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तेज़ी से फैल रही हैं ये बीमारियां, रहना होगा सावधान- दुनिया जहान

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Source :- BBC INDIA

बढ़ते तापमान ने दुनिया में फंगल बीमारियों के ख़तरे बढ़ा दिए हैं

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एक घंटा पहले

जब हम जलवायु परिवर्तन की बात करते हैं तो अक़्सर जंगलों की आग, बढ़ती गर्मी और फसलों को होने वाले नुक़सान जैसे विषयों पर बात होती है.

लेकिन जलवायु परिवर्तन पर बहुत कम चर्चा होती है. क्लाइमेट चेंज की वजह से दुनिया के कई हिस्सों में तापमान बढ़ रहा है और उससे कई फ़ंगल बीमारियां या फ़ंगस के कारण फैलने वालीं बीमारियां भी बढ़ रही हैं.

ख़ास तौर पर दुनिया के उन ठंडे इलाकों में जहां पहले सर्दी के कारण फ़ंगस जीवित नहीं रह पाते थे. लेकिन अब वहां तापमान में वृद्धि से स्थिति बदल रही है.

मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी के एक शोध के अनुसार, एक जानलेवा फ़ंगस जो आम तौर पर गर्म देशों में पाया जाता था और जिससे लाखों लोग संक्रमित होते हैं, वो जल्द ही यूरोप में फैल सकता है.

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एस्परगिलोसिस फेफड़े की एक घातक बीमारी है जिससे हर साल दुनिया भर में लगभग 18 लाख लोगों की मौत हो जाती है. अनुमान है कि यह बीमारी अफ़्रीका और दक्षिण अमेरिका से उत्तर की ओर बढ़ सकती है.

लोकप्रिय टीवी ड्रामा ‘लास्ट ऑफ़ अस” में इसका ज़िक्र है और दिखाया गया है कि कैसे एक फ़ंगल बीमारी बड़ी आबादी के लोगों के दिमाग़ को नुक़सान पहुंचा कर लोगों को बेसुध बना देती है.

हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि यह अतिशयोक्ति है. लेकिन फ़ंगल बीमारियों के फैलने की चिंताएं ज़रूर बढ़ रही हैं तो दुनिया जहान में हम यही जानने की कोशिश करेंगे कि क्या जानलेवा फ़ंगस को फैलने से रोका जा सकता है?

हमारे आस-पास हर जगह होते हैं फ़ंगस

प्लेबैक आपके उपकरण पर नहीं हो पा रहा

यूके की एक्सेटर यूनिवर्सिटी में बच्चों की संक्रामक बीमारियों की प्रोफ़ेसर अडीलिया वारिस का कहना है कि फ़ंगल पैथोजन (जीवाणु, वायरस, फंगी या परजीवी) हमारे इर्द-गिर्द हर जगह होते हैं. वो मिट्टी में पाये जाते हैं और हवा में मीलों दूर तक फैलते हैं.

हमने उनसे पूछा कि वो फ़ंगल बीमारी को कैसे परिभाषित करती हैं?

इस पर अडीलिया वारिस ने कहा, “फ़ंगल बीमारियां वो होती हैं जो फ़ंगल पैथोजन की वजह से पनपती हैं. यह बीमारियां बैक्टीरिया या वायरस के कारण पनपने वाली बीमारियों की तरह ही होती हैं. एथलीट फ़ुट जैसी कुछ फ़ंगल बीमारियां मामूली तकलीफ़ देती हैं लेकिन कुछ फ़ंगल बीमारियां मस्तिष्क को संक्रमित करती हैं और जानलेवा साबित हो सकती हैं.”

प्रोफ़ेसर वारिस ने बताया, “फ़ंगस हमारी त्वचा को भी संक्रमित कर सकता है. हमारे आस पास के वातावरण से फ़ंगस हमारे नाख़ूनों या पैर के अंगूठे के नाख़ून के भीतर फैल जाता है.”

