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केंद्र सरकार देश में अगली जनगणना में जातियों की भी गिनती करेगी.
बुधवार को केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने राजनीतिक मामलों पर कैबिनेट कमेटी की बैठक में लिए गए सरकार के इस फ़ैसले की जानकारी देते हुए बताया कि जातियों की गिनती जनगणना के साथ की जाएगी.
वैष्णव ने कहा कि जनगणना केंद्र का विषय है और अब तक कुछ राज्यों में किए गए जातिगत सर्वे पारदर्शी नहीं थे.
सवाल ये है कि अब तक जातिगत जनगणना से कतरा रही मोदी सरकार, इसके लिए राज़ी क्यों हो गई है?
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अचानक जाति जनगणना का फ़ैसला क्यों?

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कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल समेत कई विपक्षी दल लगातार देश में जाति जनगणना की मांग करते रहे हैं.
पिछल महीने गुजरात में कांग्रेस के दो दिवसीय सम्मेलन में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जाति जनगणना का मुद्दा उठाते हुए कहा था, “ये सबको पता होना चाहिए देश में कितने दलित, पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यक और ग़रीब सामान्य वर्ग के लोग हैं. तभी पता चलेगा कि देश के संसाधनों में उनकी कितनी हिस्सेदारी है.”
हालांकि जनगणना में दलितों और आदिवासियों की गणना होती है.
जातियों की गिनती कराने के मोदी सरकार के फ़ैसले के बाद राष्ट्रीय जनता दल के नेता और बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा, “विपक्षी दलों की मांग के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने जाति जनगणना से इनकार कर दिया था.”
उन्होंने कहा, ”पार्लियामेंट में मोदी सरकार के मंत्री इससे इनकार कर रहे थे लेकिन सरकार को अब हमारी बात माननी पड़ी है. जब नतीजे आएंगे तो हमारी मांग होगी कि पूरे देश के विधानसभा चुनावों में पिछड़े और अति पिछड़ों के लिए भी सीटें आरक्षित की जाएं. जितनी आबादी है उतनी भागीदारी होनी चाहिए.अब हमारी अगली लड़ाई यही होगी.”
उन्होंने कहा, “हमने संसद में कहा था कि हम जातिगत जनगणना करवा के ही मानेंगे, साथ ही आरक्षण में 50 फ़ीसदी सीमा की दीवार को भी तोड़ देंगे.”
उन्होंने कहा, “पहले तो नरेंद्र मोदी कहते थे कि सिर्फ चार जातियां हैं, लेकिन अचानक से उन्होंने जातिगत जनगणना कराने की घोषणा कर दी. हम सरकार के इस फैसले का पूरा समर्थन करते हैं, लेकिन सरकार को इसकी टाइमलाइन बतानी होगी कि जातिगत जनगणना का काम कब तक पूरा होगा?”
इस बीच, राजनीतिक हलकों में ये सवाल पूछा जा रहा है कि जिस मोदी सरकार ने जाति जनगणना से इनकार कर दिया था उसके सामने ऐसी क्या मजबूरी आ गई कि वो जनगणना में जातियों की गिनती कराने के लिए राजी हो गई.
इस सवाल पर राजनीतिक विश्लेषक डीएम दिवाकर ने बीबीसी से कहा, ”मोदी सरकार ने जब जाति जनगणना से इनकार किया तो महागठबंधन (विपक्ष) ने इसे पूरे देश में मुद्दा बना दिया.”
“इस बीच बिहार और कर्नाटक ने अपने-अपने तरीके से जो जाति सर्वे कराया और उससे पता चल गया कि पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों की कितनी आबादी है और उस हिसाब से राजनीति में उनकी कितनी हिस्सेदारी बन सकती है.अब मजबूरी में मोदी सरकार को जाति जनगणना कराने का फ़ैसला लेना पड़ा है.”
क्या बिहार में चुनावी लाभ लेना है मक़सद?

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भारत में 1931 में जाति जनगणना हुई थी उसके बाद देश में होने वाली जनगणनाओं में जातियों की गिनती नहीं की गई.
जनगणना में दलितों और आदिवासियों की संख्या तो गिनी जाती है और उन्हें राजनीतिक आरक्षण भी मिला हुआ है.
लेकिन पिछड़ी और अति पिछड़ी (ओबीसी और ईबीसी) जातियों के कितने लोग देश में हैं इसकी गिनती नहीं होती है.
विश्लेषकों का कहना है कि राजनीतिक दल इन समुदायों का समर्थन हासिल करने के लिए जाति जनगणना का समर्थन कर रहे हैं.
उनका कहना है कि ये समझ से परे था कि बीजेपी अब तक जाति जनगणना से क्यों कतरा रही थी जबकि ये माना जा रहा है कि पार्टी ने उत्तर प्रदेश समेत तमाम राज्यों में पिछड़ी जातियों और दलितों की गोलबंदी कर सत्ता का सफर आसान बनाया है.
कहा जा रहा है कि बीजेपी इन समुदायों के वोट तो ले रही है लेकिन उनकी संख्या नहीं बताना चाहती है.
क्योंकि ऐसा करते ही पता चल जाएगा कि राजनीति और ब्यूरोक्रेसी में पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी कितनी कम है.
तो सवाल ये है कि क्या बीजेपी का ये डर ख़त्म हो गया है. या फिर उसने बिहार (जहां इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं) में चुनावी लाभ लेने के लिए ये क़दम उठाया है.

