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फ़ातिमा जिन्ना

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पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) हो या पश्चिमी पाकिस्तान, पूरा देश फ़ातिमा जिन्ना का दीवाना हुआ करता था.

यह साल 1964 का था और 71 साल की फ़ातिमा जिन्ना राष्ट्रीय चुनाव में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के ख़िलाफ़ संयुक्त विपक्ष की उम्मीदवार बन चुकी थीं और ज़ोर-शोर से अपना चुनावी अभियान चला रही थीं.

इस चुनावी मुहिम की गहमागहमी के बारे में 30 अक्टूबर 1964 को छपी अपनी एक रिपोर्ट में ‘टाइम’ मैगज़ीन ने लिखा कि ढाका में लगभग ढाई लाख लोग उन्हें देखने आए थे.

टाइम मैगज़ीन ने लिखा था, “लगभग दस लाख लोगों ने ढाका से चटगांव तक के 293 मील लंबे रास्ते में खड़े होकर उनका (फ़ातिमा जिन्ना) स्वागत किया. उनकी ट्रेन (जिसे फ़्रीडम स्पेशल का नाम दिया गया था) 22 घंटे की देर से अपनी मंज़िल पर पहुंची क्योंकि हर स्टेशन पर लोग चेन पुलिंग करते और उनसे भाषण देने को कहते.”

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इसी तरह ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ की 8 नवंबर 1964 की इस ख़बर के अनुसार, पाकिस्तान (पूर्वी और पश्चिम) में फ़ातिमा जिन्ना अपने सफ़ेद लिबास में और रौबदार चेहरे के साथ सबके लिए एक जाना पहचाना व्यक्तित्व था.

इस खबर में बताया गया, “वह ऊपरी तौर पर अलग-थलग और लगभग मग़रूर लगती थीं लेकिन उनकी मुस्कुराहट ऐसी गर्मजोशी और प्यार जगाती है जिसके सामने कोई भी बेबस हो जाता है.”

“अंग्रेज़ी में उन्हें सुनने वालों के लिए समझना लगभग नामुमकिन होता था लेकिन वो उनके हर लफ़्ज़ को ध्यान से सुनते हैं. उनके हर बयान के बाद होने वाला अनुवाद नारों और तालियों की गूंज में दब जाता है.”

‘मादर-ए-मिल्लत’ (राष्ट्रमाता) के नारे लगाती भीड़ से जब वह पूछतीं कि ‘क्या आप मेरे साथ हैं’, तो हज़ारों हाथ हामी भरने के लिए पूरे जोश में हवा में लहराने लगते.

अयूब ख़ान को नहीं थी संयुक्त उम्मीदवार की नहीं उम्मीद

अय्यूब ख़ान

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शाहिद रशीद अपनी किताब ‘मादर-ए-मिल्लत, मोहसिना-ए-मिल्लत’ में लिखते हैं, “वह सत्ता हासिल करने की इच्छा से दूर थीं. लेकिन संविधान निर्माण और जनता के अधिकार में उनकी दिलचस्पी थी. सत्ता से अलग रहने के बावजूद वह समय-समय पर तत्कालीन नेतृत्व को उनकी ग़लतियां के बारे में बताती रहतीं.

“जो लोग लोकतंत्र के नाम पर जनता के अधिकारों का हनन कर रहे थे, मादर-ए-मिल्लत ने उनकी तीखी आलोचना की और जब देश तानाशाही के चंगुल में फंस गया तो वह उसके नतीजों के बारे में आम लोगों को बताती रहीं.”

राजनेता नवाबज़ादा नसरुल्लाह ख़ान अज़हर मुनीर की किताब ‘मादर-ए-मिल्लत का जम्हूरी सफ़र’ की भूमिका में लिखते हैं, “उन्होंने अयूब ख़ान के मार्शल लॉ और उनकी तानाशाही का भी भरपूर विरोध किया. यहां तक कि वह अपने बुढ़ापे में भी तानाशाह शासक के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गईं.”

नवाबज़ादा नसरुल्लाह ख़ान ने इस बारे में एक घटना का ज़िक्र करते हुए लिखा, “एक बार मैंने फ़ातिमा जिन्ना से कहा कि हमारे बचने के बावजूद पत्रकार हमारा पीछा करते हुए फ़्लैग स्टाफ हाउस (फ़ातिमा जिन्ना का आवास) पहुंच चुके हैं.”

