Source :- BBC INDIA

इमेज स्रोत, Getty Images
40 मिनट पहले
जनवरी 2025 में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने दूसरे कार्यकाल का पदभार संभालने के पहले दिन ही 26 एग्ज़ीक्यूटिव ऑर्डर पर हस्ताक्षर कर दिए.
इनमें से एक आदेश के अनुसार, अमेरिका द्वारा विदेशों में दी जाने वाली आर्थिक सहायता में बदलाव का फ़ैसला किया गया.
अंतरराष्ट्रीय विकास के लिए अमेरिका की मुख्य सहायता एजेंसी ‘यूएसएड’ काम करती है. राष्ट्रपति के आदेश में यूएसएड का नाम नहीं था, लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप के एग्ज़ीक्यूटिव ऑर्डर के तहत सभी अंतरराष्ट्रीय सहायता योजनाओं पर 90 दिन तक रोक लगा दी गई और इस दौरान उनकी समीक्षा करने की बात कही गई.
90 दिन के बाद इन सहायता योजनाओं में बदलाव किया जा सकता है, उन्हें जारी रखा जा सकता है या फिर रद्द किया जा सकता है.
बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
अमेरिका के अलावा दूसरे देश भी अपने आर्थिक सहायता बजट में कटौती कर रहे हैं. इसलिए इस सप्ताह दुनिया जहान में हम यही जानने की कोशिश करेंगे कि यूएसएड से मिलने वाली आर्थिक सहायता की कमी को कैसे पूरा किया जा रहा है.
यूएसएड की स्थापना का एक किताब से संबंध

इमेज स्रोत, Getty Images
‘हार्वर्ड सेंटर फ़ॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट’ की कार्यकारी निदेशक फ़ातिमा सुमर कहती हैं कि अमेरिकी विदेशी सहायता एजेंसी या यूएसएड ने दुनियाभर में लाखों लोगों की जान बचाने में बड़ी भूमिका निभाई है और विश्व में स्वास्थ्य सुरक्षा को नई दिशा दी है.
यूएसएड की स्थापना की कहानी बताते हुए वो कहती हैं कि जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ़ कैनेडी सांसद थे तब वो एक काल्पनिक राजनीतिक उपन्यास से प्रेरित हुए थे.
“वो उस समय के चर्चित उपन्यास ‘अग्ली अमेरिकन’ से प्रभावित हुए थे. इस उपन्यास में उस समय दक्षिण-पूर्व एशिया में कम्युनिज्म से निपटने के लिए अमेरिका के बल प्रयोग की नीति की आलोचना की गई थी. इस किताब का मुख्य संदेश यह था कि अगर अमेरिका विश्व को सैद्धांतिक नेतृत्व देना चाहता है तो उसे लोगों को ग़रीबी से बाहर निकालने की कोशिश करनी होगी. कैनेडी ने अन्य सांसदों को भी यह किताब भेज कर उसे पढ़ने की अपील की. जब वो राष्ट्रपति बने तो उन्होंने 1961 में विदेशी सहायता कानून बनाया जिसके तहत यूएसएड की स्थापना की गई.”
2024 तक यूएसएड के माध्यम से सहायता प्राप्त करने वाले देशों की संख्या 130 हो गई थी.
फ़ातिमा सुमर कहती हैं कि सबसे अधिक सहायता पाने वाले देशों में यूक्रेन, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो, अफ़ग़ानिस्तान, जॉर्डन, इथियोपिया, यमन और साउथ सूडान शामिल थे.
विश्व बैंक द्वारा कम आय वाले देश करार दिए गए 69 देशों को यूएसएड से सहायता मिलती रही है. अब यूएसएड सहायता एजेंसी के दफ़्तर बंद हो रहे हैं.
फ़ातिमा सुमर ने कहा कि यह घटनाक्रम तेज़ी से बदल रहा है.
“कई बड़े कॉन्ट्रैक्ट रद्द कर दिए गए हैं. अधिकांश कर्मचारियों को या तो छुट्टी पर भेज दिया गया है या नौकरी से निकाल दिया गया है. कई ठेकेदार जिन्होंने काम पूरे कर दिए हैं, उन्हें भी भुगतान नहीं किया गया है. इस एजेंसी को आर्थिक सहायता रोक दी गई है.”
