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31 मिनट पहले
रूस-यूक्रेन जंग को तीन साल से ज्यादा समय बीत गया है. रूस के हमलों की लगातार आलोचना होती रही है.
कई देशों ने मिल कर यूक्रेन और उसके राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की का समर्थन किया. अमेरिका में अपने दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ रहे डोनाल्ड ट्रंप ने वादा किया था कि राष्ट्रपति बनते ही वो एक दिन में इस समस्या को सुलझा देंगे.
उनके राष्ट्रपति बनने के सौ दिन बाद भी जंग ख़त्म नहीं हुई है लेकिन इस दिशा में कुछ कदम ज़रूर उठाए गए हैं.
राष्ट्रपति ट्रंप ने रूस और यूक्रेन को युद्धविराम की बातचीत के लिए राज़ी कर लिया था. उन्होंने दो बार रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से फ़ोन पर बात भी की.

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राष्ट्रपति ट्रंप के दोबारा सत्ता में आने के बाद विश्व व्यवस्था में बदलाव आते दिख रहे हैं.
पुतिन के प्रति अमेरिका के रुख़ में बदलाव देखा गया है. इससे पहले पुतिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर अलग थलग पड़ गए थे. मगर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ,रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ बातचीत के पक्ष में हैं.
इसलिए इस सप्ताह हम दुनिया जहान में यही जानने की कोशिश करेंगे कि राष्ट्रपति पुतिन अब क्या चाहते हैं?
पुतिन की दुनिया

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यूरोपियन काउंसिल ऑन फ़ॉरेन रिलेशंस में वरिष्ठ शोधकर्ता कदरी लीक की राय है कि राष्ट्रपति ट्रंप के सत्ता में आने के बाद से विश्व व्यवस्था बदल रही है और उनके सत्ता में आने से पुतिन को बड़ा फ़ायदा हुआ है.
वो कहते हैं, “अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत पुतिन के लिए सौगात साबित हुई है क्योंकि विश्व व्यवस्था के बारे में उनकी सोच राष्ट्रपति पुतिन से मिलती जुलती है. उन्होंने रूस को यह युद्ध जीतने का मौका दिया है. इससे पहले यह संभव नहीं था क्योंकि अगर रूस युद्ध के मैदान में जीत भी जाता तब भी दुनिया में वो अलग थलग पड़ा रहता.”
राष्ट्रपति ट्रंप ने यूक्रेन को समर्थन देने के बदले में दो शर्तें पेश की हैं. एक तो यह कि यक्रेन के परमाणु संयंत्र अमेरिका के नियंत्रण में आ जाएं और दूसरे अमेरिका को यूक्रेन की खनिज संपदा के दोहन का अवसर मिले. अमेरिकी रुख से पुतिन की स्थिति मज़बूत हुई है. भविष्य में किसी समझौते से वो इससे अधिक की उम्मीद भी कर सकते हैं.
कदरी लीक ने कहा कि अगर ट्रंप विश्व व्यवस्था का स्वरूप बदलना चाहेंगे तो रूस के लिए यूक्रेन युद्ध में राजनीतिक विजय का रास्ता खुल सकता है.
उन्होंने कहा, “जिस तरह ट्रंप संभवत: कनाडा, ग्रीनलैंड और पनामा को हथियाने की बात करते हैं उससे उनकी और पुतिन की सोच एक जैसी लगती है. लेकिन ट्रंप प्रशासन में जैसी अफ़रातफ़री का माहौल है उसे देखते हुए नहीं लगता कि ट्रंप और पुतिन विश्व व्यस्था पर चर्चा करते होंगे.”
इस अफ़रातफ़री में कूटनीतिक संतुलन बनाए रखना आसान नहीं है. हमने व्हाइट हाउस में ट्रंप और ज़ेलेंस्की की कड़वाहट भरी मुलाक़ात में देखा कि हवा किस तेज़ी से बदल सकती है. शांति और सौहार्दपूर्ण बातचीत अचानक टकराव में बदल गयी और उसके बाद राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की और उनकी टीम व्हाइट हाउस से बाहर निकल गई.
