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पोप फ्रांसिस को अंतिम विदाई दी गई। उन्होंने सादगी से जीवन बिताया और मृत्यु को भी सादगी से स्वीकार किया। उनकी इच्छा थी कि उनकी कब्र साधारण हो और उसमें कोई भव्यता न हो। पोप ने चर्च को अमीरी से दूर रखकर…

पोप फ्रांसिस को अंतिम विदाई दे दी गई है.जिस सादगी से वह जिए, उसी सादगी से विदा भी हुए.संत क्या और कैसा होता है, पोप ने यही दिखाता जीवन जिया.और अपनी मृत्यु में भी सादगी सुनिश्चित कर गए”गडरियों में अपनी भेड़ों की गंध रहनी चाहिए”.इस कथन में पोप फ्रांसिस की शख्सियत का अंदाजा हो जाता है जो सादगी, प्रेम, दया, करुणा, क्षमा और सरोकार से गुंथी हुई थी.लातिन अमेरिकी देश अर्जेंटीना, माराडोना और मेसी के लिए ही नहीं उन खोर्खे मारियो बेर्गोलियो के लिए भी जाना जाता है जो दुनिया में पोप फ्रांसिस के रूप में विख्यात हुए और जिन्होंने 88 साल की उम्र में पिछले दिनों अंतिम सांस ली.कैथलिक चर्च के सर्वोच्च पद पर फ्रांसिस के 12 साल, चर्च जैसी विराट संस्था के चौंकाने वाले बदलावों और ईसाइयत की गहन चुनौतियों के साल भी थे.फ्रांसिस की लातिन अमेरिकी जड़ें और चर्च का कायांतरणपोप फ्रांसिस, चर्च के क्लर्कीय और पादरी पर्यावरण को अफसरशाही और हाइआरकी और धार्मिक अतिशयताओं से बदलावों की ताजी हवा की ओर ले गए.उन्होंने अपने अधीनस्थ अधिकारियों और पादरियों से कह दिया कि “वे राजकुमारों की तरह व्यवहार न करें क्योंकि नेतृत्व का मतलब सेवा होता है और पादरियों को विनीत, धैर्यवान और दयालु होना चाहिए.अगर हम खुद को गडरिया कहते हैं तो हमसे भेड़ों की गंध भी आनी चाहिए” वह चर्च को तमाम रीति-रिवाजों की चमक-दमक, शानो-शौकत, तड़क-भड़क और प्रदर्शनप्रियता से दूर रखना चाहते थे.ये तो कहा नहीं जा सकता कि पोप फ्रांसिस की अपनी इस निजी और खामोश क्रांति का कितना प्रभाव चर्च पर पड़ा और वो कितना बदल पाया या बदल पाएगा लेकिन ये भी सच है कि दुनिया भर में फ्रांसिस के चाहने वालों की तादाद में बेशुमार बढ़ोतरी हुई.उन्हें आम लोगों का पोप कहा जाता था.साधारण कैथलिक श्रद्धालु उन्हें लोगों की फिक्र करने वाला एक दयालु और करुण पादरी मानती थे जो था.2024 में प्यु रिसर्च सेंटर के एक सर्वे के मुताबिक 75 फीसदी अमेरिकी कैथलिक, उन्हें पसंद करते थे.फ्रांसिस ने चर्च के दरवाजे संवाद और बहस के लिए भी खोल दिए और वह एक दुर्लभ मौका था.

वह कहते थे कि चर्च के संदेश अक्सर बड़े पेचीदा होते हैं, “हम लोगों को इसलिए गंवा देते हैं क्योंकि हम जो कहते हैं वह उन्हें समझ नहीं आता क्योंकि हमने सादगी की भाषा भुला दी है” भाषा में ही नहीं जीवन में भी पोप ऐसी ही सादगी के हिमायती थे.चर्च को महिमामंडित भव्यताओं से उतारकर एक सामान्य सहज साधारण मनुष्यता के करीब लाने के लिए पोप फ्रांसिस शुरू से खुद को रोम का बिशप कहते रहे.उन्होंने अपने लिए बड़ी पदवी का संबोधन स्वीकार नहीं किया.पत्रकारों के साथ अपनी पहली बैठक में उन्होंने कहा था कि वह गरीबों के लिए काम करने वाला गरीब चर्च चाहते हैं.विलासिता और ऐशो-आराम से दूर, पोप के रूप में एक साधारण से कमरे में रहे और गर्मियों में आराम फरमाने रोम के पास 12 सदीं के भव्य किले गान्दोल्फो में रहने कभी नहीं गए.2013 में अपने चयन के बाद जब आम जनता के बीच पोप पहली बार उपस्थित हुए थे तो सामान्य सी सफेद पोशाक में थे.एक फकीर सरीखी विदाईसादगी भरे जीवन की अंतिम विदाई भी सादा ढंग से मनाने की इच्छा के साथ गए.वह अपने मृत शरीर और अपनी मृत्यु का कोई तामझाम नहीं चाहते थे.वह नहीं चाहते थे कि सारी दुनिया उनकी मौत को एक भव्य समारोह में तब्दील होते देखे.कैथलिक चर्च को वह अमीरी और ऐश्वर्य हीं बल्कि सादगी के लिए समर्पित बनाना चाहते थे.इसीलिए शवयात्रा में लंबे-चौड़े जुलूस और गार्डों की भव्य परेड की मनाही भी कर गए.पोप चाहते थे कि वह ईसा के शिष्य की तरह जाएं ना कि दुनिया के एक शक्तिशाली आदमी की तरह.उनके निधन के बाद उनकी आखिरी इच्छा और टेस्टामेंट उनके दफ्तर से जारी किया गया जिसे जून 2022 में लिख कर रख लिया गया था.पोप ने अपने लिए एक साधारण सी कब्र चाही जिस पर उनका पहला नाम फ्रांसिस्कस लिखा हो, किसी तरह की आलंकारिकता न रखी जाए और उस पर महानता के कोई शब्द न उकेरे जाएं.

