Source :- BBC INDIA

श्याम बेनेगल

इमेज स्रोत, Getty Images

साल 1976 में श्याम बेनेगल की फ़िल्म मंथन पर्दे पर आई थी जो मूल रूप से कोऑपरेटिव मूवमेंट और किसानों की कहानी थी.

फ़िल्म के शुरुआती हिस्से में एक सीन आता है जहाँ एक डॉक्टर राव (गिरीश कर्नाड) गाँव में घर-घर जाकर दूध की टेस्टिंग करते हैं. उन्हीं में से एक घर है गाँव की दलित महिला बिंदु (स्मिता पाटिल) का.

जब डॉक्टर राव पहली बार बिंदु (स्मिता पाटिल) के घर दूध का सैंपल लेने आते हैं तो बाहर बैठे उनके छोटे बच्चे से पूछते हैं, “तुम्हारा बाप कहाँ है” तो बिंदु तीखे तेवर से जवाब देती है, “बाप अहयाँ है, तमारे को क्या चाहिए.”

यानी ख़ुद की तरफ़ इशारा करते हुए कहती हैं कि ‘बाप यहाँ है, तुम्हें क्या चाहिए.’

लाइन
लाइन

पुरुष किरदारों से भरी इस फ़िल्म में स्मिता के इस पहले सीन से तय हो जाता है कि वो ग़रीब और शोषित ज़रूर हैं, लेकिन दबी-कुचली महिला नहीं. और ये बिंदासपन बिंदु का स्वभाव ही नहीं ज़रूरत भी है.

सशक्त महिला क़िरदार

फिल्म में गिरीश कर्नाड और स्मिता पाटिल ने मुख्य भूमिका निभाई है.

इमेज स्रोत, Sahyadri Films

ये सिर्फ़ एक ‘मंथन’ की कहानी नहीं है, बल्कि श्याम बेनेगल की तकरीबन ज़्यादातर फ़िल्मों की ये ख़ासियत रही है कि वो महिला किरदारों को अपनी पूरी संपूर्णता में दिखाते थे.

संपूर्णता यानी महिला किरदारों को सिर्फ़ नेकदिल, सहनशील और क़ुर्बानी देने वाली नहीं, बल्कि शातिर, असहज, स्ट्रीट स्मार्ट, आज़ाद ख़्याल, असहाय, दिलकश.. लगभग हर रूप में दिखाते थे.

23 दिसंबर को श्याम बेनेगल का निधन हो गया और इस मौके पर उनकी बनाई तमाम फ़िल्मों को याद करते हुए ये बात बार-बार उभर कर सामने आती है.

फिर वो मंथन की बिंदु हो या फिर फ़िल्म ‘मंडी’ में वेश्यालय चलानी वाली रुकमिनी बाई (शबाना आज़मी).

रुकमिनी अपने इरादों में बिल्कुल पाक-साफ़ नहीं है, लेकिन अपने यहां रहने वाली हर लड़की को हिफ़ाज़त से रखना भी जानती है.

“हाशिम साहिब तो जानते हैं कि हम हुनर और मेहनत से कलाकार हैं पर क़िस्मत ने हमें कीचड़ में फेंक दिया.” जब रुकमिनी बाई ये कहती हैं तो वह एक लम्हे में सारी लड़कियों को कोठे से उठाकर कलाकार का दर्जा दे देती हैं.

ये श्याम बेनेगल का ही कमाल है कि वो सेक्स वर्कर्स की ज़िंदगी को इतने अदब से दिखाते हैं- जहाँ उन्हें न ही रोमेंटिसाइज़ किया जाता है, न महिमामंडित और न ही उनकी कहानी को दरकिनार किया जाता है.

‘मंडी’ में शबाना आज़मी का क़िरदार अपने कोठे में ज़ीनत नाम की लड़की (स्मिता पाटिल) को कभी किसी ग्राहक के सामने पेश नहीं करतीं, दिलो जान से उसकी हिफ़ाज़त करती है. लेकिन बतौर दर्शक आप ये निष्कर्ष निकालने के लिए भी स्वतंत्र हैं कि रुकमिनी को आख़िरकार ऐसे ग्राहक का इंतज़ार है जो ज़ीनत की सबसे ज़्यादा क़ीमत देगा.

ईला अरुण, नीना गुप्ता, सोनी राज़दान, अनिता कंवर.. कोठे में रहने वाली ये सारी लड़कियाँ जानती हैं कि ज़िंदगी ने उन्हें किस हालात में धकेला है, लेकिन वो ये भी जानती हैं कि ये उनकी ज़िंदगी, उनका देह है.. और इन हालात में उन्हें क्या करना है.