“अगर हम यहां से बाहर निकल कर उन्हें कुछ न बता सके तो कल प्रेस में इस तरह की ख़बरें छपेंगी कि मोहतरमा ने कंबाइंड अपोज़ीशन के प्रस्ताव को क़बूल नहीं किया. इससे जनता को बहुत मायूसी होगी और अयूब ख़ान को अपनी मुहिम में फ़ायदा पहुंचेगा.”

“मोहतरमा ने मेहरबानी करते हुए हमारी पेशकश क़बूल कर ली. उसी वक़्त प्रेस के प्रतिनिधियों को फ़ैसले के बारे में बता दिया गया.”

फ़ातिमा जिन्ना

‘टाइम’ के अनुसार, “अयूब को उम्मीद नहीं थी कि विपक्षी दलों का गठबंधन, जो ख़ुफ़िया कम्यूनिस्टों से लेकर दक्षिणपंथी मुसलमानों तक फैला हुआ था, एक उम्मीदवार पर एकजुट हो जाएगा.”

नवाबज़ादा नसरुल्लाह विपक्ष की इन गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे.

वह वकील अंजुम की किताब ‘शमा-ए-जम्हूरियत’ की प्रस्तावना में लिखते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा होने पर अयूब ख़ान के क़ानून मंत्री ने दावा किया कि विपक्ष उनके ख़िलाफ़ अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा कर सकेगा.

“विपक्ष के पांच दलों ने कंबाइंड अपोज़ीशन के नाम से राजनीतिक गठबंधन किया. इसकी बैठक में मुस्लिम लीग (काउंसिल) के अध्यक्ष ख़्वाजा निज़ामुद्दीन, निज़ाम-ए-इस्लाम पार्टी के अध्यक्ष चौधरी मोहम्मद अली, नेशनल आवामी पार्टी के अध्यक्ष मौलाना अब्दुल हमीद भाशानी और मियां मोहम्मद अली क़सूरी, अवामी लीग की ओर से मैं और शेख़ मुजीबुर्रहमान और जमात-ए-इस्लामी से चौधरी रहमत इलाही शामिल हुए.”

बाद में मौलाना अबुल आला मौदूदी ने जमात-ए-इस्लामी का प्रतिनिधित्व किया. वह पहली बैठक के समय जेल में थे.

मोहम्मद अली जिन्ना की बहन

फातिमा जिन्ना

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नवाबज़ादा नसरुल्लाह के अनुसार हालांकि पहली बैठक में किसी उम्मीदवार के नाम पर विचार नहीं किया गया लेकिन अक्सर नेताओं के मन में दो ही नाम थे: एक मोहतरमा फ़ातिमा जिन्ना का और दूसरा पूर्वी पाकिस्तान के गवर्नर आज़म ख़ान का.

इसकी जानकारी देने के बाद कि सभी नेता कैसे फ़ातिमा जिन्ना को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने के फ़ैसले पर पहुंचे और कैसे वह दो दिन की मोहलत लेने के बाद इस पर राज़ी हुईं, नवाबज़ादा नसरुल्लाह ने लिखा, ‘फ़ैसले ने पूरे देश में बेमिसाल जज़्बा और जोश पैदा कर दिया.’

फ़ातिमा जिन्ना की ज़ोर पकड़ती चुनावी मुहिम को नुक़सान पहुंचाने के लिए अचानक ऐलान किया गया कि चुनाव 2 जनवरी को होंगे, न कि मार्च में जैसा कि पहले तय किया गया था.

एक दिसंबर 1964 को ‘जंग’ अख़बार में छपने वाली एक ख़बर के अनुसार, चुनाव आयोग ने इसके बारे में एक ही दिन में तीन नोटिफ़िकेशन जारी किए जिनमें राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के नाम, उनके चुनाव चिह्न और दो जनवरी को मतदान की घोषणा की गई.

अयूब ख़ान का चुनाव निशान फूल था जबकि फ़ातिमा जिन्ना का लालटेन.

