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सर्दियों के मौसम में ध्रुवों पर चौबीसों घंटे का अंधेरा, इंसान की नींद में खलल डाल सकता है. वहां रहने वाले इस चुनौती से अपने अलग तरीक़ों से निपटते हैं.

कल्पना कीजिए कि आपको कई हफ़्ते या फिर कई बार महीनों तक सूरज के दीदार नहीं हो रहे हों. चारों तरफ़ घुप्प अंधेरा फैला हो.

हड्डियों को आरी की तरह काटने वाली ठंडी हवाएं चल रही हों, और दूर-दूर तक जहां भी नज़र जाए, बर्फ़ ही बर्फ़ नज़र आती हो. लेकिन, ध्रुवों पर आधी रात को भी घुप्प अंधेरा नहीं होता.

कई बार सूरज की हल्की-हल्की किरणें, वायुमंडल की ऊपरी परतों से झांकती दिखाई देती हैं, जिनसे नीले, ग़ुलाबी और बैंगनी रंग की झलक आती रहती है.

फिर, चांद और सितारों की रोशनी भी धरती पर पड़ती रहती है. उत्तरी ध्रुव को जगमगाने वाली नॉर्दन लाइट्स भी अक्सर दिखाई दे जाती हैं.

लाल रेखा
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फिर जब ये बनावटी रोशनी की किरणें बर्फ़ की चादर पर पड़कर मुड़ती हैं, तो यूं लगता है कि बर्फ़ भी दमक रही है, जिससे हर चीज़ चमकीली दिखाई देने लगती है.

आर्कटिक में रहने वालों के लिए सर्दियों का मौसम बेहद दिलकश और ख़ूबसूरत होता है.

स्थानीय लोगों के लिए तो ध्रुवों की रातें यानी पोलर नाइट्स उनकी ज़िंदगी का हिस्सा हैं और बहुत से लोग तो इस मौसम को गले लगाकर इसका लुत्फ़ लेते हैं.

कुछ स्थानीय लोग तो ये भी कहते हैं कि वो साल के बाक़ी दिनों के मुक़ाबले सर्द मौसम वाले दिनों में ज़्यादा अच्छी नींद में सोते हैं.

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क्या कहती है रिसर्च

प्रोफेसर आर्ने लोडेन का बयान

फिनलैंड के इनारी में रहने वाली 42 बरस की एस्थर बेरेलोवित्स्च कहती हैं कि, ‘ध्रुवों की ये रातें बहुत छोटी होती हैं’.

इनारी में सर्दियों की ये रातें छह हफ़्ते का पड़ाव करती हैं.

एस्थर कहती हैं कि, ‘अगर ये रातें दो महीनें तक रहें, तो मुझे बहुत मज़ा आएगा. इस दौरान भले ही सूरज की रोशनी नहीं रहती.’

‘पर क़ुदरत के तमाम रंग नुमायां होते हैं…मैं रोज़ के मुक़ाबले ज़्यादा जल्दी बिस्तर पर जाती हूं और मुझे दूसरे दिनों की तुलना में ज़्यादा अच्छी नींद आती है. मैं नहीं चाहती कि बहार का मौसम आए.’

फिर भी रिसर्च ये बताते हैं कि ध्रुवों पर जब सर्दियां शुरू होती हैं, तो लोग लोग उदास और सुस्त हो जाते हैं.

सूरज की रोशनी से महरूम लोगों का मूड बिगड़ जाता है और कई बार वो डिप्रेशन के भी शिकार हो सकते हैं.

आर्कटिक क्षेत्र में नींद अपनी तरह की अनूठी चुनौती बन सकती है. गर्मियों के दिनों में आधी रात के वक़्त दमकता सूरज, लोगों के शरीर की घड़ी यानी बायोलॉजिकल क्लॉक की लय को बिगाड़ सकता है.

इस घड़ी से ही हमारे शरीर का बहुत सा निज़ाम चलता है. वहीं, ध्रुवों की लंबी-लंबी अंतहीन सी रातें, रोज़मर्रा के सोने जागने के चक्र को तहस-नहस कर सकती हैं.