क्या बीजेपी को जाति जनगणना कराने का फ़ायदा बिहार के चुनाव में मिल सकता है?
बीबीसी के इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शरद गुप्ता ने कहा, ” बीजेपी इसके ख़िलाफ़ थी. उसने जातिगत जनगणना को देश को बांटने की कोशिश करने वाला बताया था. लेकिन एनडीए में शामिल बीजेपी की ज्यादातर सहयोगी पार्टियां इसके पक्ष में हैं. बिहार में अब बीजेपी की सहयोगी जनता दल यूनाइटेड और आरजेडी के साथ रहते साल 2023 में जाति सर्वे हो चुका है. कर्नाटक में कांग्रेस सरकार ने भी सर्वे कराया है.”
जेडीयू और एलजेपी (रामविलास) ने भी जाति आधारित जनगणना की मांग की है. संसद की ओबीसी कल्याण समिति में जेडीयू ने इस बात को उठाया था.
उस समय बीजेपी ने न तो खुले तौर पर जाति आधारित जनगणना का विरोध किया था और न ही उस पर कोई टिप्पणी की थी.
शरद गुप्ता कहते हैं, ”सहयोगी दल और विपक्ष दोनों का दबाव रहा है सरकार पर. सरकार ने देखा कि जब कई राज्य जाति सर्वे करा चुके हैं तो वो भी जातियों का गिनती करा सकती है. मजेदार तो ये है कि यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार ने कहा था कि वो जाति जनगणना नहीं कराएगी. लेकिन अब जब केंद्र सरकार ही इसके लिए मान गई है तो वो क्या करेंगे.”
शरद गुप्ता का मानना है कि जातिगत जनगणना के आंकड़े 2026 या 2027 के अंत में आएंगे और तब तक बिहार और यूपी के चुनाव हो चुके होंगे. इसलिए इसका चुनावी लाभ लेने की बात सही नहीं है.
उन्होंने कहा, ”बीजेपी ने हाल के वर्षों में पिछड़ों और दलितों समुदाय को अपने साथ जोड़ने में कामयाबी हासिल की है. बीजेपी इस जातिगत गणना से ये भी दिखाना चाहती है कि पिछड़ों के एक-आध समुदाय को छोड़ दें तो ओबीसी समुदाय का बड़ा हिस्सा उसके साथ है. ये ओबीसी समुदाय की गोलबंदी की उसकी कोशिशों पर स्वीकृति की मुहर होगी. ”
क्या संघ के इशारे पर हुआ ये फ़ैसला

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जाति जनगणना को लेकर मोदी सरकार के रुख़ में ये बदलाव क्यों?
बीबीसी ने जब वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अदिति फडणीस से इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, ”दरअसल मोदी सरकार के अंदर ये बदलाव जाति जनगणना को लेकर आरएसएस का नज़रिया सामने आने के बाद हुआ है.”
“2024 सितंबर में आरएसएस की एक बैठक के बाद कहा गया कि जाति जनगणना को लेकर उसे कोई आपत्ति नहीं है लेकिन इसका राजनीतिक फ़ायदा नहीं लिया जाना चाहिए. हालांकि निश्चित तौर पर राजनीतिक दल इसका फ़ायदा उठाना चाहते हैं.”

उन्होंने कहा था कि इसका इस्तेमाल पिछड़ रहे समुदाय और जातियों के कल्याण के लिए होना चाहिए.
साथ ही उन्होंने कहा था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उप वर्गीकरण की दिशा में बिना किसी सर्वसम्मति के कोई क़दम नहीं उठाया जाना चाहिए.
आरएसएस का बयान ऐसे समय में आया था, जब विपक्षी इंडिया गठबंधन जाति आधारित जनगणना को जोर-शोर से मुद्दा बनाए हुए था.
आज़ादी के बाद जाति जनगणना क्यों नहीं हुई?

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भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना करने की शुरुआत साल 1872 में की गई थी. अंग्रेज़ों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज़ किया गया.
आज़ादी हासिल करने के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया.
तब से लेकर भारत सरकार ने एक नीतिगत फ़ैसले के तहत जातिगत जनगणना से परहेज किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मसले से जुड़े मामलों में दोहराया कि क़ानून के हिसाब से जातिगत जनगणना नहीं की जा सकती, क्योंकि संविधान जनसंख्या को मानता है, जाति या धर्म को नहीं.
हालात तब बदले जब 1980 के दशक में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ जिनकी राजनीति जाति पर आधारित थी.
इन दलों ने राजनीति में तथाकथित ऊंची जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने के साथ-साथ तथाकथित निचली जातियों को सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण दिए जाने को लेकर अभियान शुरू किया.
साल 1979 में भारत सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया था.
मंडल कमीशन ने ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफ़ारिश की. लेकिन इस सिफ़ारिश को 1990 में ही जाकर लागू किया जा सका. इसके बाद देश भर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किए.
चूंकि जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ चुका था, इसलिए समय-समय पर राजनीतिक दल इसकी मांग उठाने लग गए.
आख़िरकार साल 2010 में जब एक बड़ी संख्या में सांसदों ने जातिगत जनगणना की मांग की, तो तत्कालीन कांग्रेस सरकार को इसके लिए राज़ी होना पड़ा.
2011 में सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना करवाई तो गई, लेकिन इस प्रक्रिया में हासिल किए गए जाति से जुड़े आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए.
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