नवाबज़ादा नसरुल्लाह लिखते हैं, “वह जहां भी गईं, बच्चे, जवान, बूढ़े, मर्द और औरतें उनका चुनाव चिन्ह ‘लालटेन’ हाथों में लेकर उनके स्वागत के लिए सड़कों पर मौजूद होती थीं.”

“पूर्वी पाकिस्तान के दौरे में मोहतरमा ने ढाका से चटगांव का ट्रेन से सफ़र शेड्यूल से तीन गुना ज़्यादा वक़्त में मुश्किल से तय किया क्योंकि लाखों लोग हर स्टेशन पर ज़िद करते थे कि मोहतरमा उन्हें संबोधित करें. लोग उनके भाषण की अपनी मांग मनवाने के लिए ट्रेन के आगे लेट जाते थे.”

‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने लिखा कि फ़ातिमा जिन्ना का चुनाव बुनियादी तौर पर इसलिए किया गया था क्योंकि वह पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की बहन और उनसे बहुत क़रीब थीं.

अयूब ख़ान की तीखी आलोचक

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‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के अनुसार, “पूरे देश में छात्रों ने सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किए. अधिकतर क़ानूनी संगठन फ़ातिमा जिन्ना के समर्थन में आ गए जिन्हें अयूब ने ‘शरारती’ कह कर ख़ारिज कर दिया.”

“आमतौर पर सरकार की हां में हां मिलाने वाले अख़बारों के संपादकों ने नए कठोर प्रेस क़ानून को मानने से इनकार कर दिया. अय्यूब के इस दावे पर कि वह ‘बुनियादी लोकतंत्र’ को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं, फ़ातिमा जिन्ना ने पूछा, यह किस तरह की जम्हूरियत है? एक शख़्स की जम्हूरियत? पचास लोगों की जम्हूरियत?”

अख़बार ने आगे लिखा, “सबसे बढ़कर वह अयूब पर तानाशाह होने का आरोप लगातीं हैं… पश्चिम के मानकों से देखा जाए तो अयूब वाक़ई तानाशाह हैं. वह प्रेस को कंट्रोल करते हैं और बहुत से विरोधियों को क़ैद कर चुके हैं.”

अयूब ने उनके बारे में कहा कि वह ‘बूढ़ी, एक कोने में रहने वाली और कमज़ोर दिमाग़ महिला’ हैं. अयूब कहते थे कि अगर फ़ातिमा चुनी गईं तो अफ़रातफ़री मचेगी.

दूसरी ओर, उनके विरोधी साफ़ तौर पर कहते हैं कि आप ज़बर्दस्ती और डंडे से स्थिरता हासिल नहीं कर सकते.

डॉक्टर रूबीना सहगल के रिसर्च पेपर ‘फ़ेमिनिज्म ऐंड द वीमेंस मूवमेंट इन पाकिस्तान’ और उस समय के अख़बारों के अनुसार, अयूब ख़ान ने इस चुनावी मुहिम के दौरान फ़ातिमा जिन्ना को ‘स्त्रीत्व और ममता से ख़ाली’ महिला बताया था.

उस दौर के सूचना सचिव अल्ताफ़ गौहर ने अपनी किताब ‘फ़ौजी राज के पहले 10 साल’ में लिखा कि अयूब ख़ान ने लाहौर में एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस से बात करते हुए मिस जिन्ना के अविवाहित होने के बारे में उन पर ‘प्रकृति विरोधी’ जीवन बसर करने का आरोप लगाते हुए कहा कि वह “बुरी आदतों वाले लोगों से घिरी हुई हैं.”

अहसन अली बाजवा के ‘मादर-ए-मिल्लत, फ़ख़्र-ए-मिल्लत’ के नाम से छपे शोध में अयूब सरकार ने किसी महिला के देश के राष्ट्राध्यक्ष होने के ख़िलाफ़ फ़तवे भी जारी करवाए और इसी के जवाब में कराची में मौलाना मौदूदी ने कहा था कि मर्द से राष्ट्र को फ़ायदा न पहुंच रहा हो तो महिला राष्ट्राध्यक्ष बन सकती है.