ख़ास तौर से उन लोगों की ज़िंदगी में मुश्किलें बढ़ जाती हैं, जो अपना ज़्यादा वक़्त घरों के भीतर बिताते हैं. ध्रुवों के पास रहने वाले सर्दियों के दिनों में नींद न आने की बीमारी के शिकार हो सकते हैं.

लेकिन, जो लोग आर्कटिक में रहते और काम करते हैं, उन्होंने मौसम में आने वाले इन नाटकीय बदलावों से निपटना सीख लिया है. इसमें नींद भी शामिल है.

निश्चित रूप से इस बात के कई सबुतू मिलते हैं कि आर्कटिक के स्थानीय लोग, यहां बाहर से आने वाले लोगों की तुलना में सर्दियों की रातों में पैदा होने वाली नींद संबंधी समस्याओं से बेहतर ढंग से निपट पाते हैं.

तो बाक़ी हम लोग, आर्कटिक के बाशिंदों से अपनी ख़ुद की नींद के बारे में क्या सीख सकते हैं.

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सकारात्मक सोच रखिए

नॉर्वे, फिनलैंड, स्वीडन, ग्रीनलैंड, रूस, कनाडा और अलास्का के सुदूर उत्तरी इलाक़ों में ठंड के ज़्यादातर दिनों में सूरज सीधे सिर के ऊपर आसमान तक नहीं जाता और क्षितिज के क़रीब रहता है.

ऐसा कितने दिनों तक रहेगा, ये बात किसी ख़ास जगह की भौगोलिक स्थिति पर निर्भर करती है.

जैसे आर्कटिक चक्र के ठीक बगल में स्थित फिनलैंड के लैपलैंड इलाक़े की राजधानी रोवानिएमी में सर्दियों के मौसम में ध्रुवीय रात का वक़्त केवल दो दिन रहता है.

आर्कटिक सर्किल से लगभग 350 किलोमीटर दूर स्थित उत्तरी नॉर्वे के सबसे बड़े शहर ट्रोम्सो में ये रातें नवंबर के आख़िरी दिनों से शुरू होकर जनवरी के मध्य यानी लगभग छह हफ़्तों तक रहती हैं.

वहीं, इसके ठीक दूसरे छोर पर नुनावुट में कनाडा के सैनिक अड्डे एलर्ट में लगभग चार महीने तक अंधेरा रहता है. एलर्ट धरती का वो सबसे उत्तरी इलाक़ा है, जहां स्थायी इंसानी बस्ती है.

ये आर्कटिक सर्किल से 1776 किलोमीटर और उत्तरी ध्रुव से महज़ 817 किलोमीटर दूर आबाद है.

भयंकर ठंड और दिन में बहुत कम रोशनी वाले सर्दियों के लंबे महीने, लोगों के मूड पर गहरा असर डाल सकते हैं. सर्द अंधेरे महीनों का सबसे जाना-माना दुष्प्रभाव शायद सीज़नल अफेक्टिव डिसऑर्डर (सैड) है.

सर्दियों के छोटे दिनों में मिज़ाज पर पड़ने वाले इस बुरे असर को सूरज की रोशनी न मिलने का नतीजा माना जाता है.

इसके लक्षणों में शरीर में ऊर्जा की कमी, ज़्यादा खाना खाना और कुछ ज़्यादा ही सोना शामिल है.

ये लक्षण गर्मियां या बसंत ऋतु आते ही ख़ुद ब ख़ुद ग़ायब भी हो जाते हैं. नींद में ख़लल भी इस बीमारी का एक लक्षण होता है.

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यूरोप में सीज़नल अफेक्टिव डिसऑर्डर आबादी के दो से आठ प्रतिशत यानी अस्सी लाख से एक करोड़ चालीस लाख लोगों पर असर डालता है. हालांकि, देश के हिसाब से इसकी दर अलग-अलग होती है.

ये भी माना जाता है कि अमेरिका में भी लाखों लोग इस समस्या के शिकार होते हैं.