फ़ातिमा सुमर कहती हैं कि अमेरिका में विकास कार्यक्रमों से जुड़ी लगभग 20 सहायता एजेंसियां हैं, लेकिन यूएसएड इनमें सबसे बड़ी संस्था है. कई अन्य सहायता एजेंसियों को भी या तो बंद किया जा रहा है या उनकी सहायता पर रोक लगा दी गई है. इन बदलावों को अदालतों में चुनौती दी गई है. 2023 में यूएसएड ने 40 अरब डॉलर अंतरराष्ट्रीय सहायता के लिए उपलब्ध कराए थे.
फ़ातिमा सुमर ने बताया कि राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा है कि अमेरिका का कर्ज़ 36 खरब डॉलर तक पहुंच गया है इसलिए वो यूएसएड और अन्य सहायता एजेंसियों को दिए जाने वाले धन पर रोक लगा रहे हैं.
उन्होंने कहा, “सच्चाई तो यह है कि अमेरिका अपने बजट का एक प्रतिशत से भी कम हिस्सा विदेशी सहायता पर खर्च करता है. लेकिन इस सहायता से दुनिया में बड़ा फ़र्क पड़ता है. यूएसएड को बंद करने के फ़ैसले से ग़रीबी उन्मूलन के प्रयासों पर बहुत बुरा असर होगा. इससे अमेरिका दुनिया का नेतृत्व छोड़ता दिख रहा है.”
दुनियाभर में चल रहे यूएसएड के कार्यक्रमों का क्या होगा?

इमेज स्रोत, Getty Images
अमेरिका का विदेशी भूमि पर लड़ा गया सबसे लंबा युद्ध अफ़ग़ानिस्तान में 2021 में अमेरिकी और नेटो की सेना की वापसी के साथ ख़त्म हो गया.
लंदन की सोएस यूनिवर्सिटी में ग्लोबल डेवलपमेंट के प्रोफ़ेसर माइकल जेनिंग्स कहते हैं कि दशकों से विकास के लिए अफ़ग़ानिस्तान को सबसे अधिक विकास संबंधी मानवीय सहायता अमेरिका से मिलती रही है.
उनके अनुसार यूएसएड अफ़ग़ानिस्तान में बड़ी संख्या में महिलाओं और बच्चों को आवश्यक दवाइयां और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराती रही है ताकि जन्म देने के दौरान महिलाओं और शिशुओं की मृत्यु दर कम की जा सके. साथ ही शिक्षा सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए भी वह काम करती रही है. लोकतंत्र और प्रशासन में मदद के लिए भी सहायता दी जाती रही है.
तालिबान के सत्ता में आने के बाद इस सहायता के स्वरूप में बदलाव भी हुए.
एचआईवी और एड्स की बीमारी को नियंत्रित करने के लिए भी अमेरिका दुनिया में सबसे अधिक सहायता देता रहा है.
माइकल जेनिंग्स कहते हैं कि यह योजना अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल मे बनाई गई थी जिससे बहुत फ़ायदा हुआ है. एचआईवी और एड्स के इलाज के लिए दी जाने वाली सहायता यूएसएड के माध्यम से दी जाती रही है.
माइकल जेनिंग्स ने कहा कि 55 देशों में ढाई करोड़ लोगों के इलाज के लिए सहायता दी जाती रही है जिसमें पांच लाख बच्चों का इलाज भी शामिल है.
वो कहते हैं, “इस सहायता के तहत तीन लाख स्वास्थ्यकर्मियों की तनख़्वाह भी दी गई है. इसकी वजह से इस बीमारी को रोकने में और इससे मरने वाले लोगों की संख्या कम करने में बड़ी मदद मिली है. एचआईवी नियंत्रण योजना यूएसएड की सबसे बड़ी सफलता रही है.”
जलवायु परिवर्तन से निपटने में यूएसएड की भूमिका

इमेज स्रोत, Getty Images
यूएसएड ने जलवायु परिवर्तन से निपटने में भी बड़ी भूमिका निभाई है.