इस ब्लैक कॉमेडी में श्याम बेनेगल कोठों की इन औरतों को बहुत ही गरिमामय और मानवीय ढंग से पर्दे पर दिखाते हैं.

फ़िल्म ‘निशांत’ हो या ‘जुनून’, ‘सरदारी बेग़म’ या फिर ‘ज़ुबैदा’…कलाकार रेखा हों या करिश्मा कपूर.. इन सबके साथ वो कुछ ऐसा ही करिश्मा करने में कामयाब रहे.

बंटवारे का दर्द पर्दे पर उतारा

श्याम बेनेगल

श्याम बेनेगल की फ़िल्मों में देश के सामाजिक और धार्मिक ताने—बाने को भी बहुत ख़ूबी से दिखाया गया है. ‘मम्मो’, ‘सरदारी बेग़म’, ‘ज़ुबैदा’ इसकी मिसाल हैं जो उस दौर के मज़हबी और सामाजिक परिवेश को दिखाती हैं और पर इनमें भी केंद्र में महिलाएँ ही हैं.

यूँ तो बटवारे पर बहुत सारी फ़िल्में बनी हैं, लेकिन जिस नज़ाकत और भावुकता से दो बहनों के नज़रिए से श्याम बेनेगल ने फ़िल्म ‘मम्मो’ में बंटवारे के दर्द को दिखाया है वो वाकई बहुत अलग है.

एक मुस्लिम परिवार कैसे देश के तकसीम होने से दो फाड़ हो जाता है, उसका मर्म ‘मम्मो’ में आप देख सकते हैं.

‘मम्मो’ दो बहनों की कहानी है- महमूदा बेग़म (फ़रीदा जलाल) जो पाकिस्तान में रहती है और तीन महीने का वीज़ा लेकर अपनी बहन सुरेखा सीकरी से मिलने भारत आती है.

लेकिन ये दरअसल दो औरतों की हिम्मत, ताक़त और मोहब्बत की भी कहानी है जो बंटवारे के बाद के बदतर हालात में भी जीने और प्यार करने की वजह ढूँढ लेती हैं और हंसने की भी.

मसलन वो सीन जहाँ दो मुल्कों में बंटी, बरसों बाद मिली दोनों बहनें पुराने दिन याद करती हैं.

सुरेखा सीकरी- “पाकिस्तान में अब भी हिंदुस्तानी पिक्चरें दिखाते हैं?”

फ़रीदा जलाल- “पिक्चरें तो नहीं आती यहाँ की, पर वहाँ पे अपनी बनती हैं. ठीक-ठाक.”

सुरेखा सीकरी- “पर वो पुरानी वाली बात कहाँ…”

फ़रीदा जलाल- “हाय बिल्कुल नहीं.”

सुरेखा- “दिलीप कुमार, अहा…”

दिलीप कुमार पर आहें भरती दो बहनें. बहुत छोटा सा और सामान्य सा दृश्य.

महिला किरदारों पर केंद्रित और महिलाओं की छोटी-बड़ी भावनाओं को खंगालते ऐसे सीन श्याम बेनेगल की फ़िल्मों में देखना हमेशा एक अलग अनुभव रहा है.

हालांकि ‘मम्मो’ की ख़ूबी ये है कि इन दो मुस्लिम बहनों की जगह कोई और परिवार भी होता तो ये कहानी उतनी ही मार्मिक होती.

श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘सरदारी बेग़म’ को सर्वश्रेष्ठ उर्दू फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. मज़हबी दंगों में मारी गई एक तवायफ़ सरदारी बेग़म की ये कहानी एक साथ बहुत कुछ कह जाती है- धर्म पर, इंसानी रिश्तों पर, औरतों की ज़िंदगी पर, उनकी बग़ावत पर.

फ़िल्मों में इंसानी रिश्तों को अहमियत

श्याम बेनेगल स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी के साथ कान फ़िल्म महोत्सव में (1976)

इमेज स्रोत, Getty Images

इस कड़ी में तीसरी फ़िल्म ‘ज़ुबैदा’ भी धर्म, रिश्तों को खंगालती श्याम बेनेगल की बेहतरीन फ़िल्म थी.

60-70 के दशक में मेनस्ट्रीम फ़िल्मों में जहाँ सोशल फ़िल्में बनाने का चलन था, वहीं श्याम बेनेगल ने इस चलन से अलग हटकर इन्हीं मुद्दों पर मुस्लिम समाज से जुड़ी छोटी और सार्थक फ़िल्में बनाईं और अपनी अलग छाप छोड़ी.