अमेरिका के दक्षिणी इलाक़े में ये आबादी के एक प्रतिशत लोगों को तो उत्तरी हिस्सों में रहने वालों में दस फ़ीसदी को अपनी चपेट में ले लेती है.

भौगोलिक स्थिति का ये असर उन देशों में भी देखा जा सकता है, जो आर्कटिक क्षेत्र के दायरे में आते हैं.

मिसाल के तौर पर ग्रीनलैंड के दक्षिण में रहने वालों की तुलना में उत्तर में रहने वालों के बीच इस डिसऑर्डर की समस्या, कहीं ज़्यादा होती है.

कनाडा के आर्टकिट इलाक़े में रहने वाले इनुइट समुदायों के बीच भी दक्षिण के मुक़ाबले ये बीमारी कहीं अधिक होती है.

मसलन, ओंटैरियो की तुलना में इनुइट समुदायों में ये समस्या दोगुनी तो अमेरिका के दक्षिणी राज्यों की तुलना में चार गुना तक अधिक हो सकती है.

हालांकि, इससे जुड़े रिसर्च हमें कोई ठोस निष्कर्ष नहीं देते.

कुछ और अध्ययनों में इन दावों पर सवाल भी उठाए गए हैं कि डिप्रेशन का ताल्लुक़ दिन की रोशनी में आने वाली कमी या फिर ध्रुवीय इलाक़े से नज़दीकी से है.

ट्रोम्सो के लगभग नौ हज़ार लोगों पर की गई स्टडी में शामिल लोगों ने सीज़न के मुताबिक़ मानसिक तनाव में उछाल या कमी आने की शिकायत नहीं बताई.

हालांकि, कुछ और अध्ययनों में डिप्रेशन की समस्या में बढ़ोत्तरी का संबंध, मौसम के साथ-साथ इस बात से भी पाया गया कि लोग कब सोने के लिए बिस्तर पर जाते हैं और सुबह कब उठते हैं.

बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप सर्दियों के महीनों के बारे में क्या सोचते हैं.

नॉर्वे में 238 लोगों पर की गई एक स्टडी में पाया गया कि अगर सर्दियों के मौसम को लेकर सकारात्मक सोच रखी जाए, तो पोलर नाइट्स के दौरान उनके तजुर्बों में तब्दीली आ सकती है.

ये स्टडी करने वालों में से एक मनोवैज्ञानिक कारी लीबोवित्ज़ ने कहा कि, ‘ठंड और अंधेरा हम सब पर असर डालते हैं. फ़र्क़ इस बात से पड़ता है कि हम इनसे जज़्बाती तौर पर कैसे निपटते हैं और हमारा बर्ताव कैसा होता है.’

इस अध्ययन में पाया गया था कि जो लोग सर्दियों का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं और इस दौरान मिलने वाले मौक़ों का ख़ूब लुत्फ़ उठाते हैं.

जैसे कि स्कीइंग करने और अपने दिल के क़रीब लोगों के साथ आग के पास बैठकर वक़्त बिताने को पसंद करते हैं. उनका मिज़ाज सर्दियों में कहीं बेहतर होता है.

उत्तरी नॉर्वे के लोगों पर की गई एक और स्टडी में पाया गया कि इलाक़े में रहने वाले बाक़ी लोगों की तुलना में वहां के आदिवासी सामी समुदाय के लोग नींद न आने की परेशानी के शिकार कम होते हैं.

उनको नींद के लिए दवाएं भी बहुत कम ही लेनी पड़ती हैं. इस रिसर्च में देखा गया कि सामी समुदाय के लोग, नींद को लेकर बहुत ज़्यादा तनाव नहीं लेते.

समुदाय के बच्चों को भी अपनी सहूलियत के हिसाब से सोने की आज़ादी होती है और वो सोने-जागने के नियमित समय की पाबंदी से स्वतंत्र होते हैं.

ये बात तो आम है कि अवसाद, तनाव, चिंता और घुटन जैसी समस्याएं नींद न आने की परेशानी को बढ़ा देती हैं.

