में दाख़िला, आधार कार्ड, पैन कार्ड, पासपोर्ट, नौकरी और दूसरे संबंधित दस्तावेज़ों में उलझन का सामना न करना पड़े.”
याचिका में ये भी बताया गया था कि अभिभावकों के निवेदन को ख़ारिज करके नगर निगम नैशनल लीगल सर्विज अथॉरिटी (नालसा) बनाम भारत संघ, 2014 मामले में सुप्रीम कोर्ट के हुक्मनामे के ख़िलाफ़ गया है.
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस केएस पणिक्कर राधाकृष्णन और जस्टिस अर्जन कुमार सीकरी की बेंच ने माना था कि एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति जो न तो पुरुष है और न ही महिला वो एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति के अंतर्गत आता है. जिस वजह से उन्हें रोज़गार, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा आदि सहित समान अधिकार (अनुच्छेद 14) प्राप्त हैं.
याचिका में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हवाला देते हुए कहा गया था कि अनुच्छेद 15 और 16 सभी प्रकार के लैंगिक पूर्वाग्रह और लिंग आधारित भेदभाव पर रोक लगाते हैं. अनुच्छेद 19 (1) (ए) ट्रांसजेंडर्स को अपनी पसंद की लिंग पहचान चुनने की स्वतंत्रता का अधिकार देता है. अनुच्छेद 21 में यह माना गया कि लैंगिक पहचान, सम्मान के मौलिक अधिकार के केन्द्र में है.
याचिका में कोर्ट से जन्म और मृत्यु के पंजीकरण के कई नियमों को लेकर निर्देश जारी करने का भी निवेदन किया गया था. इसमें किसी के जन्म प्रमाण पत्र में नाम और लैंगिक पहचान में कभी भी बदलाव करने का निवेदन भी शामिल था.
ख़ुश हैं अभिभावक और ट्रांसजेंडर समुदाय

इमेज स्रोत, Ziya Paval/Zahad
ज़िया ने बीबीसी हिंदी से कहा, “हमने जो उम्मीद की थी वो हमें मिला और हम ख़ुश हैं.”
ज़हद एक मॉल में अकाउंटेंट के तौर पर काम करते हैं.
ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट शीतल श्याम का बीबीसी हिंदी से कहना है, “यह एक शानदार फ़ैसला था क्योंकि ट्रांसजेंडर्स को समाज एक समुदाय के रूप में देखता है न कि एक जोड़े के रूप में. इस अदालती फ़ैसले से उन ट्रांसजेंडर्स को बढ़ावा मिलेगा जो बच्चे गोद लेना चाहते हैं.”
वहीं केरल हाई कोर्ट का फ़ैसला सबसे ज़्यादा उत्साह भरने वाला उनके लिए है जिन्होंने ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट के तौर पर काम किया है. उनका काम इतना बड़ा है कि उन्हें कर्नाटक के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार राज्योत्सव अवॉर्ड से नवाज़ा गया है.
अक्काई पद्माशाली का बीबीसी हिंदी से कहना है, “ये एक बड़ा क़दम है. इसका मतलब है कि ट्रांसजेंडर जोड़े को एक परिवार के तौर पर पहचान मिल गई है.”
अक्काई अपनी ज़िंदगी की कहानी को रोचक तरीक़े से बताने के लिए जानी जाती हैं. वो ख़ुद को ट्रांस वुमेन की जगह सिर्फ़ महिला कहलाना पसंद करती हैं. वो ऐसी पहली शख़्स हैं जिन्होंने पुरुष के साथ अपने विवाह को रजिस्टर्ड कराया.
बीते सालों में, तलाक़ लेने से पहले उन्होंने और उनके पति ने एक लड़के को गोद लिया था.
उन्होंने कहा, “बेंगलुरु की पारिवारिक अदालत ने बच्चे की कस्टडी का अधिकार मां यानी मुझे दे दिया था. जुलाई में अदालत का यह फ़ैसला आया था.”
उनका मानना है कि केरल हाई कोर्ट का आदेश नालसा मामले के फ़ैसले और 2024 के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए बेहद सकारात्मक है. सुप्रीम कोर्ट के 2024 के फ़ैसले ने ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों को बरक़रार रखा था.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
SOURCE : BBC NEWS