“हमारे तलवे अगर फटे हुए हों तो फ़ंगस वहां आसानी से घर जमा लेता है. लेकिन इससे हमारे स्वास्थ्य को गंभीर नुक़सान नहीं होता. मगर जो फ़ंगल पैथोजन हमारे फेफड़े तक पहुंच जाते हैं वो घातक साबित हो सकते हैं. ख़ास तौर पर तब जब हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता पहले से कमज़ोर हो.”

अडीलिया वारिस बताती हैं कि हवा में फैले यह पैथोजन सांस के साथ हमारे फेफड़ों में घुस जाते हैं और वहां पनपने लगते हैं. अगर किसी व्यक्ति को पहले से फेफड़े की कोई बीमारी हो तो यह फ़ंगस काफ़ी नुक़सान कर सकता है.

अडीलिया वारिस के अनुसार, “आम तौर पर स्वस्थ लोगों में गंभीर फ़ंगल बीमारियां कम फैलती हैं. फ़ंगस मरीज़ के शरीर की कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता का फ़ायदा उठाता है.”

फ़ंगस का एक ऐसा गुट भी है जो हमारी त्वचा पर नहीं चढ़ता या हवा के ज़रिए फेफड़ों में नहीं घुसता बल्कि वो पहले से हमारे शरीर के भीतर होता है. यह फ़ंगस एक तरह का यीस्ट होता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण कैंडीडा एल्बीकान्स है.

अडीलिया वारिस ने बताया कि ‘बहुत से स्वस्थ लोगों के पेट में यह यीस्ट होता है जिससे पाचन में मदद मिलती है. लेकिन कई बार यह यीस्ट पेट से निकल कर ख़ून में घुलने लगता है और ख़ून में संक्रमण फैलाता है. ऐसा आम तौर पर तब होता है जब शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर हो.’

अगर कैंडीडा ख़ून को संक्रमित कर दे तो बैक्टीरियल बीमारी जैसी स्थिति पैदा हो जाती है. मरीज़ को सेप्टीसीमिया हो जाता है और उसे आईसीयू में रख कर इलाज करना पड़ता है.

फ़ंगस से होने वाली मुश्किलें क्यों बढ़ रही हैं?

फंगल बीमारियां

कई प्रकार के फ़ंगस हमेशा हमारे आसपास पहले से ही रहे हैं तो सवाल उठता है कि अब उनसे मुश्किलें क्यों खड़ी हो रही हैं?

नाइजीरिया की लागोस यूनिवर्सिटी में क्लीनिकल बायोलॉजी की प्रोफ़ेसर रीटा ओलोडेली कहती हैं कि फ़ंगल बीमारियों का बढ़ता संक्रमण सभी के लिए अत्यंत चिंताजनक मुद्दा है.

वो कहती हैं, “सभी को इसकी गंभीरता समझनी चाहिए. हमें कोविड महामारी के अपने अनुभवों को याद रखना चाहिए. फ़ंगल बीमारियों का संक्रमण पहले के मुकाबले बहुत बढ़ गया है. पृथ्वी का बढ़ता तापमान भी इसका एक कारण है. फ़ंगल पैथोजन गर्मी में आसानी से पनपते हैं. इनका प्रकोप बढ़ गया है.”

जलवायु परिवर्तन की इसमें क्या भूमिका है, इसकी चर्चा से पहले बात करते हैं एक और कारण की. चिकित्सा विज्ञान और टेक्नोलॉजी में हुए विकास के साथ ही हमारी अपेक्षित आयु बढ़ी है. लेकिन क्या इसी वजह से हम इन बीमारियों का शिकार भी आसानी से हो सकते हैं?

रीटा ओलोडेली कहती हैं कि चिकित्सा टेक्नोलॉजी काफ़ी विकसित हो गयी है और कई प्रभावी दवाइयां उपलब्ध हो गयी हैं, जिसके चलते अब गंभीर रूप से बीमार मरीज़ या ऐसे लोग जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर हो गयी है, वो भी लंबे समय तक जी सकते हैं. फंगल बीमारियां ऐसे लोगों को आसानी से निशाना बना सकती हैं.

