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नई दिल्ली: 1954 का कुंभ मेला स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक ऐसी घटना के रूप में दर्ज है, जिसे न केवल प्रशासनिक अव्यवस्था की मिसाल माना गया, बल्कि इसने हजारों निर्दोष तीर्थयात्रियों की जान ले ली। प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद) में आयोजित आज़ाद भारत के पहले कुंभ मेले के दौरान मौनी अमावस्या के शुभ दिन पर स्नान के लिए संगम पहुंचे लाखों लोगों की भीड़ ने प्रशासन की तैयारियों को ध्वस्त कर दिया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की उपस्थिति ने इस घटना को और जटिल बना दिया। 

3 फरवरी 1954 को मौनी अमावस्या के अवसर पर संगम पर स्नान करने के लिए अनुमानित 40 लाख लोग एकत्रित हुए थे। भारी बारिश के कारण इलाके में कीचड़ और फिसलन फैल गई थी, जिससे आवाजाही में पहले से ही कठिनाई हो रही थी। सुबह 8 से 9 बजे के बीच भीड़ को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए नियम टूट गए। दोनों दिशाओं से संगम आने-जाने वाले लोग एक ही सड़क पर आ गए, जिससे स्थिति और बिगड़ गई। 

इस बीच खबर फैली कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संगम क्षेत्र में पहुंच रहे हैं। नेहरू को देखने के लिए उमड़ी भीड़ ने व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। उनकी गाड़ियों के गुजरने के लिए बैरिकेड लगाए गए, जिससे स्नान के लिए उमड़ी भीड़ को रोका गया। जैसे ही नेहरू और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की गाड़ियां संगम की ओर बढ़ीं, बैरिकेड के पीछे रुके तीर्थयात्रियों ने उन्हें तोड़ दिया। इसी दौरान नागा साधुओं का जुलूस भी सड़क पर आ गया, जो भीड़ से बचने के लिए त्रिशूल और तलवारें लेकर लोगों को हटाने लगे। 

यह अव्यवस्था जल्द ही भयानक भगदड़ में बदल गई। भीड़ में जो लोग एक बार गिर गए, वे फिर खड़े नहीं हो सके। चारों ओर चीख-पुकार मच गई। लोग अपनी जान बचाने के लिए बिजली के खंभों पर चढ़ गए और तारों पर लटक गए। लेकिन इससे बचने की कोशिश में कई और लोग घायल हो गए। भगदड़ इतनी भयावह थी कि लगभग 1,000 लोग मारे गए। एनएन मुखर्जी नामक एक वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट इस घटना के चश्मदीद थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में बताया कि उन्होंने संगम चौकी के पास एक टावर से यह नजारा देखा। उनके अनुसार, नेहरू की कार जैसे ही त्रिवेणी घाट से गुजरी, भीड़ बेकाबू हो गई। क्योंकि, नेहरू के निकलने के लिए सभी लोगों को रोक दिया गया था और जब नेहरू निकल गए,. तो प्रशासन ने बिना किसी सावधानी के रास्ते खोल दिए, जिससे भगदड़ जैसी स्थिति पैदा हो गई। काफी देर से रुके लोग नेहरू के जाने के बाद आगे बढ़ने लगे, जिससे बैरिकेड्स टूट गए और लोग गिरते-पड़ते घाट की ओर दौड़ पड़े। साधुओं का जुलूस बिखर गया, और सड़क पर भगदड़ मच गई। 

गांधीवादी लेखक राजगोपाल पीवी ने अपनी किताब *‘मैं नेहरू का साया था’* में लिखा है कि लाल बहादुर शास्त्री ने नेहरू से कुंभ में स्नान करने का आग्रह किया था। शास्त्री ने कहा था, “इस प्रथा का पालन लाखों लोग करते आए हैं। आपको भी करना चाहिए।” लेकिन नेहरू ने स्नान करने से इनकार कर दिया। उनका कहना था, “मैंने जनेऊ पहनना छोड़ दिया है। मैं कुंभ के दौरान स्नान नहीं करूंगा।” 

