Source :- BBC INDIA

इमेज स्रोत, Getty Images
19 मिनट पहले
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने देश में होने वाले आयात पर 2 अप्रैल को टैरिफ़ लगाने की घोषणा की.
उनके इस फ़ैसले ने वैश्विक आर्थिक जगत में हलचल मचा दी और इसे व्यापारिक दुनिया में एक नए दौर की शुरुआत माना गया.
ट्रंप ने इस दिन को अमेरिका का ‘लिबरेशन डे’ यानी मुक्ति दिवस करार दिया. यह वही कदम था जिसका उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान वादा किया था और अब उसे पूरा किया.
राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि वो दुनियाभर की कंपनियों को यह साफ़ संदेश देना चाहते हैं कि अगर वे अमेरिका में उत्पादन नहीं करती हैं तो उन्हें वहां अपने उत्पाद बेचने पर भारी शुल्क देना होगा.
हालांकि किसी को भी इतने अधिक टैरिफ़ की उम्मीद नहीं थी. इस घोषणा के बाद निवेशकों में घबराहट फैल गई और दुनियाभर के शेयर बाज़ार गिरने लगे.
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी अधिकांश टैरिफ़ योजनाओं को स्थगित कर दिया.
फिलहाल अमेरिका को होने वाले अधिकांश आयात पर 10 प्रतिशत टैरिफ़ लागू है. लेकिन इस बीच वैश्विक अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच चुका था.
तो इस सप्ताह हम जानने की कोशिश करेंगे कि राष्ट्रपति ट्रंप की आर्थिक रणनीति असल में क्या है?
व्यापार का खेल

इमेज स्रोत, Getty Images
ट्रंप के इस कदम के बाद दुनियाभर में कूटनीतिक गतिविधियां तेज़ हो गईं.
ट्रंप ने इन टैरिफ़ पर 90 दिनों के लिए अस्थायी रोक लगा दी थी, इसलिए कई देश जुलाई में खत्म होने वाली इस समयसीमा से पहले अमेरिका के साथ व्यापार समझौता करने की कोशिश में जुट गए हैं. क्योंकि अगर समझौता नहीं हुआ, तो उन देशों से अमेरिका को भेजे जाने वाले सामान पर भारी शुल्क लग सकता है.
वॉशिंगटन डीसी स्थित सेंटर फ़ॉर न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी की वरिष्ठ शोधकर्ता एमिली क्लक्रीज़ ने इस फ़ैसले के प्रभावों का अध्ययन किया है.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, “इससे बड़ी अफ़रा-तफ़री फैलेगी जिससे अमेरिकी टीम को इससे निपटना पड़ेगा. विदेशी सरकारों को भी इससे निपटना पड़ेगा क्योंकि इससे अमेरिका के साथ उनके संबंध पेचीदा हो गए हैं. “
“ट्रंप की ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ नीति से केवल दुनिया में आर्थिक संबंध ही नहीं बल्कि सभी संबंध पेचीदा हो जाएंगे. अब विदेशी सरकारों को अमेरिका के सामने ऐसा प्रस्ताव रखना होगा जो इस टैरिफ़ से बेहतर साबित हो.”
फिलहाल सिर्फ़ विदेशी सरकारें ही नहीं, बल्कि ट्रंप प्रशासन भी जल्दबाज़ी में नज़र आ रहा है, क्योंकि अमेरिका की अदालतें राष्ट्रपति के फ़ैसले पर रोक लगा सकती हैं.
अमेरिकी संविधान के मुताबिक, देश की अंतरराष्ट्रीय व्यापार नीति तय करने का अधिकार संसद को है, न कि राष्ट्रपति को. लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप ने विदेशी व्यापार में असंतुलन का हवाला देकर इसे ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ घोषित किया और राष्ट्रपति आदेश के ज़रिए टैरिफ़ लागू कर दिए.