लेकिन, आप अपनी नींद को लेकर क्या सोच रखते हैं, ये बात भी आपके इस एहसास पर गहरा असर डालती है कि आप बिस्तर पर रात गुज़ारने के बाद कैसा महसूस करते हैं.

दूसरे शब्दों में कहें, तो सोकर उठने के बाद जैसा आपका मूड होता है, उससे ही आपका ये एहसास भी जुड़ा होता है कि रात भर सोने के बाद आप कैसा महसूस कर रहे हैं और दिन के बाक़ी हिस्से में आपको कितनी थकान महसूस होती है.

कलाकार मिशेल नोआश को ध्रुवों की सर्द रातों की याद आते ही गर्म आगोश का ख़्याल आता है, जिसमें छुपकर वो झपकी लेना चाहती हैं.

मिशेल का वक़्त ब्रिटेन, और उत्तरी पूर्वी नॉर्वे के क़स्बे वाड्सो के बीच गुज़रता है, जो रूस की सीमा के बेहद क़रीब स्थित है. हालांकि, कारी लीबोवित्ज़ को लगता है कि इसके पीछे कोई और राज़ भी है.

वो कहती हैं कि, ‘नकारात्मक सोच रखने वाले सर्दियों से एक जंग में लड़ रहे होते हैं. मिसाल के तौर पर वो अंधेरे को दूर भगाने के लिए ख़ूब रोशनी का इंतज़ाम करते हैं. बड़ी-बड़ी लाइट लगाते हैं.’

‘हालांकि, इससे हालात और बिगड़ जाते हैं. इससे बाहर की दुनिया और भी अंधेरी लगने लगती है. और फिर, ज़्यादा रोशनी होने से उनकी नींद में भी ख़लल पड़ सकता है.’

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बत्तियां कम कर दें

मनोवैज्ञानिक लीबोवित्ज़ का बयान

हमारे शरीर की घड़ी कैसे काम करेगी, इसमें इस बात की भी बड़ी भूमिका होती है कि दिन में रोशनी से हमारा कितना सामना होता है.

इससे शरीर की घड़ी को मेलाटोनिन के रिसाव को नियंत्रित करने में मदद मिलती है. मेलाटोनिन हार्मोन हमारे दिमाग़ में शाम के वक़्त से बनना शुरू होता है.

इससे हमारा शरीर नींद के आगोश में जाने के लिए तैयार होता है. इसलिए, मेलाटोनिन हमारे सोने-जागने के चक्र को नियमित बनाने में बहुत अहम भूमिका निभाता है.

आर्कटिक में अंतहीन सा लगने वाला सर्दियों का अंधेरा, मेलाटोनिन के उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है.

कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि जनवरी के मध्य में जब ये रातें अपने शिखर पर होती हैं, तब लोगों में कुछ ज़्यादा ही मेलाटोनिन हारमोन बनता है.

जब जनवरी के आख़िर में सूरज की रोशनी वापस आने लगती है तो मेलाटोनिन का स्तर घटने लगता है.

बाक़ी लोगों के लिए तो ये ठीक है. लेकिन, जो रोज़मर्रा के एक तय वक़्त के हिसाब से काम करते हैं.

उनके काम पर जाने या सुबह उठने का वक़्त नियत होता है, उनके लिए इससे समस्या हो सकती है.

ट्रोम्सो यूनिवर्सिटी की एक स्टडी में देखा गया है कि जब लोगों के शरीर में सबसे ज़्यादा मेलाटोनिन बन रहा होता है, तो गर्मियों के दिनों की तुलना में वो सर्दियों की सुबह, कहीं ज़्यादा थका हुआ महसूस करते हैं.

नींद का चक्र नियमित बनाए रखने के लिए जितनी क़ुदरती रोशनी की ज़रूरत होती है, वो बनावटी लाइट से पूरी नहीं हो सकती.

