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बुधवार 21 मई को अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद को सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम ज़मानत तो दे दी लेकिन कहा है कि उनके मामले की जाँच जारी रहेगी. कोर्ट ने जाँच के लिए एक स्पेशल इंवेस्टीगेशन टीम (एसआईटी) गठित करने के लिए भी कहा है.
यही नहीं, कोर्ट ने उनका पासपोर्ट भी ज़ब्त करने के लिए कहा है. साथ ही, उन्हें भारत-पाकिस्तान संघर्ष के बारे में कुछ भी कहने से मना किया है.
भारत-पाकिस्तान संघर्ष पर प्रोफ़ेसर अली ख़ान ने सोशल मीडिया पोस्ट किया था, जिसपर उनके ख़िलाफ़ शिकायत हुई. इसके बाद हरियाणा पुलिस ने उन्हें 18 मई को गिरफ़्तार कर लिया. हरियाणा की एक अदालत ने 20 मई को प्रोफ़ेसर अली ख़ान को न्यायिक हिरासत में भेज दिया.
उनके ख़िलाफ़ पुलिस में दो एफआईआर, यानी शिकायत दर्ज हैं. दोनों शिकायतों में ‘भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता को ख़तरे में डालने’ और ‘दो समुदायों के बीच दुश्मनी बढ़ाने’ से जुड़ी धाराएँ लगाई गई हैं.
इसके अलावा उन पर किसी ‘महिला की लज्जा भंग करने’ और ‘धर्म का अपमान करने’ के भी आरोप हैं. ये सारी धाराएँ भारतीय न्याय संहिता के तहत लगाई गई हैं.

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प्रोफ़ेसर अली ख़ान ने अपनी गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी.
प्रोफ़ेसर अली की गिरफ़्तारी का कई लोगों ने विरोध किया है. विपक्षी पार्टियों ने उनकी गिरफ़्तारी की तुलना मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता विजय शाह से की है. हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने विजय शाह के बयानों पर आपत्ति जताई थी. दोनों प्रदेशों की पुलिस का इन दो मामलों में अलग-अलग रुख़ रहा है.
देखते हैं कुछ मामले जिसमें पुलिस ने तेज़ी से किसी को उनकी टिप्पणी के लिए गिरफ़्तार कर लिया और कुछ ऐसे मामले जिनमें ऐसे क़दम नहीं उठाए गए.
प्रोफ़ेसर अली ख़ान का मामला

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पहले चलते हैं प्रोफ़ेसर अली के पोस्ट पर.
आठ मई को की गई पोस्ट में प्रोफ़ेसर अली ख़ान ने लिखा था, “इतने सारे दक्षिणपंथी टिप्पणीकार कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी की तारीफ़ कर रहे हैं, ये देखकर मैं खुश हूँ. लेकिन ये लोग शायद इसी तरह से मॉब लिंचिंग के पीड़ितों, मनमाने ढंग से बुलडोज़र चलाने और बीजेपी के नफ़रत फैलाने के शिकार लोगों को लेकर भी आवाज़ उठा सकते हैं कि इन लोगों को भारतीय नागरिक के तौर पर सुरक्षा दी जाए.”
प्रोफ़ेसर अली ख़ान ने कहा, “दो महिला सैनिकों के ज़रिए जानकारी देने का नज़रिया महत्वपूर्ण है. लेकिन इस नज़रिए को हक़ीक़त में बदलना चाहिए, नहीं तो यह केवल पाखंड है.”
हालाँकि, प्रोफ़ेसर अली ख़ान ने अपने इसी पोस्ट में भारत की विविधता की भी तारीफ़ की.
उन्होंने लिखा, “सरकार जो दिखाने की कोशिश कर रही है, उसकी तुलना में आम मुसलमानों के सामने ज़मीनी हक़ीक़त अलग है. लेकिन साथ ही इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस (कर्नल सोफ़िया और विंग कमांडर व्योमिका सिंह की प्रेस ब्रीफ़िंग) से पता चलता है कि भारत अपनी विविधता में एकजुट है और एक विचार के रूप में पूरी तरह से मरा नहीं है.”
प्रोफ़ेसर अली ख़ान ने अपनी पोस्ट के आख़िर में तिरंगे के साथ ‘जय हिंद’ लिखा. इसके बाद उन्होंने 11 मई की एक फ़ेसबुक पोस्ट में आम लोगों पर युद्ध के प्रभाव की बात की थी.
शिकायत का आधार यही पोस्ट हैं.
भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता से जुड़ी धारा के तहत उन्हें सात साल तक की सज़ा हो सकती है. उन पर लगी बाक़ी धाराओं में तीन साल तक की सज़ा हो सकती है.
सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 में एक फ़ैसले में कहा था कि सात साल तक की सज़ा वाले अपराधों में पुलिस को आम तौर पर गिरफ़्तारी नहीं करनी चाहिए. कोर्ट ने कहा कि अगर ये आशंका हो कि आरोपी भाग जाएँगे या सबूत मिटायेंगे या सही से जाँच नहीं करने देंगे… तब ही गिरफ़्तारी की जाए. इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फ़ैसलों में दोहराया है. यही नहीं, कोर्ट ने पुलिस से बार-बार कहा है कि वे इसका पालन करें.
साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि ऐसे मामलों में गिरफ़्तार करने की बजाए पुलिस आरोपी को अपने पास बुला कर पूछताछ कर सकती है.
राजद्रोह से जुड़ा कानून

