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पंकज कपूर: मुसद्दीलाल से मक़बूल एक्टर बनने तक-कहानी ज़िंदगी की

पंकज कपूर से मेरी पहली मुलाक़ात तब हुई थी जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा था.

कैंपस में एक टीवी सीरियल की शूटिंग चल रही थी.

‘बरगद’ नाम के इस टीवी सीरियल के निर्देशक थे प्रदीप कृष्ण. ये सीरियल कभी रिलीज़ नहीं हो सका.

इसमें काम कर रहे जिन कलाकरों को मैं पहचान सका उनमें सईद जाफ़री, रघुबीर यादव, हरीश पटेल, सुप्रिया पाठक, केके रैना और पंकज कपूर थे.

इलाहाबाद के सिविल लाइंस में यात्रिक होटल तब एक बड़ा होटल होता था.

ज़्यादातर कलाकार और यूनिट के लोग इसी होटल में ठहराए गए थे.

केके रैना और पंकज कपूर से मेरी मुलाक़ात इसी होटल में उनके कमरे में हुई थी जिसमें यह तभी पता चल गया था कि पंकज कपूर में रोल को लेकर एक विशिष्ट चयन दृष्टि है.

पंकज कपूर

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लुधियाना से नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा तक का सफ़र

बचपन से ही साहित्य, कला और रंगमंच की तरफ़ पंकज के रुझान की वजह उनके घर का माहौल ही था जहाँ उनके पिता अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर और नाटकों में दिलचस्पी रखने वाली गृहणी उनकी मां थीं.

पंजाब के लुधियाना में पैदा हुए पंकज कपूर ने अपने करियर में अभिनय, लेखन और निर्देशन के क्षेत्र में अनूठी छाप छोड़ी है.

उनकी गहन अभिनय शैली, किरदारों में गहराई लाने की क्षमता और कला के प्रति समर्पण ने उन्हें दर्शकों और आलोचकों का प्रिय बनाया है.

पंकज कपूर ने अपने करियर की शुरुआत रंगमंच से की थी.

उन्होंने दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से अभिनय के गुर सीखे. रंगकर्म में पड़ी यह नींव उनके सिनेमाई और टेलीविजन करियर में स्पष्ट दिखाई देती है.

‘अब्बाजी’ ने दिलाया पहला राष्ट्रीय पुरस्कार

फ़िल्म 'मक़बूल' में निभाए किरदार 'जहांगीर ख़ान उर्फ़ अब्बाजी' की झलक

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पंकज कपूर ऊपर से देखने में काफ़ी सॉफिस्टिकेटेड और कभी-कभी तो बड़े नखरीले जान पड़ते हैं लेकिन थोड़ी अंतरंगता और परिचय के बाद उनके भीतर का ज़मीनी इंसान दिल से साथ बाहर आता है.

पंकज कपूर ने 1982 में श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘आरोहण’ से अपने सिनेमाई सफ़र की शुरुआत की.

पंकज कपूर की कुछ सबसे बेहतरीन फ़िल्मों में ‘राख’ (1989) में इंस्पेक्टर पी.के., ‘एक डॉक्टर की मौत’ (1991) में डॉ. दीपांकर रॉय और ‘मकबूल’ (2003) में अब्बा जी की भूमिका शामिल है.

शेक्सपियर के ‘मैकबेथ’ के रूपांतरण ‘मकबूल’ में उनके शक्तिशाली अभिनय ने उन्हें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और फ़िल्म फेयर पुरस्कार दिलाया.

इसके अलावा, फ़िल्म ‘गांधी’ (1982) में प्यारेलाल की छोटी सी भूमिका की और गांधीजी की आवाज़ की हिंदी डबिंग भी की.

‘रोजा’ (1992), और हाल ही में ‘जर्सी’ (2022) में उनके अभिनय ने उनकी प्रतिभा की झलक दिखी.

उनके हाल के कामों में नेटफ्लिक्स सीरीज ‘आईसी 814: द कंधार हाईजैक’ (2024), में भी उनकी अभिनय क्षमता को सराहा गया.

टीवी और सिनेमा का सफ़र

साल 2011 में आई फ़िल्म 'मौसम' में पंकज कपूर ने अपने बेटे शाहिद को निर्देशित किया था

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टेलीविजन पर पंकज कपूर ने 1980 के दशक में जासूसी धारावाहिक ‘करमचंद’ में शीर्षक भूमिका निभाकर घर-घर में लोकप्रियता हासिल की.

इसके बाद, ‘ऑफ़िस-ऑफ़िस” (2000) में मुसद्दीलाल के रूप में उनके कॉमिकल और व्यंग्यात्मक कैरेक्टर ने भ्रष्टाचार जैसे गंभीर विषय को मनोरंजक अंदाज़ में पेश किया.

‘नीम का पेड़’ जैसे धारावाहिकों और टेलीफ़िल्म ‘रुई का बोझ’ में भी उनके अभिनय ने दर्शकों का दिल जीता.

लेखन और निर्देशन में भी पंकज कपूर ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है. उन्होंने फ़िल्म ‘मौसम’ (2011) का निर्देशन किया, जिसमें उनके बेटे शाहिद कपूर ने मुख्य भूमिका निभाई.

यह फ़िल्म उनकी कहानी कहने की क्षमता और सिनेमाई दृष्टिकोण को दर्शाती है.

‘बाउंड स्क्रिप्ट मांगने पर नाराज़ हुए लोग’

पंकज कपूर का कला के प्रति जुनून आज भी पहले जैसा ही है.

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अभिनेता के रूप में पंकज कपूर ने स्क्रिप्ट को बहुत तवज्जो दी है.

आधी अधूरी स्क्रिप्ट के बजाय उन्होंने हमेशा बाउंड स्क्रिप्ट की अपेक्षा की.

खुद उनके ही शब्दों में “मैंने कई फ़िल्में इसलिए छोड़ीं क्योंकि बाउंड स्क्रिप्ट नहीं थी. वजह यह थी कि अगर मुझे नहीं मालूम है कि बतौर किरदार मुझे क्या करना है, तो मैं करूँगा क्या? अंतिम समय पर कोई लाइन मिल गयी कि ऐसे कर दीजिये, तो ऐसे नहीं होता. बाउंड स्क्रिप्ट मांगने पर बहुत सा काम छूटा भी और कई लोग नाराज़ भी हुए.”

पंकज कपूर का कला के प्रति जुनून आज भी पहले जैसा ही है.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.

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