इस दौर में मौलाना मौदूदी का एक जुमला सभी की ज़बान पर रहता था और वह यह था, “अयूब ख़ान में इसके सिवा कोई ख़ूबी नहीं कि वह मर्द हैं और फ़ातिमा जिन्ना में इसके सिवा कोई कमी नहीं कि वह औरत हैं.”

दारुल इफ़्ता, दारुल उलूम कराची के मौलाना मुफ़्ती मोहम्मद शफ़ी की मुहर से फ़तवा जारी किया गया कि लोकतांत्रिक देश में महिला राष्ट्रपति बन सकती है. शुरुआत में विरोध के बाद जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम ने भी फ़ातिमा जिन्ना के समर्थन का ऐलान कर दिया.

ख़्वाजा नाज़िमुद्दीन को चुनावी थकान की वजह से 22 अक्टूबर को दिल का दौरा पड़ा और अगले दिन उनकी मौत हो गई. उनकी मौत से विपक्ष को बहुत धक्का लगा और फ़ातिमा जिन्ना ने इसे एक ट्रेजडी बताया.

‘लोकतंत्र हारा और तानाशाही जीती’

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जब चुनाव मुहिम ज़ोरों पर था तो मौलाना भाशानी अपनी पार्टी समेत फ़ातिमा जिन्ना के समर्थन से अलग हो गए. बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना वाजिद ने उस दौर में दावा किया था कि मौलाना भाशानी की ‘ग़द्दारी’ से बिहारियों के वोट मोहतरमा फ़ातिमा जिन्ना को न मिले.

उन्होंने यह आरोप भी लगाया था कि मौलाना भाशानी ने अयूब ख़ान से 40 लाख रुपये ले लिए थे.

पत्रकार और ऐंकर हामिद मीर ने अब्दुल्लाह मलिक की किताब ‘दास्तान-ए-ख़ानवादा मियां मोहम्मद अली क़सूरी’ के हवाले से अपने एक कॉलम में लिखा है कि मौलाना भाशानी ने 40 लाख रुपए के बदले मादर-ए-मिल्लत मोहतरमा जिन्ना का सौदा कर लिया.

पूर्वी पाकिस्तान में शेख़ मुजीब फ़ातिमा जिन्ना के पोलिंग एजेंट थे.

हामिद मीर लिखते हैं, “मादर-ए-मिल्लत पूर्वी पाकिस्तान से बहुमत हासिल कर लेतीं और इलेक्शन जीत जातीं तो शायद पाकिस्तान ना टूटता. अय्यूब ख़ान ने इलेक्शन जीत कर पाकिस्तान को हरवा दिया.”

जब अयूब ख़ान ने अपनी जीत की ख़बर सुनी तो कहा, “ख़ुदा का शुक्र है! मुल्क बच गया.”

फ़ातिमा जिन्ना ने चुनाव के नतीजे आने के बाद कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि इस चुनाव में धांधली की गई.

इसी ओर इशारा करते हुए पाकिस्तान के शायर हबीब जालिब ने शेर लिखा था-

धांधली, धौंस, धन से जीत गया

ज़ुल्म फिर मक्र व फ़न से जीत गया

‘जालिब के शेर ने मुल्क़ में तहलका मचा दिया’

नवाबज़ादा नसरुल्लाह लिखते हैं, “अगर पश्चिमी पाकिस्तान में सरकारी मशीनरी खुली धांधली न करती और पश्चिमी पाकिस्तान में बीडी सदस्य (राष्ट्रपति चुनाव में वोट देने वाले सदस्य) को व्यापक स्तर पर ख़रीदा न जाता तो निश्चित रूप से इस चुनाव में अयूब ख़ान की हार होती. और अगर वयस्क मताधिकार की बुनियाद पर सीधा चुनाव होता तो अयूब ख़ान की ज़मानत ज़ब्त हो जाती.”

वकील अंजुम के अनुसार जो लोग अयूब ख़ान के हाथ मज़बूत करने वाले थे बाद में वह ‘जम्हूरियत के चैंपियन’ कहलाए और उन्होंने अयूब ख़ान को आजीवन राष्ट्रपति बनाने का अनुरोध भी किया.

वकील अंजुम ने लिखा है, “ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो और सिंध की अहम धार्मिक गद्दी के प्रमुख मख़दूम सैयद ज़मां तालिब अल मौला ने भी खुलकर अयूब ख़ान के समर्थन में अभियान चलाया.”