साथ ही यह ग़ौर करने की भी ज़रूरत है कि भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता से जुड़ी धारा साल 2024 में भारतीय न्याय संहिता में लाई गई थी. इसके पहले इससे मिलती-जुलती धारा राजद्रोह की थी.
समाचार वेबसाइट ‘आर्टिकल 14’ के साल 2021 में किए गए शोध के मुताबिक साल 2014 के बाद राजद्रोह के क़ानून का इस्तेमाल बढ़ गया था. इसे ख़ास तौर से सरकार के आलोचकों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जा रहा था.
सुप्रीम कोर्ट ने साल 2022 में कहा था कि यह धारा अंग्रेज़ों के समय में लाई गई थी. आज के समय यह धारा क़ानून में नहीं होनी चाहिए. इसलिए कोर्ट ने केंद्र और सभी राज्य की सरकारों को इस धारा के तहत किसी पर कार्रवाई करने से मना किया था.
जब सरकार भारतीय दंड संहिता-1860 को बदल कर भारतीय न्याय संहिता लेकर आई तो कई क़ानून के जानकारों का मानना था कि इसमें उन्होंने राजद्रोह की धारा को और मज़बूत कर दिया है. इसका क़ानून के जानकारों ने विरोध भी किया.
क़ानून के जानकारों की राय

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क़ानून के जानकारों ने प्रोफ़ेसर अली ख़ान की गिरफ़्तारी का विरोध किया है. सीनियर वकील राजीव धवन कहते हैं, “उनकी पूरी टिप्पणी से साफ़ पता चलता है कि उन्होंने कुछ भी देश विरोधी नहीं कहा. दुख की बात है कि उन्हें निशाना बनाया जा रहा है और प्रताड़ित किया जा रहा है.”
सीनियर वकील चंद्र उदय सिंह मानते हैं कि इसमें गिरफ़्तारी भी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के ख़िलाफ़ जाती है. वह कहते हैं, “इस मामले में जाँच करने लायक़ कुछ भी नहीं है. उन्होंने जो कहा है, वह जनता के सामने है. पुलिस को उन्हें हिरासत में लेने की ज़रूरत नहीं है.”
साथ ही उनका यह मानना है कि ऐसे मामलों में जब मजिस्ट्रेट भी किसी को हिरासत में भेजते हैं, “तो वे अपने कर्तव्य का उल्लंघन कर रहे हैं.”
बहुत समय से मजिस्ट्रेटों के ख़िलाफ़ एक शिकायत है कि आम तौर पर वे पुलिस द्वारा पेश किए गए आरोपियों को हिरासत में भेज देते हैं. दूसरी ओर, उनके पास ये शक्ति होती है कि अगर उन्हें लगे कि किसी इंसान को हिरासत में रखने की ज़रूरत नहीं है तो उन्हें तुरंत रिहा कर दें.
ऐसे मामलों में कई बार लोगों को सुप्रीम कोर्ट के पास राहत माँगने जाना पड़ता है. साल 2020 में पत्रकार विनोद दुआ के ख़िलाफ़ भी राजद्रोह के आरोप लगे थे.
अपनी एक रिपोर्ट में उन्होंने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना की थी. साल 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर को ख़ारिज किया और कहा कि सरकार की आलोचना करने से राजद्रोह लागू नहीं होगा.
यही नहीं, जब कोई इंसान अपनी टिप्पणी से लोगों को हिंसा के लिए उकसाए तब ही केवल उस पर कार्रवाई हो सकती है. पत्रकार मोहम्मद ज़ुबैर, प्रबीर पुरकायस्थ और अर्नब गोस्वामी भी जब गिरफ़्तार हुए तो सुप्रीम कोर्ट से ज़मानत मिलने के बाद ही बाहर आ पाए. हालाँकि, कई बार कोर्ट से ज़मानत मिलने के बाद भी पुलिस तहक़ीक़ात की भागादौड़ी चलती रहती है.
अपने एक हाल के फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी की मौखिक या लिखित टिप्पणियों के मामले में अगर यह आरोप है कि उससे दो समुदायों के बीच दुश्मनी बढ़ेगी तो एफ़आईआर दर्ज़ करने से पहले पुलिस को यह सोचना चाहिए कि टिप्पणी का क्या मतलब है.
उससे समाज के समझदार लोगों पर क्या असर पड़ेगा. कोर्ट ने यह भी कहा कि पुलिस को संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का भी सम्मान करना होगा.
विजय शाह मामला

