Source :- BBC INDIA
47 मिनट पहले
यूरोप के कई देश राजनीतिक उथल-पुथल से जूझ रहे हैं. फ्रांस में बिगड़ती अर्थव्यवस्था और प्रवासन के मुद्दों से राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई है. यही हाल जर्मनी का भी है.
नवंबर में जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ शॉल्त्स ने अपनी गठबंधन सरकार के वित्त मंत्री क्रिश्चियन लिंडनर को बर्ख़ास्त कर दिया, जिसके बाद वहां भी सरकार गिर गई.
2021 में जर्मनी में वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाली सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी, ग्रीन पार्टी और फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी ने मिलकर गठबंधन सरकार बनाई थी.
शुरुआत से ही इस गठबंधन में मतभेद और भीतरी कलह चलता रही और सरकार की लोकप्रियता घटती गई.
जब चांसलर ओलाफ़ शॉल्त्स ने फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी के क्रिश्चियन लिंडनर को संकीर्ण सोच का राजनेता बताकर बर्ख़ास्त कर दिया तो कलह और बढ़ गई.
लिंडनर ने पलट कर ओलाफ़ शॉल्त्स पर जर्मनी की जनता के मुद्दों की अनदेखी करने का आरोप लगाया.
2025 में जर्मनी में दोबारा चुनाव होने हैं.
कई दशकों से जर्मनी की अर्थव्यवस्था सस्ती ऊर्जा और निर्यात पर निर्भर थी. अब ये दोनों ख़तरे में है.
इसलिए इस हफ़्ते हम ‘दुनिया जहान’ में यही जानने की कोशिश करेंगे कि क्या जर्मनी को अपने आपको बदलना चाहिए?
पतन
साल 2021 में जर्मनी राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता से घिर गया था. चुनाव से पहले तत्कालीन चांसलर एंगेला मर्केल ने सोलह साल तक देश का नेतृत्व करने के बाद पद से हटने का फैसला कर लिया.
चुनाव में उनकी दक्षिणपंथ की ओर झुकाव रखने वाली क्रिस्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी को हार का सामना करना पड़ा.
ओलाफ़ शॉल्त्स के नेतृत्व वाली सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी सबसे बड़ा दल बनी. लेकिन सरकार बनाने के लिए उन्हें दूसरे दलों के साथ गठबंधन करना पड़ा.
उन्होंने ग्रीन पार्टी और फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ मिल कर गठबंधन सरकार बनाई.
जर्मनी की अंतरराष्ट्रीय प्रसारण संस्था डॉइचे वेले की प्रमुख राजनीतिक संपादक माइकेला कूफ़नर कहती हैं कि इन दलों को युवा जनता का अधिक समर्थन मिला था इसलिए उम्मीद थी कि ये सरकार कुछ नया कर के दिखाएगें.
लेकिन सरकार आपसी मतभेदों में फंस गई.
कूफ़नर ने कहा, “ये भिन्न विचारधारा के दलों का गठबंधन था. ग्रीन पार्टी की सोच है कि जर्मनी के व्यापार और उद्योग को पर्यावरणवादी तरीके अपनाने चाहिएं. वहीं सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी सरकारी खर्च में कटौती और सब्सिडी कम करना चाहती थी.”
सरकारी खर्च को लेकर मतभेद जल्द ही तूल पकड़ने लगे और ये सरकार दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद से अब तक की सबसे कम लोकप्रिय सरकार बन गई.
सरकारी खर्च के मुद्दे पर ही चांसलर शॉल्त्स और उनके वित्त मंत्री और फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता क्रिस्चियन लिंडनर के बीच टकराव सरकार के लिए घातक साबित हुआ.
टकराव का मुख्य कारण दरअसल जर्मनी की संवैधानिक अदालत का नवंबर 2023 में दिया गया एक फैसला था. इसमें कहा गया था कि सरकार कोविड महामारी के दौरान बनाए गए आर्थिक कोष की बची हुई धनराशि अन्य योजनाओं पर खर्च नहीं कर सकती.
सरकार का इरादा था कि इस धन का इस्तेमाल चरमराती रेल व्यवस्था में सुधार और सेमीकंडक्टर बनाने वाली कंपनियों को सब्सिडी देने के लिए किया जाए.
अदालत के फ़ैसले की वजह से सरकार के बजट में 65 अरब डॉलर की कमी आ गई.