लेकिन, कनाडा के आर्कटिक क्षेत्र में तैनात सैनिकों पर किए गए एक रिसर्च में पाया गया कि किसी इंसान के शरीर में कितना मेलाटोनिन बनेगा, इसको उनके नींद के पैटर्न के ज़रिए नियंत्रित किया जा सकता है.

इसके लिए 505 नैनोमीटर वेवलेंथ वाली नीली हरी रोशनी फेंकने वाले एलईडी लाइट से लैस ख़ास वाइज़र के ज़रिए उनके सोने-जागने के समय को प्रभावित करना होगा.

जिन सैनिकों ने ये मशीन इस्तेमाल की, उन्होंने बताया कि 11 दिनों के दौरान उनकी नींद और मूड में काफ़ी बेहतरी आई थी.

अंटार्कटिका के अड्डों में रहने वालों के लिए नीली रोशनी वाले लैंप का इस्तेमाल भी काफ़ी उपयोगी पाया गया.

फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी में रहने वाले इंजीनियर हकन लैंगस्टेट, एसएएएस इंस्ट्रूमेंट्स कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. वो ध्रुवों पर सर्द रातों के दौरान हल्की रोशनी के इस्तेमाल की सलाह देते हैं.

हकन कहते हैं कि, ‘अगर आपके इर्द-गिर्द बहुत अंधेरा है, तो उससे निपटने के लिए बहुत ज़्यादा रोशनी की ज़रूरत नहीं होती. आपका काम सिर्फ़ हल्की-फुल्की रोशनी से भी चल जाता है.’

वो सबसे ज़रूरी सलाह ये देते हैं कि जैसे-जैसे सोने का समय क़रीब आता जाए, वैसे-वैसे आपको रोशनी धीमी करते जाना चाहिए.

हकन कहते हैं कि, ‘चाकू से एक झटके में काटने का नुस्खा नहीं चलेगा. धीरे-धीरे रोशनी को कम करते हुए अंधेरे की तरफ़ बढ़िए.’

निश्चित रूप से रिसर्च ने दिखाया है कि सोने के दो घंटे पहले से अपने आस-पास नीली रोशनी की मात्रा धीरे-धीरे कम करने से हमें ख़ुद को सोने के लिए तैयार करने में काफ़ी मदद मिलती है.

हम जब सोने जाना चाहते हैं, उससे पहले लाइट हल्की कर लेने से हमारे शरीर में मेलाटोनिन हारमोन के रिसाव के समय को भी नियंत्रित किया जा सकता है.

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कारी लीबोवित्ज़ ख़ुद भी नींद की समस्या की शिकार हैं.

कारी भी यही सलाह देती हैं कि अगर आपको अपनी नींद बेहतर बनानी है, तो फिर सोने से पहले लोगों को क़ुदरती रोशनी या फिर सॉफ्ट लाइट जैसे कि मोमबत्ती या फिर आग की रोशनी का इस्तेमाल करें.

वो कहती हैं कि, ‘हल्की रोशनी हमारे दिमाग़ को हमें नींद के आगोश में धकेलने वाले हारमोन मेलाटोनिन के उत्पादन के लिए प्रेरित करती है.’

कारी के मुताबिक़, ‘गर्म पानी से नहाने या फिर भाप स्नान का भी ऐसा ही असर होता है: जब आप बाहर आते हैं, तो शरीर का तापमान कम हो जाता है. इससे भी मेलाटोनिन का रिसाव बढ़ जाता है.’

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वर्जिश करने की आदत डालिए

शारीरिक व्यायाम का हमारे शरीर के चक्र पर बहुत अहम असर होता है. अगर हम सुबह वर्जिश करें, तब तो ये हमारी नींद के लिए बहुत अच्छा होता है.

मिसाल के तौर पर सुबह जागने के बाद वर्जिश करना और दोपहर बाद फिर से व्यायाम करना अपने आप में अच्छा है.

लेकिन, अगर हम इन दोनों को रोज़ से 20 मिनट पहले करना शुरू कर दें, तो इससे भी हमारे नींद आने के समय में तब्दीली आ जाएगी.