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दूसरी तरफ़, मध्य प्रदेश में बीजेपी के मंत्री विजय शाह ने कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी पर 12 मई को एक टिप्पणी की थी. इस टिप्पणी पर काफ़ी विवाद हुआ.
लेकिन, मध्य प्रदेश पुलिस ने ख़ुद इस पर कोई कार्रवाई नहीं की. इस टिप्पणी पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने विजय शाह को फटकार लगाई.
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने 14 मई को इस मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए राज्य के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने का निर्देश दिया था.
इसके बाद, 15 मई को हाई कोर्ट ने पुलिस द्वारा दायर की गई एफ़आईआर की आलोचना की. कोर्ट ने कहा था कि मध्य प्रदेश पुलिस ने बहुत कमज़ोर एफ़आईआर दायर की है.
हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में लिखा, “पुलिस ने ऐसा एफ़आईआर दायर किया है जिससे विजय शाह को मदद मिले और वे बाद में कोर्ट से यह एफ़आईआर ख़ारिज करवा सकें. अगर कोर्ट इस मामले पर निगरानी नहीं रखेगी तो पुलिस इस मामले की जाँच सही से नहीं करेगी.”
इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की जाँच के लिए एक स्पेशल इंवेस्टीगेशन टीम का गठन किया है. हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने विजय शाह की गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी.
ऐसे कई मामले

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ऐसे कई मामलों में देखने को मिला है, जहाँ किसी व्यक्ति को बहुत जल्दी गिरफ़्तार किया जाता है, और फिर उन्हें कोर्ट से ज़मानत लेनी पड़ती है. साथ ही, ऐसे भी कई मामले हैं, जहाँ किसी प्रभावशाली व्यक्ति के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए पुलिस ने कोई ठोस कदम नहीं उठाए. कोर्ट के कई चक्कर काटने के बाद भी कार्रवाई शुरू नहीं हुई.
उदाहरण के तौर पर कपिल मिश्रा से जुड़ा मामला देखा जा सकता है. वे बीजेपी के नेता हैं. अभी दिल्ली के क़ानून मंत्री भी हैं. साल 2020 में हुए दिल्ली दंगों से ठीक एक दिन पहले कपिल मिश्रा का दिया एक भाषण बहुत विवादित हुआ था.
इसमें उन्होंने दिल्ली पुलिस को नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वालों को हटाने को कहा था. इस मामले में अप्रैल 2025 को दिल्ली के एडिशनल चीफ़ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की अदालत ने कहा था कि पुलिस ने कपिल मिश्रा के ख़िलाफ़ ठीक से तहक़ीक़ात नहीं की.
कोर्ट ने कहा कि पुलिस को मिश्रा के बयानों और दिल्ली में हुए दंगों में उनकी भूमिका पर सही से तहक़ीक़ात करनी होगी. यह फ़ैसला आने में पाँच साल लग गए. हालाँकि, इसके क़रीब एक हफ़्ते बाद ही दिल्ली के प्रिंसिपल डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज की अदालत ने इस फ़ैसले पर रोक लगा दी.
साथ ही, नागरिकता संशोधन कानून के प्रदर्शनों के दौरान बीजेपी के नेताओं अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा द्वारा दिए गए कथित ‘हेट स्पीच’ के बारे में एफ़आईआर दर्ज़ करने की माँग अब तक चल रही है.
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की नेता बृंदा करात ने इन दोनों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर की माँग करते हुए एक याचिका दायर की है. हालाँकि, उनकी ये माँग दिल्ली की निचली अदालत और हाई कोर्ट ने ख़ारिज कर दी थी. अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
साल 2024 में छपे एक शोध के मुताबिक़ भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ ‘हेट स्पीच’ बढ़ गया है. रिपोर्ट के मुताबिक प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह सबसे ज़्यादा ‘हेट स्पीच’ देने वाले लोगों में थे. हालाँकि, रिपोर्ट छपने के बाद बीजेपी के प्रवक्ता जयवीर शेरगिल ने इस रिपोर्ट का खंडन किया था.
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