माइकेला कूफ़नर की राय है कि अदालत के फ़ैसले की वजह से सरकार के पैरों तले से जमीन खिसक गई. “उसे मतदाताओं को बताना था कि जिन योजनाओं को पूरे करने के उसने वादे किए थे उसके लिए कहीं और से धन जुटाना पड़ेगा या उन्हें रद्द करना पड़ेगा. इस मुद्दे को लेकर गठबंधन में महीनों तक लड़ाई चलती रही. बाद में इसके नेता खुलेआम एक दूसरे पर निशाना साधने लगे. दरअसल संवैधानिक अदालत के फैसले के बाद ही इस सरकार का अस्तित्व खतरे में आ गया था.”
सरकार के पास अपनी योजनाओं को पूरा करने के लिए धन उगाहने का एक तरीका ये था कि वो कर्ज ले. चांसलर शॉल्त्स यही चाहते थे मगर वित्तमंत्री ने एक दस साल पुराने नियम का हवाला देते हुए इससे इंकार कर दिया.
माइकेला कूफ़नर ने कहा, “जर्मनी में एक नियम है जिसके अनुसार सरकार लंबे अरसे के लिए लगातार कर्ज नहीं ले सकती. फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता क्रिस्चियन लिंडनर शुरू से सरकार द्वारा कर्ज लेने के खिलाफ थे. सरकार के सामने धन उगाहने के दूसरे विकल्प नहीं थे. गठबंधन के बीच सरकारी खर्च की प्राथमिकताओं को लेकर मतभेदों के चलते जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर महीनों तक बुरा असर पड़ा.”
तो चलिए ये समझने की कोशिश करते हैं कि क्रिस्चियन लिंडनर क्यों कर्ज लेने के खिलाफ थे.
शूल्डन ब्रेंज़र
सरकारी कर्ज़ पर नियंत्रण रखने के लिए जर्मनी में डेट ब्रेक या ऋण नियंत्रण नियम बनाया गया था जिसे जर्मन भाषा में शूल्डन ब्रेंज़र कहते हैं.
इस बारे में हमने बात की मार्सेल फ़्रेज़र से जो जर्मन इंस्टिट्यूट फॉर इकोनॉमिक रिसर्च के अध्यक्ष हैं.
उन्होंने कहा कि जर्मनी के ऋण नियंत्रण नियम का मक़सद सरकारी कर्ज़ पर अंकुश रखना है.
उन्होंने बताया, “इसे 2009 में लागू किया गया था जब दुनिया आर्थिक संकट का सामना कर रहा थी. उस समय ये धारणा बन रही थी कि सरकार बहुत पैसे खर्च कर रही है. इस नियम का मक़सद सरकारी बजट घाटे को नियंत्रण में रखना था. कुछ असाधारण स्थितियों में इस नियम में अपवाद के तहत सरकार कर्ज़ ले सकती है लेकिन उसके लिए उसे संसद से अनुमति लेनी पड़ती है. लेकिन सरकार हर साल कर्ज़ नहीं ले सकती.”
2020 में कोरोना महामारी से निपटने के लिए इस नियम में अपवाद के तहत सरकार को 200 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता दी गई थी.
मार्सेल फ़्रेज़र ने कहा कि महामारी के दौरान सरकार को अतिरिक्त खर्च के लिए संसद ने अनुमति दी थी.
उसके बाद 2022 में यूक्रेन युद्ध के चलते एक बार फिर इस नियम में अपवाद के प्रावधान के तहत सरकार को रियायत दी गई थी, लेकिन पिछले साल वित्तमंत्री ने कहा कि चाहे जो भी हो हम ढील नहीं दे सकते.
और वो इस बात पर अड़े रहे.
जर्मनी के वित्त मंत्री की राय थी कि देश संकट में नहीं है इसलिए सरकार को कर्ज़ लेने की छूट नहीं मिली, लेकिन सरकारी कर्ज़ को लेकर इतना विरोध क्यों है?
मार्सेल फ़्रेज़र का कहना है, “अधिकांश जर्मन जनता ऋण नियंत्रण नियम का समर्थन करती है. जर्मनी के मूल्यों में ऋण को अपराधबोध के साथ जोड़ कर देखा जाता है. यानी अगर आप कर्ज़ ले रहे हैं तो आपने ग़लती की है. एक सर्वेक्षण के अनुसार 70 से 80 प्रतिशत जनता सरकार द्वारा कर्ज़ लेने के खिलाफ है.”
अगर सरकार कर्ज़ नहीं लेती तो बजट घाटे को पूरा करने के लिए उसे आम लोगों और कंपनियों से अधिक टैक्स वसूल कर पैसे उगाहने पड़ते.