श्याम बेनेगल की फ़िल्मों में महिला किरदारों को उन्हीं के नज़रिए से दिखाने का आगाज़ तो दरअसल उनकी शुरुआती फ़िल्मों से ही हो गया था और इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि उनकी फ़िल्मों के लिए अभिनेत्रियों को राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का अवॉर्ड मिलता रहा है.

1973 की उनकी पहली फ़िल्म ‘अंकुर’ में श्याम बेनेगल ने शबाना आज़मी को तेलंगाना की दलित समाज की एक ग़रीब औरत लक्ष्मी का रोल दिया था.

उसका पति बोल नहीं सकता, वो शराब पीकर पड़ा रहता है और चोरी का इल्ज़ाम लगने के बाद गाँव से भाग जाता है.

ऐसे में गाँव का युवा ज़मींदार लक्ष्मी को अपने घर और दिल में जगह देता है. लेकिन जल्द ही वो पुरुषवादी सामंती सोच पर लौट आता है.

तब तक लक्ष्मी उसके बच्चे की माँ बनने वाली होती है- बच्चा जिसकी चाह उसे हमेशा से थी.

इस दौरान लक्ष्मी के मन में जो विरोधाभासी भाव आते हैं, उसे श्याम बेनेगल ने बहुत सुंदरता से उकेरा है.

ग्लानि, हिकारत, राहत, भरोसा, आकर्षण- ज़मींदार के प्रति उन सारे जटिल भावों को श्याम बेनेगल जगह देते हैं.

पति के भाग जाने के बाद लक्ष्मी (शबाना) जब ज़मींदार की दी हुई आर्थिक सहूलियत स्वीकार करती है और शारीरिक संबंध बनाती है तो इसे श्याम बेनेगल सिर्फ़ नैतिकता के चश्मे से नहीं दिखाते, बल्कि जात- पात वाले उस सामंती समाज में औरत की हैसियत के तौर पर भी दिखाते हैं.

और आख़िर में जब गाँव का ज़मींदार लक्ष्मी को छोड़ देता है तो वो अपना बच्चा गिराने से साफ़ इंकार कर देती है और गाँव लौटे पति के साथ रहने का फ़ैसला करती है – और यह एक नए अंकुर को जन्म देता है. ‘अंकुर’ के लिए नई नवेली शबाना आज़मी को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.

समाज की ऊँच-नीच के अलावा इंसानी रिश्तों को भी औरत के नज़रिए से दिखाने में श्याम बेनेगल ने महारत हासिल की.

श्याम बेनेगल

इमेज स्रोत, Getty Images

फ़िल्म अभिनेत्री हंसा वाड़ेकर की ज़िंदगी पर बनी ‘भूमिका’ में श्याम बेनेगल दिखाते हैं कि कैसे एक लड़की का भावनात्मक शोषण होता है जो कलाकार बनना चाहती है और बड़े होने पर वो अभिनेत्री कैसे अपनी पहचान की तलाश में कई पड़ावों से, कई रिश्तों से गुज़रती है- पुरुष जिनके साथ वो खुद बंधकर रहना स्वीकार भी करती है, लेकिन आख़िरकर उसकी आज़ाद ख़्याली को कोई बांध नहीं पाता है.

स्मिता पाटिल को इस फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय अवॉर्ड दिया गया था.

1981 में आई ‘कलयुग’ में सुप्रिया पाठक को पहला ब्रेक देने वाले भी श्याम बेनेगल ही थे जो महाभारत का मॉडर्न संस्करण था.

इस कहानी में भी श्याम बेनेगल ने सुप्रिया को सुभद्रा का अहम रोल दिया जो अुर्जन की पत्नी है और इसके लिए उन्हें सह अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिला.

हैरत की बात नहीं कि श्याम बेनेगल की बहुत पसंदीदा फ़िल्मों में महबूब ख़ान की फ़िल्म ‘औरत’ थी.

2009 में दिए बीबीसी इंटरव्यू में बकौल श्याम बेनेगल ‘मदर इंडिया’ अब तक की सबसे अच्छी फ़िल्म है.

और जहाँ तक बात पुरस्कारों की है तो उनकी फ़िल्मों को ही नहीं, श्याम बेनेगल की फ़िल्मों के लिए स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, किरण खेर, राजेश्वरी सचदेव, फ़रीदा जलाल, सुरेखा सीकरी, सुप्रिया पाठक, करिश्मा कपूर ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार और दिल जीते हैं.

वैसे फ़िल्में ही नहीं, विज्ञापनों में भी श्याम बेनेगल ने कुछ नायाब तोहफ़े दिए हैं.

भारत की पहली अमूल बेबी की तस्वीरें भी उन्होंने ही उतारी थीं. 10 महीने की वो बच्ची शशि थरूर की बहन थीं.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.

SOURCE : BBC NEWS