बेशकीमती तीन ताबूतों की बजाय एक साधारण से ताबूत में ही उनका शव रखा जाए और फिर उन्हें सेंट मेरी मेजर के चर्च में दफना दिया जाए.वेटिकन के बाहर दफनाए जाने वाले, 100 साल बाद वह पहले पोप हैं.अमीरों का कंट्री क्लब नहीं है चर्चअपने तमाम खुले और साहसी प्रयासों के बीच गर्भपात को लेकर पोप फ्रांसिस रूढ़िगत व्यवस्थाओं से बाहर नहीं निकल पाए और इस मामले में चर्च की स्थापित मान्यता के पक्ष में ही रहे.लेकिन महिलाओं के प्रति पोप ने सम्मान दिखाते हुए उन्हें वेटिकन में महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कराया और कुछ अहम बैठकों में वोट का अधिकार भी दिलाया.चर्च पर यौन उत्पीड़न के आरोपों को लेकर भी वह अंतिम समय तक कोई ठोस और सार्थक प्रयास नहीं कर पाए, कुछ छिटपुट फैसले उन्होंने जरूर लिए लेकिन आलोचकों का मानना है कि पोप फ्रांसिस इस मामले पर और कड़ा और दृढ़ रवैया अपनाकर इस अंदरूनी समस्या को खत्म करने में बड़ा योगदान दे सकते थे.कुल मिलाकर मूल सिद्धांतों में बदलाव किए बिना चर्च की कार्यप्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव लाने का बीड़ा उठाने वाले पोप फ्रांसिस ने वेटिकन की नौकरशाही में सुधार किए, वित्तीय खर्चों पर लगाम लगाई और वेटिकन को कुछ बुनियादी व्यावहारिकताओं की ओर मोड़ा.उनके मुताबिक “चर्च चोट खाए लोगों का फील्ड अस्पताल है, अमीरों का कंट्री क्लब नहीं” वैश्विक मामलों में पोप का रुझान बदलाव का पक्षधर था.पोप की सरलता और मिलनसारी की खास बात ये थी कि उनके इर्दगिर्द राष्ट्राध्यक्षों और शीर्ष नेताओं और कॉरपोरेट के दिग्गजों से ज्यादा प्रवासी, शरणार्थी, गरीब, कैदी और वंचित, हाशिए के लोग जमा रहते थे.जीवन के अनुभवों से उम्मीद का संकल्पफ्रांसिस के जीवन की सादगी के बारे में बताने वाली, उनकी आत्मकथा “होप” नाम से पेंग्विन रैंडम हाउस से इसी साल प्रकाशित हुई है.पद पर रहते हुए किसी पोप की यह पहली आत्मकथा है जिस पर 2019 में काम शुरू कर दिया गया था.उनकी इच्छा थी कि किताब उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित की जाए.लेकिन उनकी मृत्यु से कुछ ही महीने पहले जनवरी में ये किताब आ गई.अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में अपने बचपन से लेकर पोप के रूप में कार्यकाल तक यह आत्मकथा एक विस्तृत सफर तय करती हुई पाठक मन को स्पर्श करती है.कार्लो मूसो की मदद से मूल इतालवी में लिखी और रिचर्ड डिक्सन के अंग्रेजी अनुवाद वाली आत्मकथा में पोप ने अपने सादे सरल जीवन के अलावा अपनी कमियों और गलतियों की चर्चा भी की है.और सबसे बढ़कर इस किताब को पढ़ते हुए आप पाते हैं कि पोप के पास न सिर्फ धर्मशास्त्र, ईसाइयत का विपुल ज्ञान था, वह साहित्य, संस्कृति, कला, सिनेमा, विज्ञान और दर्शन के भी गहन रसिक और अध्येता थे.