दूसरा विकल्प तब संभव होता जब अर्थव्यवस्था बढ़ रही होती, लेकिन अनुमान ये है कि आने वाले एक दो सालों में जर्मनी की अर्थव्यवस्था में वृद्धि की गुंजाइश बहुत कम है. यहां तक की देश में मंदी की आशंका भी व्यक्त की जा रही है.
व्यापारी भागीदार
इस सदी की शुरुआत से जर्मनी आधुनिक मशीन, उपकरण, वाहन और वाहनों के कलपुर्जे बड़े पैमाने पर चीन और पूर्व के देशों को निर्यात करता रहा है. मगर पिछले कुछ सालों में ये निर्यात कम होने लगा है क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था धीमी पड़ गई है. साथ ही चीन और जर्मनी के बीच तनाव भी बढ़ गया है.
जर्मनी की अर्थव्यवस्था किस हद तक निर्यात पर निर्भर रही है, ये जानने के लिए हमने बात की जुलियन हिन्ज़ से जो बीलफ़ेल्ड यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं.
उन्होंने कहा, “जर्मनी में बनने वाला एक तिहाई माल निर्यात किया जाता है. इस निर्यात का दो तिहाई हिस्सा यूरोपीय संघ में जाता है. इसलिए ये समझना ज़रूरी है कि कौन से बाज़ार जर्मनी के लिए महत्वपूर्ण हैं.”
तो अब सवाल है कि जर्मनी इतना बड़ा निर्यातक कैसे बना? जुलियन हिन्ज़ मानते हैं कि इसके कई कारण हैं. जुलियन हिन्ज़ के अनुसार इसमें जर्मनी की भौगोलिक स्थिति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
उन्होंने कहा, “जर्मनी यूरोप के केंद्र में है. उसकी आबादी 8 करोड़ है और अर्थव्यवस्था बड़ी है. इसका जर्मनी को काफ़ी फ़ायदा हुआ. दूसरे, रूस से सस्ती गैस मिलती रही है जिस कारण उत्पादन खर्च कम रहा है, जिससे अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में वो निर्यात के क्षेत्र में आगे निकल गया. लोग जर्मनी को उसकी कारों के लिए जानते हैं, लेकिन जर्मनी कई आधुनिक उपकरणों और मशीनों के निर्माण में भी आगे रहा है.”
अब चीन के साथ बढ़ता तनाव जर्मनी के लिए एक चिंता का विषय है. जर्मनी के लिए चिंता का दूसरा मुद्दा ये है कि अमेरिका के अगले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को होने वाले निर्यात पर दस से बीस प्रतिशत तक निर्यात शुल्क लगाने की बात कर रहे हैं.
क्या इसका जर्मनी पर असर पड़ेगा?
जुलियन हिन्ज़ कहते हैं, “इस निर्यात शुल्क का असर तो निश्चित ही पड़ेगा क्योंकि इससे वो उत्पाद महंगे हो जाएंगे. देखना ये है कि इसका भार ग्राहकों पर अधिक पड़ेगा या उत्पादकों पर. लेकिन जर्मनी का अमेरिका को निर्यात इतना बड़ा नहीं है. इसलिए उसे बहुत बड़ा फ़र्क नहीं पड़ेगा.”
हालांकि जुलियन हिन्ज़ ने ये चिंता भी व्यक्त की कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में निर्यात शुल्क को लेकर जो नियम निर्धारित थे, उसमें पिछले कुछ समय से परिवर्तन आ रहे हैं जिसका जर्मनी पर असर पड़ सकता है.
ऐसे में क्या जर्मनी को अपने आपको बदलने के बारे में सोचना चाहिए?
टेक्नॉलॉजी के ज़रिए प्रगति का मंत्र
दूसरे विश्व युद्ध के बाद जर्मनी की अर्थव्यवस्था का ज़ोर उत्पादन पर रहा है लेकिन अब दुनिया बदल गई है.
तो क्या जर्मनी को भी अपनी अर्थव्यवस्था को नई दिशा देना चाहिए? मोनिका श्नित्ज़र, म्यूनिख यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर हैं. उनके मुताबिक जर्मनी के कई राजनेता अतीत में फंसे हुए हैं जबकि ज़रूरत आगे देखने की है.
उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि जर्मनी को अपने बिज़नेस मॉडल या व्यापारिक प्राथमिकताओं के बारे में नए सिरे से सोचना चाहिए. जर्मनी को सेवा उद्योग से जुड़ी चीज़ें बनानी चाहिए जैसा कि अमेरिका कर रहा है. जर्मनी को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल पर ज़ोर देना चाहिए”
मोनिका श्नित्ज़र कहती हैं कि अमेरिका द्वारा विदेशी सामान पर निर्यात शुल्क लादने का जर्मनी के वाहन उद्योग पर असर पड़ेगा.
मोनिका श्नित्ज़र ने बताया कि कुछ कार निर्माण कंपनियों के कारख़ाने अमेरिका में भी हैं इसलिए उन कंपनियों पर ख़ास असर नहीं पड़ेगा.
लेकिन पोर्श जैसी कंपनी अमेरिका में बड़ी संख्या में गाड़ियां बेचती है लेकिन उसके कारख़ाने जर्मनी में हैं इसलिए उस पर बड़ा असर पड़ेगा. साथ ही जिन कंपनियों के कारख़ाने मेक्सिको में हैं उन पर भी असर पड़ेगा.
जर्मनी इस समस्या से कैसे निपटेगा? क्या जर्मन चांसलर के डोनाल्ड ट्रंप के साथ निजी संबंधों के ज़रिए इसका तोड़ निकाला जाएगा या कोई दूसरा रास्ता खोजना पड़ेगा?
मोनिका श्नित्ज़र कहती हैं कि अगर ट्रंप निर्यात शुल्क बीस प्रतिशत कर देते हैं और बाद में बातचीत के बाद उसे कम करके दस प्रतिशत कर देते हैं तो ये कहा जाएगा कि हमने कुछ सफलता हासिल की लेकिन सच्चाई तो ये है कि जर्मन उद्योग के सामने मुश्किल बढ़ जाएगी जिसे अभी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा.
मोनिका श्नित्ज़र ने कहा, “मुझे निश्चित ही लगता है कि जर्मनी को अपनी अर्थव्यवस्था के बारे में नए तरीके से सोचना चाहिए. उसे नए बिज़नेस मॉडल अपनाने होंगे और देखना होगा कि वो टेक्नॉलॉजी से कैसे फ़ायदा उठा सकता है.”
“अगर सरकार कर्ज़ लेती है तो उसे व्यापार में निवेश पर खर्च करना चाहिए. अब तक तो जर्मनी ने ऐसा नहीं किया है. हमारी ढांचागत सुविधाएं चरमरा रही हैं. रेल व्यवस्था की स्थिति बिगड़ गई है. अगर इन चीज़ों पर निवेश किया गया तो वो भविष्य में निवेश करने के समान होगा.”
मोनिका श्नित्ज़र कहती हैं कि अगले चुनावों में भी देश में गठबंधन सरकार ही बनेगी. इसलिए ज़रूरी है कि गठबंधन में शामिल दल अर्थव्यवस्था को लेकर अपने मतभेद सुलझाने का तरीका ढूंढें.
तो अब लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर – क्या जर्मनी को अपने आपको बदलना चाहिए?
इसका संक्षिप्त उत्तर तो ये है कि – हां उसे अपने आपको बदलना होगा.
जिन चीज़ों के निर्यात पर जर्मनी आज तक निर्भर था वो अब संकट में हैं. इसलिए जर्मनी को डिजिटल टेक्नॉलॉजी के इस्तेमाल पर ध्यान देना पड़ेगा ताकि भविष्य में व्यापार का नया मॉडल बनाया जा सके.
हमारे दूसरे एक्सपर्ट मार्सेल फ़्रेज़र की राय है कि व्यापार को बढ़ावा देने के लिए सरकार को ढांचागत सुविधाओं में निवेश करना चाहिए. मगर निजी कंपनियों के कामकाज के तरीकों में दखल नहीं देना चाहिए जैसा कि सरकार फिलहाल कर रही है.
वो कहते हैं कि सरकार को कंपनियों को ये निर्देश नहीं देना चाहिए कि वो कर्मचारियों की छंटनियां ना करें या कारख़ाने बंद ना करें. अगर कंपनियां सही फ़ैसले करती हैं तो अर्थव्यवस्था से जुड़े राजनीतिक मतभेद कम करने में भी मदद मिलेगी.
हमारे तीसरे एक्सपर्ट जुलियन हिन्ज़ को आशा है कि जर्मनी की अर्थव्यवस्था दोबारा मज़बूत होगी हालांकि उसका स्वरूप नया होगा.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
SOURCE : BBC NEWS