हमारे रात के सोने के समय के दौरान दो घंटे तक ख़ूब मेहनत से वर्जिश करने से भी हमारे सोने के चक्र में नाटकीय बदलाव आ सकता है.

हालांकि, हम आपको ऐसा करने की सलाह तभी देंगे, जब आप नाइट शिफ्ट करने की तैयारी कर रहे हों या फिर किसी नए टाइम ज़ोन में जाने वाले हों.

उत्तरी नॉर्वे की आल्टा यूनिवर्सिटी के छात्रों पर किए गए अध्ययन में इसके सुबूत भी मिले हैं.

ये छात्र नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम करते थे. जैसे कि किसी टीम वाले खेल के लिए अभ्यास करना या फिर ट्रेडमिल पर वर्जिश करना. इससे दोपहर बाद जो मेलाटोनिन बनता है, उसमें कमी आती है.

इसका असर ये होता है कि दिन के समय नींद के झोंके कम आते हैं.

एस्थर बेरेलोवित्स्च आठ साल पहले, सामी समुदायों की भाषा सीखने पेरिस से उत्तरी लैपलैंड के इनारी में रहने के लिए आई थीं.

पोलर नाइट्स के दौरान, वो दिन में दो घंटे घर से बाहर टहलने या फिर स्कीइंग करने में बिताती हैं.

वो कहती हैं कि, ‘जब भी रोशनी हो, तो हमारे लिए घर से बाहर निकलना काफ़ी अहम होता है. मैं तभी घर के भीतर रहती हूं जब पारा माइनस 40 डिग्री सेल्सियस होता है. वरना, मैं हमेशा टहलने या फिर स्कीइंग करने बाहर जाती हूं.’

भले ही ठंड में व्यायाम करने से ज़्यादा कैलोरी खपाने में मदद मिलती हो.

पर, खुली हवा और में शारीरिक व्यायाम और नींद के ताल्लुक़ से जुड़ी ज़्यादातर रिसर्च उन्हीं इलाक़ों में की गई है, जहां वर्जिश के वक़्त सूरज की रोशनी रहती है.

इससे ये पता लगाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है कि ध्रुवों के नज़दीकी इलाक़ों में खुले में कसरत करने से ज़्यादा फ़ायदा होता है या नहीं.

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अगर आपके काम के घंटे तय हैं, तो दिनचर्या नियमित रखिए

यूनिवर्सिटी ऑफ स्टॉकहोम में नींद और तनाव पर रिसर्च करने वाले एसोसिएट प्रोफ़ेसर आर्ने लोडेन कहते हैं कि ‘हम अक्सर देखते हैं कि ठंड के दिनों में हम देर से सोते हैं और देर से उठते भी हैं.’

‘ऐसे में अगर किसी को सुबह जल्दी उठकर काम पर जाना होता है, तो उसकी नींद का समय घट जाता है.’

लोडेन और उनके साथियों ने उत्तरी स्वीडन के किरुना इलाक़े में दफ़्तरों में काम करने वाले 1200 लोगों पर नींद से जुड़ा एक अध्ययन किया है. किरुना में पोलर नाइट्स 28 दिनों तक रहती हैं.

लोडेन ने पाया कि उनकी स्टडी में शामिल लोग गर्मियों की तुलना में सर्दियों में 39 मिनट देर से सोने जाते थे, और सर्दियों के दिनों में हर हफ़्ते उनके सोने का समय 12 मिनट कम होता था.

प्रोफ़ेसर आर्ने लोडेन कहते हैं कि, ‘ठंडा तापमान और दिन में कम रोशनी हमारी सिर्केडियन क्लॉक (शारीरिक घड़ी) का चक्र बिगाड़ देते हैं. हमारा शरीर दिन के 24 घंटों के हिसाब से चलता है.’

‘हमारे शरीर के लगभग सारे अंगों का काम चक्रों के हिसाब से तय होता है. मतलब, ये कि दिन के किसी ख़ास वक़्त वो काम करते हैं और एक तय समय पर वो आराम करके ताक़त बहाल कर रहे होते हैं.’