एमिली क्लक्रीज़ कहती हैं, “ट्रंप साफ़ तौर पर अपने अधिकार क्षेत्र की सीमाएं बढ़ा रहे हैं. इसलिए अब देखना है कि इस मामले को अदालत में चुनौती दी जाती है या नहीं. हो सकता है अदालत उनके टैरिफ़ को लागू करने के अधिकारों पर अंकुश लगा दे. लेकिन यह कानूनी मसला है, जिसका जवाब अगले साल तक मिल सकता है.”
राष्ट्रपति ट्रंप के फ़ैसले को संसद से भी चुनौती मिल सकती है, लेकिन उनके फ़ैसले के विरोध में संसद के दोनों सदनों में समर्थन ज़रूरी होगा.
एमिली क्लक्रीज़ का मानना है कि डेमोक्रेटिक सांसद इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ हैं, लेकिन रिपब्लिकन सांसद भी इससे पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं.
एक तो उन्हें लगता है कि इस फ़ैसले को लागू करने की प्रक्रिया सही नहीं है, और साथ ही इसके ख़िलाफ़ बाहरी दबाव भी आ सकता है.
एमिली क्लक्रीज़ बताती हैं कि सांसदों को उनके चुनाव क्षेत्र की जनता और कंपनियों से फ़ोन आ रहे हैं, क्योंकि इन फ़ैसलों का उन पर सीधा असर पड़ सकता है. वे राष्ट्रपति ट्रंप पर इन नीतियों पर दोबारा सोचने के लिए दबाव बना सकते हैं.
इससे अमेरिका में रोज़मर्रा की चीज़ें महंगी हो सकती हैं.
एमिली क्लक्रीज़ कहती हैं कि ट्रंप मानते हैं कि “इस फ़ैसले से शुरुआत में लोगों को कुछ परेशानियां होंगी लेकिन भविष्य में इससे फ़ायदा होगा.”
हालांकि जब ज़रूरी सामान महंगा हो जाएगा और मकान की ईएमआई बढ़ जाएंगी, तो आम लोगों के लिए इसे बर्दाश्त करना मुश्किल हो सकता है और राष्ट्रपति ट्रंप के लिए इस नीति को बनाए रखना एक चुनौती बन सकता है.
उनके इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अमेरिका के लगभग सभी राज्यों में बड़े विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं.
कौन हैं ट्रंप को सलाह देने वाले लोग

इमेज स्रोत, Getty Images
अमेरिका फ़र्स्ट पॉलिसी इंस्टीट्यूट की उपाध्यक्ष और राष्ट्रपति ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान डेनमार्क में अमेरिका की राजदूत रह चुकीं कार्ला सैंड्स का कहना है कि ट्रंप को राजनीति की गहरी समझ है और वो सिर्फ़ अमीरों की नहीं, बल्कि आम लोगों की भी चिंता करते हैं. उनके पास सक्षम और अनुभवी सलाहकार हैं.
कार्ला सैंड्स कहती हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप के आर्थिक सलाहकार केविन हैसेट और वित्त मंत्री स्कॉट बेसैंट ऐसे लोग हैं जो ट्रंप के सिद्धांतों को न सिर्फ़ समझते हैं बल्कि उन्हें अमल में भी लाते हैं.
उनके आसपास ऐसे लोग भी हैं जो चीन के ख़िलाफ़ कड़ा रुख अपनाने के पक्षधर हैं. हालांकि, विचारों की विविधता के कारण व्हाइट हाउस के भीतर कई दृष्टिकोण सामने आते हैं.
यह वो लोग हैं जो राष्ट्रपति ट्रंप को बता रहे हैं कि अमेरिका को व्यापार जगत में अपनी स्थिति को नये रूप में ढालना होगा.
कार्ला सैंड्स की राय है कि पिछले कुछ दशकों में उत्पादन क्षेत्र में अमेरिका पिछड़ता गया है जिससे उसकी स्थिति नाज़ुक हो गई है.
कार्ला सैंड्स ने कहा, “हम औद्योगिकीकरण से पीछे हटते गए हैं और उत्पादन का काम दूसरे देशों को सौंपते गए हैं. अपनी ऊर्जा नीतियों के चलते हम कंपनियों को विदेशों में कारखाने लगाने के लिए प्रोत्साहित करते रहे हैं.”
“हम पश्चिमी देश इस बात का दंभ भरते हैं कि हमारा कार्बन उत्सर्जन कम हो गया है. लेकिन हमारी कंपनियां दूसरे देशों में उत्पादन कर रही हैं. हमें अपने देश में सामान बनाना चाहिए. हम केवल पर्यटन स्थल या शिक्षा का केंद्र बन कर सुरक्षित नहीं रह सकते.”