राजगोपाल के अनुसार, नेहरू उस दिन नाव पर सवार होकर संगम पहुंचे थे। उनके (राजगोपाल के) परिवार के अन्य सदस्यों ने गंगा में डुबकी लगाई, लेकिन नेहरू ने स्नान तो दूर, अपने ऊपर गंगा जल की छींटें मारना भी उचित नहीं समझा। घटना के बाद सरकार ने दावा किया कि भगदड़ में बहुत कम लोग मारे गए और मारे गए अधिकांश लोग भिखारी थे। लेकिन एनएन मुखर्जी ने इस सरकारी दावे को झूठा साबित किया। उन्होंने छिपकर शवों की तस्वीरें खींचीं, जिनमें गहनों से सजी महिलाएं और अच्छे कपड़े पहने लोग भी शामिल थे। ये तस्वीरें अगले दिन अखबार में छपीं और एक बड़ा राजनीतिक हंगामा खड़ा हो गया। 

मुखर्जी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि प्रशासन शवों को जलाने के लिए ढेर बना रहा था। पत्रकारों और फोटोग्राफरों को घटनास्थल पर जाने की अनुमति नहीं दी गई थी। लेकिन मुखर्जी ने गांववाले का भेष धारण करके, झोले में कैमरा छिपाकर, शवों की तस्वीरें लेने में कामयाबी हासिल की। जब ये तस्वीरें प्रकाशित हुईं, तो उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने मुखर्जी को भद्दी गालियां दीं और उन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दिया। 

इस हादसे के बाद नेहरू को संसद में सफाई देनी पड़ी, क्योंकि घटना ही इतनी बड़ी बन चुकी थी, जो दबाए न दबी। नेहरू को जब स्नान नहीं करना था, तो वे आखिर किसलिए प्रयागराज गए थे? उनके आने की व्यवस्था तत्कालीन सरकार ने सही से क्यों नहीं की? ये सवाल सदन में उठ रहे थे, जिसके बाद 15 फरवरी 1954 को नेहरू को सदन में सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा, “मैं किले की बालकनी में खड़ा होकर कुंभ देख रहा था। यह बहुत दुख की बात है कि जिस समारोह में इतनी बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए, वहां ऐसी घटना हो गई और कई लोगों की जान चली गई।” 

हालांकि, कुछ रिपोर्टों में यह भी दावा किया गया कि नेहरू हादसे के दिन संगम क्षेत्र में मौजूद नहीं थे। ब्रिटिश मीडिया की एक रिपोर्ट में गवाह नरेश मिश्र ने बताया था कि नेहरू एक दिन पहले प्रयागराज आए थे और तैयारियों का जायजा लेकर दिल्ली लौट गए थे। हालाँकि, नेहरू खुद मान चुके थे कि हादसे के दिन वे प्रयागराज में ही थे और सबकुछ उनके सामने घटित हुआ। हादसे के बाद यूपी सरकार ने एक जांच कमेटी गठित की, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस कमलाकांत वर्मा, डॉ. पन्नालाल, और सिंचाई विभाग के चीफ इंजीनियर एसी मित्रा शामिल थे। कमेटी ने प्रशासन को हादसे का जिम्मेदार ठहराया, लेकिन मीडिया को भी दोषी ठहराया। 

कुछ स्वतंत्र संगठनों ने जांच कमेटी के निष्कर्षों पर सवाल उठाए। उन्होंने मांग की कि डॉ. अंबेडकर और एचएन कुंजरू जैसे लोगों को जांच में शामिल किया जाए, लेकिन नेहरू सरकार ने इसे ठुकरा दिया। इस त्रासदी को लेकर आज भी बहस होती है। 2019 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस घटना के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा, “पंडित नेहरू जब प्रधानमंत्री थे, तब कुंभ के मेले में भगदड़ मच गई और सैकड़ों लोग मारे गए। लेकिन सरकार ने अपनी इज्जत बचाने के लिए खबर दबा दी।” 

1954 का कुंभ न केवल प्रशासनिक चूक का प्रतीक है, बल्कि यह यह भी दिखाता है कि कैसे एक जननेता की उपस्थिति ने आम लोगों की सुरक्षा को खतरे में डाल दिया। यह घटना भारत के मेले-उत्सवों की परंपरा में हमेशा एक काले अध्याय के रूप में याद की जाएगी।

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