ये देखा गया है कि आर्कटिक क्षेत्र में जनवरी के स्याह महीने में शाम के बजाय सुबह के वक़्त कसरत करने से दिल की जैविक घड़ी पर अच्छा असर पड़ता है. इससे हमें नींद भी अच्छी आती है.

आर्ने लोडेन कहते हैं कि ‘अगर आपके शरीर की घड़ी का चक्र बिगड़ गया है, तो दिन के वक़्त आपको नींद के झोंके आएंगे.’

‘अगर आपकी दिनचर्या बुरी तरह बिगड़ गई है, तो आप बिल्कुल ग़लत वक्‍त पर जागेंगे और तब आपके लिए नौकरी कर पाना दुश्वार हो जाएगा.’

इस बात के भी सबूत पाए गए हैं कि गर्मियों की तुलना में इंसान को सर्दियों में नींद की शायद ज़्यादा ज़रूरत होती है.

जर्मनी में रिसर्चरों ने 188 ऐसे लोगों की नींद के पैटर्न का विश्लेषण किया, जिनको ठीक से नींद नहीं आती थी.

उन्होंने पाया कि रिसर्च में शामिल लोगों की रैपिड आई मूवमेंट (आरईएम) वाली नींद, मौसम के हिसाब से बदलती रहती है. रैपिड आई मूवमेंट, हमारी नींद का वो हिस्सा होता है, जब हम ख़्वाब देखते हैं.

रिसर्च में शामिल लोगों में पाया गया कि दिसंबर में उनकी नींद, जून महीने की तुलना में आधे घंटे ज़्यादा लंबी होती थी.

फिटनेस पर नज़र रखने वाले उपकरणों/मशीनों ने जो कुछ आंकड़े जुटाए हैं, उनसे इस बात पर मुहर लगती है.

सोने और दिन की गतिविधियों के डेटा जुटाने के लिए पहनी जाने वाली मशीन ओउरा रिंग के 45 हज़ार यूज़र्स के आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चला कि जाड़े के दिनों में लोगों की नींद का समय तीन प्रतिशत या लगभग दस मिनट तक बढ़ गया था.

फिनलैंड की तकनीकी कंपनी ओउरा हेल्थ में फ्यूचर फिज़ियोलॉजी विभाग के प्रमुख हेली कोसकिमकी कहते हैं कि, ‘हमने यूज़र्स के आराम के वक़्त की दिलों की धड़कन में भी तब्दीली आती देखी है: गर्मियों की तुलना में सर्दियों में इसमें तीन प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो जाती है.’

हालांकि, हेली ने ये भी बताया कि कि उनके ज़्यादातर यूज़र्स फिनलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क, कनाडा और अमेरिका के रहने वाले हैं.

लेकिन, वो ये नहीं बता सके कि इनमें से कितने ऐसे हैं, जो पोलर नाइट वाले इलाक़ों में रहते हैं.

हेली कोसकिमाकी का कहना है कि जो यूज़र्स अपनी सोने की क़ुदरती आदत के मुताबिक़ सोते जागते हैं, उनको ज़्यादा अच्छी नींद आती है.

सपाट लफ़्ज़ों में कहें तो इसका मतलब ये है कि अगर आप जल्दी सोकर उठते हैं, तो आपके लिए रात में जल्दी बिस्तर पर जाना और सुबह जल्दी उठना मुफ़ीद होगा.

वहीं, रतजगा पसंद करने वाले इसके उलट दिनचर्या अपना सकते हैं.

हेली कोसकिमाकी के मुताबिक़, आज के दौर में लोग सुबह जल्दी उठने को तरज़ीह देते हैं.

वो कहते हैं कि, ‘अगर आप देर रात तक जागना पसंद करते हैं, तो ख़तरा इस बात का है कि समाज के दबाव में आपको शायद अपनी नींद का कुछ हिस्सा क़ुर्बान करना पड़े.’