फुटबॉल के वह एक कट्टर फैन सरीखे थे.और फुटबॉल के खेल से जीवन की लड़ाइयों के लिए उदाहरण उठाना भी उन्हें बखूबी आता था.साहित्य, सिनेमा और खेल के शौकीनइस सिलसले में उन्होंने की फुटबाल पर लिखी बेमिसाल किताब “फुटबॉल इन सन एंड शैडो” से भी उद्धरण अपनी किताब में दिए हैं.फुटबॉल के प्रति अपनी दीवानगी में फ्रांसिस गालियानो की किताब से एक और संदर्भ कोट करते हैं कि “टेक्नोक्रेट फुटबाल को जितना भी महीन से महीन बारीकियों में ले जाने की कोशिश करें, सत्ताधारी कितना ही उस खेल में अपने दांव चलें लेकिन फुटबाल अप्रत्याशा की, अचंभे की कला बनी रहेगी” खोहे लुईस बोर्हेस के तो वह खासे बड़े प्रशंसक थे और उन्हें न सिर्फ अपने शिक्षक वाले दिनों में अपने शिष्यों की लिखी कहानियां भेजी थीं बल्कि उन्हें कक्षा में लेक्चर देने के लिए भी बुलाया.अपनी आत्मकथा में फ्रांसिस ने फ्योदोर दोस्तोएवस्की, लियो तोलस्तोय, राइनर मारिया रिल्के, फ्रीडरिष ह्योल्डरिन, सिगमंट बाउमान, विस्वावा शिम्बोर्स्का, फेदेरिको फेलिनी, रोजेलिनी जैसे अपने अपने क्षेत्र के बहुत से रचनाकारों के संदर्भ और उद्धरण दिए हैं.पोप फ्रांसिस की राजनीति कितने सूक्ष्म मानवीय सरोकारों से बुनी हुई थी, इसकी एक झलक उस घटना में मिलती है जब उन्होंने निकारागुआ के प्रसिद्ध कवि और कैथलिक पादरी, फादर अर्नेस्तो कार्डिनल को उनका दर्जा वापस दिलाया.उनकी राजनीतिक सक्रियता, वाम रुझान और निकारागुआ में सान्दिनिस्ता फ्रंट की सरकार में संस्कृति मंत्री का पद लेने के फैसले से नाराज होकर पोप जॉन पॉल द्वीतीय ने 1985 में उनसे पादरी की पदवी छीनकर उन्हें चर्च के कार्यों से निलंबित कर दिया था.चर्च से जुड़े विवादों की कड़ी में वह तस्वीर ऐतिहासिक मानी जाती है जिसमें फादर कार्डिनल, तत्कालीन पोप जॉन पॉल की निकारागुआ की 1983 की यात्रा के दौरान घुटनों के बल बैठकर उनकी अंगूठी चूमने का प्रयास कर रहे थे लेकिन पोप जॉन पॉल ने अपना हाथ वापस खींच कर उनकी ओर अंगुली फटकारी थी.पोप फ्रांसिस ने 13वीं सदी के रोमन कैथलिक संत फ्रांसिस के नाम पर अपना नाम रखा और उनके उसूलों को ही जीवन में अपनाया.पोप के रूप में रोम से बाहर अपनी पहली यात्रा में वह इटली के लाम्पेदुसा द्वीप पहुंचे जो उस समय यूरोप के प्रवासी संकट का केंद्र बना हुआ था.अपनी आत्मकथा में उम्मीद को लेकर वह तुर्की के महाकवि नाजिम हिकमत की ये लाइनें याद रखने को कहते हैं- सबसे खूबसूरत समन्दर/ अभी पार नहीं हुआ / सबसे सुंदर बच्चा / अभी पैदा नहीं हुआ / अपने सबसे खूबसूरत दिन हमें अभी तक नहीं दिखे / और मैं जो सबसे सुंदर शब्द तुमसे कहना चाहता था / मैंने अभी तक नहीं कहे.आज के दौर के संकट इतने बहुआयामी, बहुपरतीय और व्यापक हैं कि पोप के बहुत से प्रशंसक ये भी मानते हैं कि अपनी सत्ता और प्रभाव की तरह उन्हें अपने साहस और मानव कल्याण अभियानों का दायरा और बढ़ा देना चाहिए था.लेकिन ये भी मानना पड़ेगा कि चर्च के वैभव के विरुद्ध उनकी वैचारिकता अभूतपूर्व और असाधारण थी.चर्च की परंपरा से ज्यादा वह इंसानियत की परंपरा निभाते रहे और महानता की हैसियत को दरकिनार कर बहुतेरी कमियों के साथ आम आदमी की साधारण हैसियत से रहे, उसी में गये.

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