Source :- BBC INDIA
1970 के दशक के पूर्वार्ध में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र जीवन के दौरान, मैं अपनी, और अपने कुछ मित्रों की नज़र में, हिंदी सिनेमा का विशेषज्ञ था.
देव साहब की ज्वेल थीफ़ (1965), राजेश खन्ना की आराधना (1968), और राजकुमार की वक़्त (1965) सरीखी बॉक्स ऑफ़िस पर हिट फ़िल्मों की पटकथाओं को मैं अपनी प्रवाहपूर्ण अदायगी के साथ जीवंत कर सकता था.
पर मेरी यह ख़ुशफ़हमी उस समय ध्वस्त हो गयी जब मैंने इलाहाबाद के पैलेस थिएटर में श्याम बेनेगल की पहली कथा फ़िल्म अंकुर (1973) देखी.
ऐसा लगा कपोल कल्पना की दुनिया से उठाकर किसी ने मुझे ज़मीन पर पटक दिया हो.
फ़िल्म के चरमोत्कर्ष में हृदयभेदी रुदन और आक्रोश के साथ अभिव्यक्त शबाना आज़मी का वह संवाद “इसको मारा तूने हराम के जने. क्यों मारा माटी मिले..’ मुझे कई दिनों तक सालता रहा. भीतर एक अंतर्द्वंद्व उभरा कि मैंने अब तक जो देखा क्या वह सिनेमा था, या जो अब देखा वह सिनेमा है? श्याम बेनेगल से मिलने का एक जुनून सा उभरा.
एक मित्र के मार्फ़त बेनेगल साहब का पता हासिल किया और भावुकता और ईमानदारी से लबरेज़ एक पत्र डाल दिया कि मैं मिलना चाहता हूँ. मित्रों के उपहास के बावजूद एक सप्ताह के भीतर मुझे उनका जवाब मिल गया. ‘ललित तुम्हारे पत्र ने मुझे भीतर से छुआ. जब चाहो मुझे सूचना देकर बम्बई मिलने आ सकते हो.’
वर्षों बाद श्याम बेनेगल के निकट आने पर पता चला कि हर इंसान के ख़त का नियमित रूप से जवाब देना उनका एक ऐसा उसूल था जिसे उन्होंने जीवन पर्यन्त निभाया.
बेनेगल ने जब दिया ऑफ़र
श्याम बेनेगल की दूसरी फ़िल्म निशांत (1965), और भी सशक्त थी जिसने अंकुर में निहित सामंतवाद और शोषण के विरुद्ध व्यक्त एक स्त्री के आक्रोश को सामूहिक विद्रोह में बदला.
निशांत, अंकुर का निरंतरण थी और मंथन (1966) इस विद्रोह की सकारात्मक परिणिति. भले इन तीनों फ़िल्मों के अलग-अलग कथानक हैं पर अंकुर, निशांत और मंथन श्याम बेनेगल की सामाजिक फ़िल्मत्रयी हैं.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद, आकाशवाणी इलाहाबाद में रहते मैं बराबर बेनेगल साहब से पत्राचार करता रहा. अंततः 1979 में पहली बार श्याम बेनेगल से ताड़देव स्थित उनके ऑफिस में मिल पाया. तब तक वे भूमिका और जुनून बना चुके थे.
इसी भेंट के दौरान श्याम बेनेगल से पहला इंटरव्यू रिकॉर्ड किया. उनके साथ काम करने की इच्छा के बावजूद बेबाक सवाल पूछे और मुंबई स्थित सिनेमा इंडिया इंटरनेशनल के संपादक टीएम रामचंद्रन और नवभारत टाइम्स के लिए नए सिनेमा पर लिखना प्रारम्भ कर दिया. बेनेगल साहब ने कहा कि सहायक निर्देशक के रूप में काम करने के लिए बराबर उनके संपर्क में रहूं.
बेनेगल के साथ काम करने की इच्छा लिए इलाहाबाद लौटकर रेडियो प्रसारण के प्रति आकर्षण ने एक और ख़्वाब दिखाया बीबीसी हिंदी सेवा में जाने का.