‘अगर आप सोने-जागने के अपने क़ुदरती मिज़ाज के मुताबिक़ नहीं चल पाते, तो कम से कम इतना ज़रूर करिए कि रात के सोने का वक़्त नियत रखिए.’

‘तब आप बेहतर नींद ले सकेंगे और उठने पर भी अच्छा महसूस करेंगे.’

कुल मिलाकर इन सभी बातों का मतलब यही है कि पूरे साल एक ही दिनचर्या का पालन करना शायद अच्छा ख़्याल नहीं होगा.

कारी लीबोवित्ज़ कहती हैं कि, ‘अगर आपकी नौकरी और निजी ज़िंदगी में लचीलापन है. तो फिर आपके लिए अपनी दिनचर्या को बदलते मौसम के मुताबिक़ ढाल पाना आसान होगा.’

‘आप गर्मियों के मुक़ाबले सर्दियों में ज़्यादा देर तक सो सकते हैं.’

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भाग-दौड़ छोड़िए और अपनों के साथ गुज़ारिए सुकून के वक़्त

पोलर नाइट्स को पसंद करने वाली एस्थर कहती हैं कि इससे उन्हें रोज़मर्रा की भाग-दौड़ से निजात मिलती है और वो सुकून के पलों में किए जाने वाले काम कर पाती हैं.

एस्थर बताती हैं कि, ‘मैंने देखा है कि जब मेरे पास ख़ाली वक़्त होता है, तो मैं हर काम आराम से करती हूं. धीरे धीरे चलती हूं. खाना भी आराम से खाती हूं और सोने जाने में भी हड़बड़ी नहीं करती.’

‘जब बाहर बहुत ठंडा मौसम होता है, तब मुझे अपने गिटार की, अपने हाथ की कढ़ाई वाले काम की याद आती है. लेकिन, सर्दियों की स्याह रातों में मुझे लोगों से मिलना-जुलना भी अच्छा लगता है.’

लोगों से संपर्क बनाए रखने और तमाम सार्वजनिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने से दिमाग़ी सेहत को फ़ायदा होता है.

इस बात के भी कुछ सुबूत हैं कि लोगों से मिलते-जुलते रहने से हमें अपने जज़्बात पर क़ाबू पान में भी मदद मिलती है. फिर इससे हमारी नींद भी बेहतर होती है.

ख़ास तौर से अगर हमारे इर्द-गिर्द मददगार किस्म के लोग हों.

आर्ने लोडेन भी इस बात से सहमत हैं. वो कहते हैं कि, ‘पोलर नाइट अपने परिवार और दोस्तों के साथ जमघट लगाने का वक़्त होता है.’

मिशेल नोआश कहती हैं कि इस दौरान कई बार ऐसा हुआ है, जब उन्होंने अलाव के पास अपने दोस्तों के साथ नौ-नौ घंटे बिताए हैं और वक़्त कैसे बीत गया, उन्हें पता ही नहीं चला.

ध्रुवों की ये स्याह और सर्द रातें, मिशेल को अपनी कला में डूबने का भी मौक़ा मुहैया कराती हैं.

वो कहती हैं कि, ‘दो महीनों तक सबकुछ अंधेरे में डूबा होता है. मैंने देखा है कि उस दौरान मेरे अंदर रचनात्मकता का, क्रिएटिविटी का उबाल आता है. तब मैं अपनी अंदरूनी क्षमता का उपयोग कर पाती हूं.’

मिशेल ये भी कहती हैं कि, ‘आर्कटिक इलाक़े में लोग कहते हैं कि पोलर नाइट के दौरान आपको अपने अंदर की बत्ती जलानी होती है. आपको अपने भीतर झांककर अंदरूनी ताक़त को इस्तेमाल करना होता है.’

‘हो सकता है कि कुछ लोगों के लिए ये मौसम मुश्किल और अवसाद भरा हो. लेकिन, आर्कटिक में रहने वाले ज़्यादातर लोगों के लिए ये मौसम मौज मस्ती का, ज़िंदगी को खुलकर जीने वाला होता है.’

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SOURCE : BBC NEWS