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हर साल होने वाली हज यात्रा अब समापन की ओर बढ़ रही है. इस बीच मक्का का एक पुराना और शांत कोना, भारत से हज़ारों मील दूर यहां हलचल बढ़ा रहा है.
हालांकि, ऐसा किसी धार्मिक महत्व की वजह से नहीं हो रहा है, बल्कि ये एक 50 साल पुरानी संपत्ति से जुड़ा हुआ है.
विवाद के केंद्र में 19वीं सदी का गेस्ट हाउस केई रुबात है. इसे 1870 के दशक में मयंकुट्टी केई नाम के एक अमीर भारतीय कारोबारी ने बनवाया था. मयंकुट्टी केई केरल के रहने वाले थे. उनका कारोबार मुंबई से लेकर पेरिस तक फैला हुआ था.
ये गेस्ट हाउस इस्लाम के सबसे पवित्र स्थल मस्जिद अल-हरम के पास था, लेकिन साल 1971 में मक्का के विस्तार के दौरान इसे ढहा दिया गया था. सऊदी प्रशासन ने हर्जाने के तौर पर 14 लाख रियाल सरकारी ख़ज़ाने में जमा कर दिए.
ये आज के समय में 3 लाख 73 हज़ार अमेरिकी डॉलर के करीब धनराशि है. लेकिन उस समय इस गेस्ट हाउस के किसी वैध उत्तराधिकारी की पहचान नहीं हो सकी.
दशकों बाद ये रकम, जो आज भी सऊदी सरकार के ख़ज़ाने में है, वो केई परिवार के दो पक्षों के बीच झगड़े की वजह बन गई. दोनों पक्ष अपनी वंशावली साबित करके इस रकम पर अधिकार जताने की कोशिश कर रहे हैं.
अभी तक कोई भी पक्ष ये साबित करने में कामयाब नहीं हुआ है. दशकों तक भारत सरकार और केरल सरकारों ने इस गतिरोध को सुलझाने की कोशिश की, लेकिन उसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला.
संपत्ति पर अलग-अलग परिवारों के दावे

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ये भी स्पष्ट नहीं है कि सऊदी सरकार ये रकम देने को तैयार है या नहीं. परिवार के कुछ सदस्यों की अब ये मांग है कि राशि में महंगाई के हिसाब से बढ़ोतरी की जाए. इससे सऊदी के ख़ज़ाने में जमा राशि का वर्तमान मूल्य करीब एक अरब डॉलर से अधिक हो सकता है. जो इस मामले को और पेचीदा बना देती है.
मामले पर नज़र रखने वालों का ये कहना है कि ये संपत्ति वक्फ़ की थी. यानी वंशज इसकी देखरेख और संचालन तो कर सकते हैं लेकिन वो इस पर मालिकाना हक नहीं जता सकते.
वक्फ़ संपत्तियों का संचालन करने वाले सऊदी अरब के विभाग ने बीबीसी के सवालों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है और न ही सरकार ने इस मामले पर कोई सार्वजनिक बयान जारी किया है.
लेकिन इससे अटकलें भी नहीं थमी हैं, न तो उस रकम को लेकर, न इस सवाल पर कि आख़िर उस राशि का असल हक़दार कौन है.
गेस्ट हाउस के बारे में भी बहुत कम जानकारियां उपलब्ध हैं. लेकिन केई परिवार के वंशजों का दावा है कि ये मस्जिद अल-हरम से कुछ ही क़दमों की दूरी पर था, जिसमें 22 कमरे और कई बड़े हॉल थे और ये करीब डेढ़ एकड़ में फैला हुआ था.
परिवार में जो कहानियां चली आ रही हैं, उसके मुताबिक मयंकुट्टी केई ने ये गेस्ट हाउस बनवाने के लिए मालाबार (केरल) से लकड़ी मंगवाई थी और इसे चलाने के लिए भी वहीं से ही एक मैनेजर को भी नियुक्त किया था. ये उस समय के लिहाज़ से बड़ा कदम था, लेकिन उतना भी असामान्य नहीं था.
उस समय सऊदी अरब अपेक्षाकृत गरीब देश हुआ करता था.