माइकल जेनिंग्स कहते हैं कि अमेज़न के वर्षा वनों के संरक्षण के लिए यूएसएड ने आर्थिक सहायता दी है.
इसके अलावा डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो और इंडोनेशिया में वनसंरक्षण में मदद की गयी है. केवल इन तीन देशों में ही यूएसएड ने पांच करोड़ हेक्टेयर वर्षा वनों को बचाया है.
कई देशों मे रिन्यूएबल एनर्जी के इस्तेमाल को प्रोत्साहन देने के लिए भी इस संस्था ने बड़ी मदद की है. ऐसे में इस संस्था से संबंधित जो गतिविधियां हो रही हैं, उनका उन देशों पर क्या असर पड़ेगा जो इसकी सहायता पर निर्भर हैं?
माइकल जेनिंग्स कहते हैं कि यह कहना अभी मुश्किल है क्योंकि स्पष्ट नहीं है कि कौन सी योजनाएं बंद होंगी? इन फ़ैसलों पर अदालत के फ़ैसले का सम्मान किया जाएगा या नही? ऐसे में जो लोग इन योजनाओं पर काम कर रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि भविष्य में यह प्रोजेक्ट जारी रहेंगे या उन्हें यूएसएड की सहायता के विकल्प तलाशने शुरू कर देने चाहिए.
एचआईवी नियंत्रण से जुड़े प्रोजेक्ट, शिक्षा और महिला सशक्तिकरण के लिए चल रहे प्रोजेक्ट बंद कर दिए गए हैं. इन प्रोजेक्ट पर काम कर रहे लोगों को नौकरी से हटा दिया गया है.
“मिसाल के तौर पर इथियोपिया में स्वास्थ्यकर्मियों का प्रशिक्षण प्रोजेक्ट बंद कर दिया गया है. पोलियो वैक्सीन लगाने के अभियान बंद कर दिए गए हैं. पोलियो वैक्सीन अभियान में सबसे बड़ी सहायता अमेरिका देता रहा है. हम देख सकते हैं कि लाखों, करोड़ों लोगों पर यूएसएड से जुड़ी गतिविधियों का गंभीर असर होगा.”
माइकल जेनिंग्स मानते हैं कि एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देशों के लिए यह सबक है कि वो इन योजनाओं को जारी रखने के लिए सहायता देने वाले देशों पर निर्भर नहीं रह सकते. उन्हें अपने विकल्प खोजने होंगे.
अफ़्रीकी देशों को आत्मनिर्भर होने की ज़रूरत

इमेज स्रोत, Getty Images
फ़्रांसिस्का मूटापी यूके की एडिनबरा यूनिवर्सिटी में ग्लोबल हेल्थ और इम्यूनिटी की प्रोफ़ेसर हैं.
वो इस यूनिवर्सिटी के संक्रमण नियंत्रण प्रोजेक्ट की उपनिदेशक भी हैं, यह प्रोजेक्ट नौ अफ़्रीकी देशों में चलाया जा रहा है. फ़्रांसिस्का मूटापी का कहना है कि अफ़्रीकी देशों को अमेरिका के इस फ़ैसले का पहले से अंदेशा था.
“पिछले तीन सालों में अफ़्रीका को मानवीय सहायता और विकास के लिए मदद देने वाले जर्मनी और फ़्रांस जैसे प्रमुख देशों ने दूसरे देशों को दी जाने वाली सहायता का बजट घटा दिया है. इसलिए यह चौंकाने वाली बात नहीं है.”
इटली, स्विट्ज़रलैंड और नीदरलैंड ने भी अपने बजट में कटौती की है.
हाल में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य कार्यक्रम ने घोषणा की कि उसे सहायता देने वाले प्रमुख देशों और व्यक्तियों ने चंदा 40 प्रतिशत तक घटा दिया है. अब यूएसएड से मिलने वाली सहायता पर भी रोक लग गई है.
फ़्रांसिस्का मूटापी ने बताया कि कई अफ़्रीकी देशों में विदेशी सहायता पर आधारित योजनाओं में काम करने वाले हज़ारों स्वास्थ्यकर्मियों की तनख़्वाह बंद कर दी गई.