कदरी लीक ने कहा कि इसके बाद यूक्रेन को अमेरिका से मिलने वाली ख़ुफ़िया सैनिक जानकारी और कई हथियार मिलने बंद हो गए जिसका यूक्रेन की युद्ध क्षमता पर असर पड़ा. मगर इस टकराव भरी मुलाक़ात से राष्ट्रपति पुतिन बहुत ख़ुश हुए क्योंकि राष्ट्रपति ट्रंप ने कई ऐसी बातें कहीं जो पुतिन कहते रहे हैं. एक तो उन्होंने कहा कि यूक्रेन में चुनाव होने चाहिए अन्यथा ज़ेलेंस्की का नेतृत्व जायज़ नहीं हो सकता.
उस मुलाक़ात के बाद राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने माफ़ी भी मांगी. अब लग रहा था कि अमेरिका और रूस करीब आते जा रहे हैं. मगर तभी दोबारा तल्ख़ी आ गयी.
मार्च महीने में ट्रंप ने कहा कि वो पुतिन द्वारा राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की को नाजायज़ बताने वाली टिप्पणियों से बहुत नाराज़ हैं. पुतिन यूक्रेन को रूसी नियंत्रण में लाना चाहते हैं और साथ ही क्षेत्र से अमेरिकी की सेना की वापसी चाहते हैं.
फ़िलहाल ट्रंप इस पर विचार कर रहे हैं. लेकिन ट्रंप के साथ संबधों का रूस में पुतिन की छवि पर क्या असर पड़ा है?
क्या सोचते हैं रूस के लोग

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सेंटर फ़ॉर स्ट्रैटजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज़ की वरिष्ठ शोधकर्ता मारिया स्नीगोवाया बताती हैं कि रूस में सत्तारूढ़ सर्वोच्च नेता को सर्वोपरि माना जाता है और सोवियत काल के बाद भी चुनावों में जनता ने सत्तारूढ़ नेता का ही समर्थन किया है.
1917 में लेनिन के बाद बाहर से कोई नेता सत्ता में नहीं आया है.
वो कहती हैं, “बोरिस येल्तसिन ने पुतिन को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. लेकिन सत्ता में आने के शुरूआती दिनों से ही पुतिन ने 1990 के दशक में रूस का आधुनिकीकरण करने के प्रयासों की असफलता को ही मुद्दा बना कर अपनी छवि चमकाई.”
इससे साफ़ है कि सत्तारूढ़ नेता की गद्दी पर पकड़ मज़बूत रहती है लेकिन पुतिन को आम जनता का कितना समर्थन है?
मारिया स्नीगोवाया की राय है कि पुतिन को हमेशा ही 60 प्रतिशत से अधिक लोगों का समर्थन रहा है जो कि फ़िलहाल 75 प्रतिशत तक है.
वो कहती हैं कि पुतिन इस समर्थन को कायम रखने के लिए युद्ध शुरू कर देते हैं क्योंकि वो युद्ध के ज़रिए देश को एकजुट कर लेते हैं.
मारिया स्नीगोवाया कहती हैं कि सरकारी मीडिया को नियंत्रित कर के वो जनता की राय को प्रभावित करते हैं.
मारिया स्नीगोवाया ने कहा, “जब साल 2000 में वो सत्ता में आए तो उन्होंने सबसे पहले सरकारी टीवी चैनलों को अपने नियंत्रण में कर लिया जो उस समय 90 प्रतिशत रूसियों के लिए जानकारी का मुख्य ज़रिया थे. लेकिन पिछले कई सालों में इंटरनेट की वजह से लोगों को दूसरे माध्यमों से भी जानकारी मिलने लगी है. हालांकि कई लोग जो इंटरनेट के ज़रिए जानकारी प्राप्त करते हैं वो सरकार समर्थक सोशल मीडिया चैनलों का इस्तेमाल अधिक करते हैं.”