इस्लाम में हज यात्रा और इस शहर के महत्व का मतलब यह था कि भारतीय मुसलमान अक़्सर भारतीय तीर्थयात्रियों के लिए पैसे दान करते थे या बुनियादी ढांचे का निर्माण करते थे.
इतिहासकार ज़ियाउद्दीन सरदार ने 2014 में प्रकाशित हुई अपनी किताब ‘मक्का: द सेक्रेड सिटी’ में लिखा है कि ’18वीं सदी के उत्तरार्ध (1750 से 1800 ईसा पूर्व का समय) में, शहर ने एक ख़ास तरीके का भारतीय स्वरूप अपना लिया था, जिसकी अर्थव्यवस्था और वित्तीय ख़ुशहाली भारतीय मुसलमानों पर निर्भर थी.’
सरदार लिखते हैं, “शहर की लगभग 20 फ़ीसद निवासी, सबसे बड़ी एकल बहुसंख्यक आबादी भारतीय मूल से थी. इसमें गुजरात, पंजाब, कश्मीर और दक्कन के लोग शामिल थे जिन्हें सामूहिक रूप से हिंदी के रूप में जाना जाता था.”
20वीं सदी में जब सऊदी अरब की तेल संपदा में उछाल आया, तो विकास परियोजनाओं ने मक्का को नया रूप दिया. केई रुबात को तीन बार ध्वस्त किया गया. आखिरी बार ऐसा 1970 के दशक की शुरुआत में हुआ था.
यही वह समय था जब मुआवजे़ को लेकर भ्रम की स्थिति शुरू हुई.
भारत के केंद्रीय वक़्फ़ परिषद के पूर्व सचिव बीएम जमाल के अनुसार, “जेद्दा में भारतीय वाणिज्य दूतावास ने उस समय सरकार को पत्र लिखकर मयंकुट्टी केई के क़ानूनी उत्तराधिकारी के बारे में जानकारी मांगी थी.”
जमाल ने कहा, “मेरी समझ से अधिकारी संपत्ति के लिए मैनेजर नियुक्त करने के लिए वंशजों की तलाश कर रहे थे, न कि मुआवजे के पैसे देने के लिए.”
फिर भी दो गुट आगे आए. पहला: केई-मयंकुट्टी का पैतृक परिवार और दूसरा: अरक्कल, केरल का एक शाही परिवार जिसमें उन्होंने शादी की थी.
दोनों परिवार पारंपरिक रूप से मां के परिवार की विरासत प्रणाली का पालन करते थे. एक प्रथा जिसे सऊदी क़ानून के तहत मान्यता नहीं दी गई थी, जिससे और जटिलता बढ़ गई.
इस सिस्टम में, व्यक्ति अपनी मां के परिवार के वंश से संबंधित होते हैं. यह वर्तमान में लोकप्रिय पिता की विरासत के पैटर्न के उलट है जिससे आमतौर पर एक परिवार का नाम जोड़ा जाता है.
केई का दावा है कि मयंकुट्टी निःसंतान मर गए, जिससे उनकी बहन के बच्चे मां के वंश की परंपरा के तहत उनके असली उत्तराधिकारी बन गए.
लेकिन अरक्कल का दावा है कि उनका एक बेटा और एक बेटी थी और इसलिए, भारतीय क़ानून के तहत, उनके बच्चे कानूनी उत्तराधिकारी होंगे.
धोखाधड़ी का सिलसिला

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इस विवाद के बढ़ने के साथ-साथ यह कहानी एक अलग मोड़ लेने लगी.
2011 में जब यह अफवाहें फैलने लगीं कि मुआवज़ा लाखों में हो सकता है, तो कन्नूर के एक ज़िले के ऑफ़िस में 2,500 से ज्यादा लोग पहुंचे. उन्होंने दावा किया कि वे केई के वंशज हैं.
केई परिवार के एक वरिष्ठ सदस्य नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर बीबीसी से कहते हैं, “कुछ लोगों ने दावा किया कि उनके पूर्वजों ने मयंकुट्टी को बचपन में पढ़ाया था. वहीं, कुछ और लोग कहते थे कि उनके पूर्वजों ने गेस्ट हाउस के लिए लकड़ी मुहैया कराई थी.”
इसके बाद धोखाधड़ी का सिलसिला शुरू हुआ. राज्य अधिकारियों के अनुसार, 2017 में कुछ ठगों ने केई के वंशज बनकर स्थानीय लोगों से पैसे लिए और मुआवजे़ का हिस्सा देने का वादा किया.
आज भी यह मामला अनसुलझा है.
कुछ वंशजों का मानना है कि इस विवाद को ख़त्म करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि सऊदी सरकार मुआवजे़ की राशि का इस्तेमाल हज तीर्थयात्रियों के लिए एक और गेस्ट हाउस बनाने में करे, जैसा कि मयंकुट्टी केई ने सोचा था.
लेकिन कुछ लोग इसका विरोध करते हैं. उनका कहना है कि गेस्ट हाउस निजी संपत्ति थी, इसलिए मुआवज़े पर पूरी तरह से परिवार का हक़ है.
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि अगर परिवार मयंकुट्टी केई के वंशज होने का प्रमाण भी दे देता है, तो भी बिना मालिकाना दस्तावेज़ के उन्हें कुछ हासिल होने की संभावना नहीं है.
कन्नूर के निवासी मोहम्मद शिहाद ने केई और अरक्कल परिवारों के इतिहास पर एक किताब लिखी है.
उनका कहना है कि यह विवाद सिर्फ पैसे का नहीं है, बल्कि परिवारों के सम्मान का मामला भी है.
मोहम्मद शिहाद कहते हैं, “अगर उन्हें मुआवज़ा नहीं मिलता, तो कम से कम इस परिवार और क्षेत्र के जुड़ाव को खुले तौर पर मान्यता देना महत्वपूर्ण होगा.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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