“इसका सबसे अच्छा उदाहरण नाइजीरिया है, जहां बीस हज़ार स्वास्थ्यकर्मियों की यूएसएड से आने वाली तनख़्वाह बंद हो गई. मगर जैसे ही वह घोषणा हुई, नाइजीरियाई सरकार ने अपने स्वास्थ्य बजट से उन लोगों को तनख़्वाह देने के लिए कदम उठाए.”
फ़्रांसिस्का मूटापी का कहना है कि अफ़्रीकी देश इस मामले में आत्मनिर्भर होने के लिए पहले से कदम उठा रहे हैं.

इमेज स्रोत, Getty Images
अफ़्रीकी देशों ने 2001 में अबूजा घोषणापत्र पर हस्ताक्षर कर के अपने स्वास्थ्य बजट के लिए सकल घरेलू उत्पाद का 15 प्रतिशत धन आवंटित करने की हामी भरी थी मगर उसके बीस साल बाद भी अधिकांश देश यह लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाए हैं.
स्वास्थ्य योजनाओं को लागू करने के लिए डेवलपमेंट फ़ाइनांस इंस्टीट्यूशन (डीएफआई) यानी विकास के लिए धन लगाने वाली संस्थाओं से मदद लेने पर भी विचार हो रहा है.
इसके लिए सरकार और उद्योगों के बीच भागीदारी को बढ़ावा देने के विकल्प को भी आज़माया जा रहा है. स्वास्थ्य योजनाओं के लिए धन इकठ्ठा करने का दूसरा ज़रिया टैक्स है. फ़्रांसिस्का मूटापी ने बताया कि 1999 में ज़िम्बाब्वे में एचआईवी के इलाज के लिए पैसा इकठ्ठा करने के लिए सामग्री और सेवाओं पर सरकारी टैक्स लगाना शुरू किया गया था.
उनका मानना है अपने देश में पैसे उगाहने से स्वास्थ्य कार्यक्रमों को अपनी ज़रूरत के अनुसार प्राथमिकता दी जा सकती है.
फ़्रांसिस्का मूटापी की राय है कि अगर विदेशों से सहायता किसी विशिष्ट बीमारी के नियंत्रण के लिए आ रही हो तो अफ़्रीकी देश उसका इस्तेमाल दूसरी स्थानीय बीमारियों के इलाज के लिए नहीं कर सकते.
अफ़्रीका के कई दूर-दराज़ के अस्पतालों में एचआईवी या टीबी की बीमारी के नियंत्रण के लिए अच्छी सुविधाएं हैं, लेकिन मलेरिया या कॉलरा जैसी स्थानीय बीमारियों के इलाज के लिए व्यवस्था की कमी है. इसीलिए इस क्षेत्र में अफ़्रीकी देशों का आत्मनिर्भर होना बहुत महत्वपूर्ण है ताकि वो अपनी स्वास्थ्य संबंधी प्राथमिकताएं खुद तय कर सकें और ज़रूरत के अनुसार योजनाओं को लागू कर सकें.
अब विकल्प क्या है?

इमेज स्रोत, Getty Images
अगर अमेरिका विदेशी सहायता से दामन छुड़ा रहा है तो उसकी जगह लेने और उस कमी को पूरा करने कौन सामने आ सकता है?
ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के ‘सेंटर फ़ॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ में वरिष्ठ शोधकर्ता और विकास संबंधी नीतियों के विशेषज्ञ जॉर्ज इंग्रम का मानना है कि अगर अमेरिका विदेशी सहायता से पीछे हटता है तो किसी एक देश के लिए उस कमी को पूरा करना मुश्किल होगा. मगर चीन इस मैदान में आगे आ सकता है.
उन्होंने कहा कि चीन कुछ देशों में सहायता के लिए आगे आ सकता है. जहां पहले अमेरिका बच्चों की शिक्षा के लिए सहायता देता रहा है, वहां पिछले कुछ हफ़्तों में चीन ने सहायता देना शुरू कर दिया है. मिसाल के तौर पर चीन ने कंबोडिया में सहायता देना शुरू कर दिया है.