1970 और 1980 के दशक में बीबीसी एक नज़ीर थी. पर नियति को कुछ और मंज़ूर था. जनवरी 1980 में कवि, गीतकार और सूचना निदेशक ठाकुर प्रसाद सिंह ने सूचना निदेशालय लखनऊ आने का ऑफ़र दिया और साथ में अपना रचनात्मक कार्य जारी रखने के लिए प्रोत्साहन भी.
कभी किसी फ़ार्मूले के शिकार नहीं हुए
श्याम बेनेगल ने नई धारा के सिनेमा की अगुआई तो की पर उनकी फ़िल्में सामानांतर सिनेकारों के कृतित्व की एकरसता से अलग रहीं. बेनेगल का सिनेमा कभी किसी फ़ार्मूले का शिकार नहीं हुआ.
ग्रामीण परिवेश की शोषण मूलक फ़िल्मों के निर्माण से वे चिपके नहीं रहे. एक ओर उन्होंने भूमिका जैसी स्त्रीवादी फ़िल्म बनाई जो हंसा वाडेकर की जीवनी पर आधारित थी और सिनेमा के विकास का दस्तावेज़ थी, वहीं त्रिकाल जैसी फ़िल्म अति यथार्थवादी, अतीत की ओर नज़र डालती परिवेश मूलक कृति है.
श्याम बेनेगल पूना फ़िल्म संस्थान के अध्यक्ष भी रहे और 1987 में फ़िल्म एप्रिसिएशन कोर्स करने के दौरान मैंने श्याम बेनेगल के अद्भुत व्याख्यान भी सुने. इसी वर्ष मैंने बीबीसी लंदन की हिंदी सेवा के लिए भी आवेदन किया था और 1988 में मुझे लंदन से नियुक्ति का ऑफ़र मिल गया.
बेनेगल साहब ने इसका स्वागत किया और कहा कि यह अवसर मेरे सर्वांगीण विकास में सहायक होगा और सिनेमा की भी बेहतर समझ मुझमें विकसित करेगा.
लंदन आना हालांकि मेरी ज़िन्दगी का उत्तरार्ध था पर श्याम बेनेगल से मेरे संबंध और गहरे होते गए. भारतीय सिनेमा मेरी विशेषज्ञता बनती गई जिसकी रीढ़ श्याम बेनेगल थे.
बीबीसी के लिए 1990 में बनी भारतीय सिनेमा के समग्र इतिहास पर मेरी 19 भागों की सिरीज़ के निर्माण में उनकी सलाह और सहायता अहम थी.
बर्मिंघम इंटरनेशनल फ़िल्म एंड टेलीविज़न फ़ेस्टिवल के फ़िल्म प्रोग्रामर की हैसियत से मैंने उनका सम्मान समारोह 1995 में आयोजित किया जिसमें वे नीरा जी (नीरा बेनेगल) के साथ आये थे.
इस बीच श्याम बेनेगल ने हिन्दू-मुस्लिम अंतर-संबंधों और वैमनस्य को रेखांकित करती तीन फ़िल्में- मम्मो (1994), सरदारी बेगम (1996) और ज़ुबैदा (2001) बनाईं.
इसके अलावा ऐतिहासिक फ़िल्मों के निर्माण में भी मेकिंग ऑफ़ द महात्मा (1996) और बोस- द फॉरगॉटन हीरो (2005) उनकी चर्चित कृतियां हैं.
वर्ष 2000 में मेरे द्वारा लंदन में साउथ एशियन सिनेमा फॉउन्डेशन (एसऐसीएफ़) की स्थापना के बाद प्रारम्भ किए गए पत्र ‘साउथ एशियन सिनेमा’ के लगभग हर अंक में बेनेगल साहब ने विशिष्ट लेखन किया.
साउथ एशियन सिनेमा फॉउन्डेशन द्वारा प्रकाशित कई पुस्तकों में सम्पादकीय सहयोग के अलावा बेनेगल साहब ने ‘अ डोर टु अडूर’ पुस्तक की भूमिका भी लिखी है.