टैरिफ़ से इस समस्या का समाधान कैसे होगा?
कार्ला सैंड्स की राय है कि अमेरिका को देश में ही सामान बनाना चाहिए. ख़ास तौर पर महत्वपूर्ण चीज़ें क्योंकि बड़ी शक्ति बनने के लिए यह ज़रूरी है.
साथ ही वह यह भी कहती हैं कि अमेरिका के व्यापार संतुलन में ज़्यादातर देशों का झुकाव अमेरिका के ख़िलाफ़ है. ऐसे में उन देशों से होने वाले आयात पर टैरिफ़ लगाने से अमेरिका में काम कर रही कंपनियों को बढ़त मिलेगी.
उनका कहना है कि चीन पश्चिम के लिए ख़तरा बनता जा रहा है और उससे निपटने के लिए अमेरिका को फिर औद्योगिकीकरण की दिशा में कदम बढ़ाना होगा.
ट्रंप ने चीन से आयात होने वाली वस्तुओं पर 100 प्रतिशत से भी अधिक टैरिफ़ लगा दिए हैं, और जवाब में चीन ने भी अमेरिका से आने वाली चीज़ों पर भारी शुल्क लगाया है. दोनों देशों के बीच इस व्यापारिक टकराव से उनके आपसी व्यापार के पूरी तरह रुकने का ख़तरा पैदा हो गया है.
वहीं दूसरे देश भी असमंजस में हैं कि उन्हें अमेरिका का साथ देना है या नहीं. अमेरिका ने अपने बाकी व्यापारिक साझेदारों को भी सख़्त संदेश दिया है.
कार्ला सैंड्स ने कहा, “सभी देश हमारा फ़ायदा उठा रहे हैं. लगभग सभी देश अमेरिका को निर्यात अधिक करते हैं और उससे आयात कम करते हैं. लगभग सभी देशों ने अमेरिकी सामान पर अधिक टैरिफ़ लगा रखा है. इसलिए ट्रंप कह रहे हैं कि अमेरिकी जनता को व्यापार में बराबर का हक़ मिलना चाहिए.”
अमेरिकी प्रशासन का उद्देश्य अमेरिका में उत्पादन बढ़ाना और देश में बेरोज़गारी की समस्या का हल निकालना भी है. लेकिन समस्या यह भी है कि कई अमेरिकी कंपनियों को देशों से कच्चा माल आयात करना पड़ता है. उन देशों से आयात पर टैरिफ़ बढ़ने से उनके लिए बाज़ार में सामान किफ़ायती दाम पर बेचना मुश्किल हो जाएगा. चीन के अलावा कई देश और कंपनियां अमेरिका के साथ व्यापार समझौते का प्रयास कर रहे हैं.
अमेरिका बनाम चीन