बलूचिस्तान के अक्सर सरदार अयूब ख़ान के साथ थे और वहां से मादर-ए-मिल्लत को बहुत कम वोट मिले.

दक्षिणी पंजाब में मुल्तान डिवीज़न में फ़ातिमा जिन्ना को खूब समर्थन मिला.

फ़ातिमा जिन्ना

जब भारतीय राजदूत से मुलाक़ात बन गया मुद्दा

फ़ातिमा जिन्ना

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मुस्तफ़ा मलिक ने अपने एक शोधपरक लेख ‘कौन कहां खड़ा था’ में विस्तार से बताया है कि कौन राजनेता, धार्मिक नेता और शायर किसकी तरफ़ थे.

उनके अनुसार गवर्नर आमिर मोहम्मद ख़ान केवल कुछ लोगों से परेशान थे. उनमें सबसे ऊपर सैयद अबुल आला मौदूदी, शौकत हयात, ख़्वाजा सफ़दर, चौधरी हसन और ख़्वाजा रफ़ीक़ शामिल थे जो आख़िरी वक़्त तक फ़ातिमा जिन्ना के साथ रहे.

“फ़ातिमा जिन्ना पर पाकिस्तान को तोड़ने का आरोप भी लगा. यह आरोप पत्रकार ज़ेड ए सुलहरी ने अपनी एक रिपोर्ट में लगाया जिसमें मिस जिन्ना की भारतीय राजदूत से मुलाक़ात का हवाला दिया गया था. यह अख़बार हर चुनावी सभा में लहराया गया. अयूब इसको लहरा लहरा कर मिस जिन्ना को ग़द्दार कहते रहे.”

पूर्व आईजी हाफ़िज सबाहुद्दीन जामी ने अपनी किताब ‘पुलिस, क्राइम ऐंड पॉलिटिक्स’ में राष्ट्रपति चुनाव में फ़ातिमा जिन्ना के ख़िलाफ़ कराची पुलिस के खुल्लम-खुल्ला हस्तक्षेप का हाल लिखा है.

इसके बावजूद कराची से फ़ातिमा जिन्ना को 1046 और अय्यूब को 837 वोट मिले. ढाका से फ़ातिमा जिन्ना को 353 और अय्यूब को 199 वोट मिले.

जामी के अनुसार, “मगर कोई जादुई छड़ी चली और अयूब ख़ान 67 फ़ीसद वोट लेकर जीत गए. कराची वालों को फ़ातिमा जिन्ना और लोकतंत्र का समर्थक होने की सज़ा दी गई.”

15 जनवरी 1965 के अपने अंक में ‘टाइम’ ने लिखा, “पिछले हफ़्ते कराची में एक लंबा मोटरकेड राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब ख़ान के चुनाव जीतने की ख़ुशी में गलियों से गुज़रा. जब यह लंबा क़ाफ़िला लियाक़ताबाद के इलाक़े से गुज़रा तो तनाव बढ़ गया जहां अधिकतर भारत से आए हुए मुसलमान थे और जिन्होंने फ़ातिमा जिन्ना का भरपूर समर्थन किया था.”

“लोग ट्रकों से उतरकर राहगीरों पर हमला करने लगे, दुकानों को लूट लिया और घरों को आग लगा दी. जब तक यह हंगामा खत्म हुआ 33 लोग मारे जा चुके थे और 300 लोग ज़ख़्मी और 2000 से अधिक लोग बेघर हो चुके थे.”

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने इस पर लिखा:

न मुद्दई, न शहादत, हिसाब पाक हुआ

यह ख़ून-ए-ख़ाक नशीनां था, रिज़्क़-ए-ख़ाक हुआ

(न कोई मुद्दई, न कोई गवाह, न कोई हिसाब हुआ, यह मिट्टी से लिपटे कमज़ोरों का ख़ून था, मिट्टी से जा मिला।)

अपने समर्थकों के क़त्ल-ए-आम पर फ़ातिमा जिन्ना ने कहा कि सभ्य दुनिया में कहीं भी ऐसी वहशियाना हरकत की इजाज़त नहीं दी जा सकती.

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SOURCE : BBC NEWS