चीन की सहायता एजेंसी ने कंबोडिया में बच्चो को पोषण के लिए प्रोजेक्ट शुरू कर दिए हैं.
जॉर्ज इंग्रम ने कहा, ” चीन सॉफ़्ट पावर और दूसरे देशों के विकास के लिए सहायता देने का महत्व जानता है. इससे उसके उन देशों के साथ संबंध अच्छे बनते हैं. अमेरिका भी यह लगभग 80 सालों से करता रहा है मगर उसके यह प्रयास अब कमज़ोर होने लगे हैं.”
“एक तरह से यह किसी फ़ुटबाल मैच जैसा है जिसमे अमेरिका कुछ दूरी तक गेंद ले गया और फिर मैदान चीन के हाथ में छोड़ कर चला गया. चीन अब वह कर सकता है जो वो हमेशा से करता रहा है. चीन को यह जगह पाने के लिए ख़ास कोशिश करने की ज़रूरत नहीं पड़ी है. रूस भी इस क्षेत्र में आगे आ सकता है लेकिन उसके पास संसाधनों की कमी है. मगर अफ़्रीका में रूस की जड़ें मज़बूत हैं और हो सकता है कई अफ़्रीकी देश रूस के नज़दीक चले जाएं.”
विदेशी सहायता मे अमेरिका के पीछे हटने के बाद क्या स्थिति बन सकती है, इसकी झलक इस साल मार्च मे दिखाई दी जब म्यांमार में भारी भूकंप से तीन हज़ार से अधिक लोग मारे गए.
वहां सहायता के लिए सबसे पहले आगे आने वाले देशों में रूस और चीन शामिल थे.
चीन ने मानवीय सहायता के लिए एक करोड़ चालीस लाख डॉलर की मदद देने की घोषणा की. राष्ट्रपति ट्रंप ने भी कहा कि अमेरिका मदद करेगा. लेकिन यूएसएड के बिना यह सहायता कैसी पहुंचाई जाएगी, यह स्पष्ट नहीं है.
जॉर्ज इंग्रम की राय है कि कई अंतरराष्ट्रीय ग़ैर सरकारी सहायता संस्थाओं के पास इतना धन नहीं है कि वो लंबे अरसे तक मानवीय सहायता और विकास से जुड़े प्रोजेक्ट को आर्थिक सहायता दे सकें. तो यूएसएड के साथ जो भी हो रहा है उससे भविष्य में इस क्षेत्र में अमेरिका की नीति के बारे में क्या पता चलता है?
इस बारे में जॉर्ज इंग्रम सोचते हैं कि विश्वभर में विदेशी सहायता के ढांचे में बड़े बदलाव आ रहे हैं. उन्होंने कहा, “आने वाले दस सालों में विकास के क्षेत्र में विदेशी सहायता की भूमिका कम हो जाएगी. विकासशील देश इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने का प्रयास करेंगे.”
जॉर्ज इंग्रम को उम्मीद है कि अमेरिकी संसद शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि उद्योग में विदेशों को सहायता देने के लिए दबाव डाल सकती है. लेकिन एक बात सच है कि इस क्षेत्र में अमेरिका की साख गिर गई है. तो अब लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर- यूएसएड की कमी को कैसे पूरा किया जा रहा है?
राष्ट्रपति ट्रंप के एग्ज़ीक्यूटिव ऑर्डर के ज़रिए यूएसएड की सहायता पर रोक लगने के कई महीने बाद भी इसके परिणाम की पूरी तस्वीर अभी साफ़ नही है. हां यह स्पष्ट है कि कोई भी देश या संस्था अकेले इस कमी को पूरा नहीं कर सकती. चीन भी कुछ हद तक ही इस कमी को पूरा कर सकता है. वहीं विदेशों को सहायता देने वाले दूसरे देश भी अपना बजट घटा रहे हैं. हालांकि सहायता पाने वाले कई देश आत्मनिर्भर बनने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उस मंज़िल तक पहुंचने में उन्हें समय लगेगा जबकि स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए लाखों लोगों को सहायता की ज़रूरत आज है.
SOURCE : BBC NEWS