प्रोफ़ेसर ओलोडेली बताती हैं, “मरीज़ों में अब अंगों के ट्रांसप्लांट किए जा सकते हैं मगर सर्जरी के बाद उन मरीज़ों की रोग प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है. कैंसर के मरीजों में कीमोथेरेपी के बाद प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर हो जाती है. ऐसे मरीज़ आसानी से फ़ंगल बीमारियों का शिकार हो सकते हैं.”

लेकिन क्या ग्लोबल साउथ यानी एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देशों और पश्चिमी देशों की चिकित्सा व्यवस्था में इन फ़ंगल बीमारियों का पता लगाने और इलाज करने की सुविधाओं में बहुत अंतर है?

रीटा ओलोडेली इस पर कहती हैं,, “बहुत ज़्यादा फ़र्क है. ग्लोबल साउथ में फ़ंगल बीमारियों का पता लगाने और उनके इलाज के लिए एंटी फ़ंगल दवा की उपलब्धता बहुत कम है. वहीं, सब सहारन अफ़्रीका में एचआईवी के मरीज़ बड़ी संख्या में हैं. इसके चलते ग्लोबल साउथ में फ़ंगल बीमारियों का संक्रमण भी बढ़ रहा है. इससे यहां के लोग ऐसे देशों में जाने की कोशिश करेंगे जहां उन्हें इलाज की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हो सकें.”

फ़ंगल संक्रमण उन गर्म देशों में अधिक है, जहां एचआईवी एड्स के मरीजों की संख्या अधिक है क्योंकि एचआईवी एड्स से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर हो जाती है, जिसके चलते फ़ंगल संक्रमण आसानी से फैलता है. लेकिन पृथ्वी के बढ़ते तापमान के चलते उत्तरी देशों में गर्मी बढने लगी है और उसी के साथ वहां फंगल संक्रमण का ख़तरा भी बढ़ने लगा है.

बढ़ते तापमान के साथ नई चुनौतियां

कई जानकारों का मानना है कि जैसे-जैसे धरती पर तापमान बढ़ेगा वैसे फ़ंगल बीमारियों के संक्रमण का ख़तरा भी बढ़ता चला जाएगा

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आर्टूरो कासाडेवाल अमेरिका के जॉन हॉपकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ में मॉलिक्यूलर बायोलॉजी और इम्यूनोलॉजी के प्रोफ़ेसर हैं.

वो कहते हैं कि जैसे-जैसे धरती पर तापमान बढ़ेगा वैसे-वैसे फ़ंगल बीमारियों का संक्रमण उन जगहों पर फैलेगा जहां अब तक नहीं था.

प्रोफ़ेसर आर्टूरो कासाडेवाल के मुताबिक़, “हम जानते हैं कि हर जीव अपने आपको वातावरण के अनुसार ढाल कर जीना सीख लेता है. जैसे-जैसे पृथ्वी पर तापमान बढ़ रहा है उससे कई बीमारियां पनप सकती हैं. कई ऐसे जीव हैं जो सामान्य तापमान में पौधों और मिट्टी में पल सकते हैं. इसलिए बढ़ते तापमान के साथ ऐसी फ़ंगल बीमारियां सामने आ सकती हैं जिनके बारे में मेडिकल साइंस को अभी पता नहीं है.”

जलवायु परिवर्तन एक बड़ा मसला है और हमें देखना होगा कि किस प्रकार का तापमान फंगस के पलने के लिए अधिक अनुकूल है. इसी के आधार पर ये पता लगाया जा सकेगा कि भविष्य में फंगस दुनिया के कौन से इलाकों में फैलेगा.

आर्टूरो कासाडेवाल ने बताया कि फ़ंगस के लिए नमी काफ़ी ज़रूरी होती है. जैसे- मशरूम जंगलों में बारिश के बाद पनपता है, उसी तरह फ़ंगस को भी काफ़ी मात्रा में पानी की ज़रूरत होती है. अत्यधिक नमी वाले इलाकों में वो आसानी से पनपता है.

पृथ्वी के बढ़ते तापमान की वजह से कहीं रेगिस्तान बनेंगे तो कहीं ज़्यादा बारिश होगी. दोनो से ही फ़ंगस को फलने-फूलने में मदद मिलती है. मिसाल के तौर पर अमेरिका के दक्षिण पश्चिमी रेगिस्तानी इलाके़ में कुकसिडियोडिस इमिटस नाम के एक फ़ंगस से होने वाली बीमारी दिखाई देने लगी है.