समय से पहले पूरा करते थे अपना काम
लंदन से प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘बॉलीवुड पॉपुलर इंडियन सिनेमा में’ श्याम बेनेगल ने ‘मेकिंग मूवीज़ इन मुंबई’ शीर्षक से एक अध्याय लिखा है. श्याम बेनेगल की एक ख़ासियत ये थी कि वे हमेशा समय पर नहीं, समय के पहले अपना काम पूरा करते थे.
2006 में बनी मेरी डाक्यूमेंट्री ‘बियॉन्ड पार्टीशन’ (विभाजन के पार) का संपादन पूरा करने के पहले जब मैंने उन्हें फ़ोन किया तो उन्होंने पूछा, “ललित इस फ़िल्म का टाइटल क्या है.” मैंने कहा बेनेगल साहब ‘पार्टीशन कॉन्टिन्यूज़’ (विभाजन जारी है). ‘यह बिलकुल अस्वीकार्य है’- उन्होंने खीज से कहा. यह टाइटल रखकर तुम पाकिस्तान के एजेंडा को स्वीकार कर रहे हो. मुझे एक घंटे में फ़ोन करो. फ़ोन करने पर उन्होंने कहा कि तुम्हारी डाक्यूमेंट्री का नाम ‘बियॉन्ड पार्टीशन’ (विभाजन के पार) होगा.
बेनेगल के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सहजता थी. ‘भारत और ब्रितानी सिनेमा में सहयोग’ के एक प्रोजेक्ट के तहत मैंने 2011 में अपनी एक डाक्यूमेंट्री ‘निरंजन पाल – एक विस्मृत विभूति’ में कमेंटरी के लिए अकस्मात बेनेगल साहब को फ़ोन कर अनुरोध किया, बेनेगल साहब मैं चाहता हूँ कि आप मेरी इस डाक्यूमेंट्री की कमेंट्री करें. आपके स्वर से मेरी फ़िल्म की अहमियत बढ़ेगी.
बेनेगल साहब ने कहा- “देखो ललित, मैं इसके लिए तैयार हूँ. पर मेरी आवाज़ तुम्हारी फ़िल्म की कमेंटरी में कितना सटीक बैठेगी, मैं कह नहीं सकता. कुछ समय पहले मेरे गले का एक ऑपरेशन भी हुआ है. इससे मेरी आवाज़ में थोड़ा फ़र्क़ आ गया है.”
मैंने कहा, “प्लीज़ बेनेगल साहब! ये मेरी फ़िल्म के लिए सम्मान की बात होगी.” रिकॉर्ड की गयी कमेंटरी मुझे ऑनलाइन भेजने के साथ-साथ बेनेगल साहब ने एक नोट भी भेजा. “ललित तुम्हारे अनुरोध पर मैंने इसे रिकॉर्ड कर दिया है. यह तुम्हारी फ़िल्म है. मेरी सच्ची राय है, अगर यह तुम्हें किसी भी वजह से अपनी फ़िल्म के अनुरूप न लगे तो इसे कूड़ेदान में फेंकने में ज़रा भी संकोच मत करना. मैं तुम्हारी जगह होता तो यही करता.”
दुविधा दूर की
अब एक अंतिम क़िस्सा. एक बार मैंने वर्ष 2009 में बेनेगल साहब को फ़ोन कर पूछा, “मेरे एक नज़दीकी सिनेकार ने एक बहुत कमज़ोर फ़िल्म बनाई है और मुझसे उसकी समीक्षा लिखने को कहा जा रहा है. मैं दुविधा में हूँ. बताइए, किस नज़रिये से उस पर लिखना शुरू करूं? (बेनेगल ने यह फ़िल्म देखी थी और मुझसे सहमत भी थे).” पर बेनेगल का जवाब था, “एक कलाकार की कृति के प्रति संवेदना से लिखो. करुणा से लिखो. एक समीक्षक के दम्भ और क्रूरता से नहीं.”
मैंने हमेशा यही महसूस किया कि श्याम बेनेगल इंसानियत के पुतले थे इसीलिए बड़े सिनेकार थे.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
SOURCE : BBC NEWS