इमेज स्रोत, Getty Images
सूचाओ यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर और बीजिंग स्थित सेंटर फ़ॉर चाइना एंड ग्लोबलाइज़ेशन के उपाध्यक्ष विक्टर गाओ कहते हैं कि चीन और अमेरिका दुनिया की दो बड़ी आर्थिक शक्तियां हैं.
अगर इस समस्या का हल नहीं निकला तो इन दोनों देशों के बीच व्यापार ठप हो सकता है, जिससे दोनों की अर्थव्यवस्थाओं को भारी नुकसान होगा.
“चीन कभी भी अमेरिका या किसी अन्य देश को अपने ऊपर हावी होने नहीं देगा. न वो उनकी धमकी से डरेगा. चीन मानता है कि अगर ट्रंप को उसने एक इंच की जगह दे दी तो वह एक फ़ुट मांगने लगेंगे. अगर चीन उनकी धौंस में आ जाए तो उनकी मांग बढ़ती ही जाएगी. इसलिए मुझे लगता है चीन यह मानता है कि परिणाम चाहे जो हो, अमेरिका के दबाव या धमकी के सामने कभी झुकना नहीं चाहिए.”
इस व्यापारिक युद्ध या टैरिफ़ की जंग में अधिक नुकसान इनमें से किस देश को होगा, यह बहस का विषय है. विक्टर गाओ की राय है कि यह नफा-नुकसान से अधिक सिद्धांतों का मसला है.
वह कहते हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा चीन सहित दुनिया के अन्य देशों पर लगाए गए टैरिफ़ अनुचित हैं और ये विश्व व्यापार के नियमों के खिलाफ़ हैं.
इससे न तो अमेरिका में रोजगार बढ़ेगा, बल्कि आम अमेरिकी नागरिकों को नुक़सान होगा.

चीन इसलिए भी इस मुद्दे पर अमेरिका से समझौते के पक्ष में नहीं दिखता क्योंकि उसे लगता है कि अमेरिकी जनता इस मुद्दे पर खुद अपनी राय बनाएगी.
विक्टर गाओ कहते हैं, “अमेरिका को यह टैरिफ़ विदेशी कंपनियां नहीं चुकाएंगी, बल्कि अमेरिकी ग्राहकों को इसका भुगतान करना पड़ेगा.”
“जब अमेरिकी राष्ट्रपति कहते हैं कि उन्होंने कितना धन टैरिफ़ से हासिल कर लिया है तो मुझे लगता है, या तो वो ख़ुद को बहला रहे हैं या अमेरिकी जनता को गुमराह कर रहे हैं.”
“हां, सरकार ने टैरिफ़ वसूल किया है लेकिन यह एक तरह से अमेरिकी लोगों पर टैक्स लगाने के समान है जो अमेरिकी जनता चुका रही है.”
चीन हमेशा ही एक बड़ी आर्थिक शक्ति रहा है इसलिए वह इस समस्या से उबर आएगा.
एलन मस्क भी कह चुके हैं कि सदी के मध्य तक चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिकी अर्थव्यवस्था से दोगुनी बड़ी हो जाएगी.
क्या चीन बन रहा है एक विकल्प?

इमेज स्रोत, Getty Images
कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के किंग्स कॉलेज की प्रमुख और फाइनेंशियल टाइम्स की स्तंभकार जिलियन टेट कहती हैं कि अमेरिका के इस कदम के बाद उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए चीन एक विकल्प के रूप में उभर रहा है.
“हम यह भी देख रहे हैं कि लंबे समय से अमेरिका के सहयोगी रहे जापान और यूरोपीय संघ के देश भी ट्रंप के टैरिफ़ लगाने के फ़ैसले से सदमे में हैं. वे भी आत्मनिर्भर होने और दूसरे विकल्पों के बारे में सोचने लगे हैं.”
जिलियन टेट का कहना है कि राष्ट्रपति ट्रंप सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय व्यापार को नया रूप नहीं देना चाहते, बल्कि उनके कई अन्य उद्देश्य भी हैं जिनके लिए वे अलग-अलग हथकंडे अपना रहे हैं. टैरिफ़ इन्हीं में से एक है, जिसके ज़रिए वे दूसरे देशों को डराना चाहते हैं.
जिलियन टेट का कहना है कि अमेरिका धमकियां दे रहा है और अपनी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन कर रहा है. “वो टैरिफ़ को हथियार बनाकर विश्व व्यवस्था को बदलना चाहता है. टैरिफ़ के ज़रिए पैसे उगाह कर वो अपने कर्ज़ का भार कम करना चाहता है.”
अमेरिका का 36 खरब डॉलर का कर्ज़ इस पूरी कहानी का एक केंद्रीय मुद्दा है. यह कर्ज़ अब अमेरिका की पूरी अर्थव्यवस्था से भी बड़ा हो गया है. इस कर्ज़ का लगभग एक खरब डॉलर के बराबर हिस्सा चीन ने खरीद रखा है.
इसकी एक वजह यह है कि चीन अमेरिका को ज़्यादा निर्यात करता है और उससे आयात कम करता है. निर्यात का भुगतान डॉलर में होता है, जिसके चलते चीन के पास बड़ी मात्रा में डॉलर जमा हो गए हैं, जिसे वह विदेशी मुद्रा भंडार के रूप में रखे हुए है.
इस कारण डॉलर महंगा हो गया है और नतीजतन अमेरिकी सामान भी महंगा हो गया है, जिससे वह अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ रहा है. अमेरिका डॉलर को कुछ सस्ता बनाना चाहता है.