प्रोफ़ेसर आर्टूरो कासाडेवाल के अनुसार, “जैसे-जैसे रेगिस्तान फैलेगा इस जीव की उप-प्रजातियां भी पैदा होंगी. हम जानते हैं कि नमी तापमान और जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होती है.”

आर्टूरो कासाडेवाल और उनकी टीम ने शोध के ज़रिए एक मॉडल तैयार किया है जिससे पता चलता है कि गर्म इलाकों में पनपने वाले फ़ंगस अब ठंडे इलाकों के फ़ंगस के मुकाबले बढ़ते तापमान को आसानी से बर्दाश्त करना सीख गए हैं.

यानी फ़ंगस अपने आप को मौसम के हिसाब से ढालने लगे हैं और यह दुनियाभर में हो सकता है.

यह तो बात हुई बाहरी तापमान के बदलाव की मगर हमारे शरीर का तापमान पहले के मुकाबले अब ठंडा होने लगा है. पहले हमारा शरीर इतना गर्म होता था कि फ़ंगस के लिए शरीर में पनपना मुश्किल होता था. लेकिन पिछले कुछ दशकों में हमारे शरीर का तापमान घटा है.

आर्टूरो कासाडेवाल ने कहा कि हमारे शरीर का सामान्य तापमान 37 डिग्री सेल्सियस होता था जिसमें फ़ंगस का जीना मुश्किल होता था. इसी की वजह से जिन्हें फंगल बीमारियां होती थीं उनके नाख़ूनों के नीचे फ़ंगस पनपता था जहां तापमान अपेक्षाकृत कम होता है.

आर्टूरो कासाडेवाल का कहना है कि ‘लगभग सौ साल पहले हमारे शरीर का जो सामान्य तापमान होता था, अब वह एक डिग्री कम हो गया है. इसकी वजह से अब शरीर फ़ंगल बीमारियों का शिकार होने लगा है. पहले लोगों में टीबी और दूसरी संक्रामक बीमारियां होती थीं, जिससे शरीर में सूजन बढ़ती थी और शरीर का तापमान बढ़ जाता था.’

अब आधुनिक दवाइयों की मदद से ऐसी कई बीमरियों पर काबू पा लिया गया है, जिससे अब शरीर का तापमान भी कम हो गया है लेकिन फ़ंगल बीमारियों के लिए पनपना आसान हो गया है.

मगर पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है तो हम किस प्रकार अपनी सुरक्षा कर पाएंगे?

फ़ंगल बीमारियों से कैसे होगा मुकाबला?

कुछ फ़ंगल बीमारियां मामूली होती हैं लेकिन कुछ जानलेवा होती हैं. इनका पता लगाना इसलिए मुश्किल होता है क्योंकि इनके कई लक्षण दूसरी बीमारियों के लक्षण जैसे महसूस होते हैं (सांकेतिक तस्वीर)

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फ़ंगल बीमारियों के इलाज के लिए इस्तेमाल होने वाली दवा की किस्म को एज़िल्स कहते हैं जिसका इस्तेमाल आमतौर पर फसल को फ़ंगस से बचाने के लिए भी किया जाता है.

समस्या यह है कि इसका इस्तेमाल इतना बढ़ गया है कि फंगस अपने आपको इससे बचाने के लिए ढाल रहे हैं. यह कहना है माइकल ब्रॉमली का जो ब्रिटेन की मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी में फ़ंगल बीमारियों के प्रोफ़ेसर हैं.

प्रोफ़ेसर ब्रॉमली कहते हैं, “आमतौर पर अस्पताल में फ़ंगल बीमारियों के इलाज के लिए एज़िल क्लास की दवा का इस्तेमाल होता है. हम देख रहे हैं कि अब फ़ंगस पर इन दवाओं का पहले जैसा असर नहीं हो रहा. दवा से बचने की उनकी क्षमता तेज़ी से बढ़ रही है. इसकी वजह पर्यावरण में फ़ंगीसाइड या फ़ंगस निरोधक दवा की मौजूदगी है. फसलों को फ़ंगस के पैथोजन से बचाने के लिए इन दवाओं का छिड़काव होता है.”