इसकी एक दूसरी वजह भी बताई जा रही है. ऐसी अटकलें हैं कि मारा-लागो संधि नाम का एक दस्तावेज़ तैयार किया गया है. अफ़वाह है कि यह राष्ट्रपति ट्रंप की आर्थिक योजना के केंद्र में है.
इसमें टैरिफ़ के ज़रिए उन देशों पर दबाव बनाने की योजना है, जिन्होंने अमेरिका में कर्ज़ के माध्यम से निवेश कर रखा है, ताकि वे अपने निवेश के बदले कम रकम लेने को तैयार हो जाएं.
इससे अमेरिका के कर्ज़ का बोझ कुछ हल्का हो सकता है. लेकिन दूसरे देश इससे चिंतित और सतर्क हो गए हैं.
जिलियन टेट के अनुसार, राष्ट्रपति ट्रंप के ‘मेक अमेरिका ग्रेट’ अभियान की विडंबना यह है कि इससे ‘मेक यूरोप ग्रेट’ अभियान को बल मिलेगा.
ट्रंप की आक्रामकता और भारी टैरिफ़ लगाने के फ़ैसले से यूरोपीय नेता अब एकजुट हो रहे हैं. वे अब आपस में सैनिक और व्यापारिक सहयोग बढ़ाने पर विचार करने लगे हैं.
दूसरी ओर, चीन भी उन देशों में अपना प्रभाव बढ़ाएगा जो अमेरिकी सहयोग का विकल्प खोज रहे हैं. जापान अब तक अमेरिका के क़रीब रहा है और वह एशिया में चीन का वर्चस्व बढ़ने नहीं देना चाहता, लेकिन अमेरिका के प्रति उसका भरोसा भी अब कम हो गया है.
ट्रंप की आर्थिक योजना क्या है?

इमेज स्रोत, Getty Images
तो अब लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर, राष्ट्रपति ट्रंप की आर्थिक योजना क्या है?
अमेरिका ने अपने प्रतिद्वंद्वियों ही नहीं बल्कि सहयोगी देशों से आयात पर भारी टैरिफ़ लगाने के फ़ैसले को फिलहाल टाल दिया है. लेकिन यह केवल शक्ति प्रदर्शन नहीं, बल्कि अमेरिका के दीर्घकालिक उद्देश्यों का हिस्सा है.
राष्ट्रपति ट्रंप अमेरिका का कर्ज़ घटाना चाहते हैं. साथ ही वे यह भी चाहते हैं कि अमेरिकी कंपनियां विदेशों में कारखाने लगाना बंद करें और देश के भीतर उत्पादन बढ़े. अमेरिका को होने वाला आयात घटाया जाए.
हालांकि उनका मुख्य निशाना चीन है, लेकिन इस नीति से अमेरिका के अन्य व्यापारिक साझेदार भी प्रभावित हो रहे हैं.
ट्रंप की योजना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमेरिका की भूमिका को पूरी तरह से बदला जाए. अब देखना यह होगा कि क्या अमेरिकी जनता, संसद, अदालत और बाकी देश उन्हें ऐसा करने देंगे?
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
SOURCE : BBC NEWS