खेती में बड़े पैमाने पर एज़िल्स दवा के इस्तेमाल से फ़ंगस में इन दवाओं से बचने की क्षमता आ रही है. एस्परगिलस फ़ंगस की वजह से खाद्य सामग्री ख़राब हो जाती है और सड़ने लगती है.

माइकल ब्रॉमली ने बताया कि यूरोप में हर साल खेतों में फसल पर लगभग दस हज़ार टन फ़ंगीसाइड का छिड़काव होता है. एस्परगिलस मिट्टी और खाद में रहता है.

बड़े मात्रा में फ़ंगीसाइड के छिड़काव से इस जीव ने फ़ंगीसाइड से लड़ने की क्षमता हासिल कर ली है. इन्हीं एज़िल्स का इस्तेमाल अस्पतालों में फ़ंगल बीमारियो के इलाज के लिए होता है इसलिए संक्रमण एस्परगिलोसिस पर उनका ख़ास असर नहीं होता.

डॉक्टर की तस्वीर

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समाधान क्या है?

माइकल ब्रॉमली कहते हैं कि कुछ लोग खेतों में फ़ंगीसाइड के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं लेकिन ऐसा हुआ तो फसल ख़राब होने लगेगी और खाद्य सामग्री का उत्पादन घट जाएगा. लेकिन माइकल ब्रॉमली इन दवाइयों का विकल्प खोजने में लगे हैं.

वो कहते हैं कि उन्होंने ऐसे रासायनिक द्रव्य बनाए हैं जो फ़ंगस के डीएनए को बाधित कर देते हैं जिसके चलते फ़ंगस की कोशिकाएं जी नहीं पाती. इस समस्या से निपटने का एक तरीक़ा और है जिसे फ़ोस्मानोगेपिक्स कहा जाता है. यह एक क्रांतिकारी पदार्थ है जो फ़ंगस को रोक सकता है. यह अन्य एंटीफ़ंगल दवाओं से कुछ अलग है.

प्रोफ़ेसर ब्रॉमली का कहना है कि यह दवा आने वाले कुछ सालों में उपलब्ध हो जाएगी. यह आशा की एक और किरण है.

एस्परगिलोसिस एक ऐसी ख़तरनाक बीमारी है जिससे हर साल दुनिया भर मे हज़ारों लोग मारे जाते हैं.

माइकल ब्रॉमली कहते हैं कि एस्परगिलस मिट्टी और हवा में मौजूद है और लोगों के फेफड़ों तक पहुंच जाता है. लेकिन अगर हम इन नयी दवाओं की मदद से एस्परगिलस को वातावरण में फैलने से रोक पाए तो भविष्य में इससे बहुत मदद मिलेगी.

आशा की इस किरण के साथ ही हम लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर- क्या हम जानलेवा फंगस को फैलने से रोक सकते हैं?

कुछ फ़ंगल बीमारियां मामूली होती हैं लेकिन कुछ जानलेवा होती हैं. इनका पता लगाना इसलिए मुश्किल होता है क्योंकि इनके कई लक्षण दूसरी बीमारियों के लक्षण जैसे महसूस होते हैं. सही उपकरणों के बिना इनका पता लगाना मुश्किल होता है.

फ़ंगस हमारे शरीर के भीतर ही नहीं बाहरी वातावरण में भी मौजूद है. बढ़ती आबादी के साथ खाद्य सामग्री की मांग भी बढ़ी है. इसे पूरा करने के लिए फसलों को बचाना ज़रूरी है जिसके लिए फ़ंगीसाइड का इस्तेमाल आवश्यक है. लेकिन फ़ंगल बीमारियों के प्रभावी इलाज के लिए नई दवाइयां विकसित की जा रही हैं यानी हम निश्चित ही फ़ंगल बीमारियों पर काबू पा सकते हैं.

सवाल यह है कि क्या हम यह लक्ष्य जल्द हासिल कर सकते हैं?

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

SOURCE : BBC NEWS