सर्वेक्षणों से पता चलता है रूस के शक्ति प्रदर्शन से जनता का उसके नेता के प्रति समर्थन बढ़ गया है हालांकि युद्ध की वास्तविकता अलग कहानी बयां करती है.
मारिया स्नीगोवाया का कहना है कि सरकारी प्रचार के बावजूद युद्ध की असलियत के परिणाम धीरे धीरे रूसी लोगों पर उजागर हो रहे हैं.
वो कहती हैं, “लोग मारे जा रहे हैं, परिवार मुसीबत झेल रहे हैं. लोगों के लिए इस बात से मुंह छिपाना मुश्किल है कि देश एक सबसे भयंकर युद्ध में तीन साल से उलझा हुआ है जिसका अंत नज़र नहीं आ रहा. लेकिन रूसी समाज के ताने बाने में कई पूर्वाग्रह हैं जिसकी वजह से काफ़ी हद तक लोग युद्ध के परिणामों से नज़रें फेर लेते हैं.”
लेकिन पुतिन का प्रभाव और छवि केवल इस बात तक सीमित नहीं है कि रूस में लोग उन्हें कैसे देखते हैं.
रूस की पहुंच

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एस्टोनिया के एक थिंकटैंक, इंटरनेशनल सेंटर फॉर डिफ़ेंस एंड सिक्योरिटी के वरिष्ठ शोधकर्ता ईवान क्लिश का कहना है कि पिछले दस सालों में रूसी सरकार ने उन सरकारों के साथ गठजोड़ बनाने पर बल दिया है जो विश्व में अलग थलग पड़ी हैं या जिन्हें दुनिया भरोसेमंद देश नहीं मानती है.
वो कहते हैं, “इसकी मिसाल रूस के उत्तर कोरिया के साथ संबंधों में मिलती है. इसके अलावा अफ़्रीका की अलग थलग पड़ी सरकारों के साथ भी रूस ने संबंध बनाए हैं जिसमें इरीट्रिया, इक्वेटोरियल गिनी शामिल हैं. उनकी इस नीति की कुछ मिसालें यूरोप में भी देखी जा सकती हैं.”
रूस ने यूरोप में मॉल्डोवा, जॉर्जिया में राजनीतिक माध्यम से और यूक्रेन में सैनिक ताकत से अपना प्रभाव बनाने की कोशिश की है. लेकिन दूसरी तरफ़ कई अफ़्रीकी देशों में भी उसका प्रभाव फैलने के लिए ज़मीन तैयार थी.
ईवान क्लिश ने बताया कि 1990 में रूस ने यूरोप से ध्यान हटा कर अफ़्रीकी देशों में प्रभाव बढ़ाने की नीति अपनाई. यानि वो सोवियत युग की विदेश नीति की जगह एक नई आधुनिक विदेश नीति अपनाना चाहता था. उस समय उसको इससे ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ.
वो कहते हैं, “लेकिन बाद में 2017 में सफलता उसके हाथ लगी जब रूसी सरकार के समर्थन से चलने वाली निजी सैनिक कंपनी वाग्नर ग्रुप ने सेंट्रल अफ़्रीकन रिपब्लिक में सैनिक कार्रवाई की. इस ग्रुप का नेतृत्व सरकार के करीबी माने जाने वाले येवगेनी प्रिगोज़िन के हाथ में था. उसके बाद इस गुट ने लीबिया में भी सैनिक कार्रवाई की जिससे रूसी सरकार को लगा कि अफ़्रीकी देशों में प्रभाव बढ़ाना फ़ायदेमंद हो सकता है. फ़िलहाल अफ़्रीकी देशों में रूस का प्रभाव सैनिक बल पर है. वो अफ़्रीकी देशों को हथियार बेच रहा है. रूस को लगता है इसके बल पर वो विश्व में अपना प्रभाव दिखा सकता है.”
ईवान क्लिश का मानना है कि हथियार बेच कर और दूसरी सहायता के ज़रिए रूस, उन अफ़्रीकी देशों को अपनी ओर खींचना चाहता है जो पहले पश्चिमी देशों के करीब रहे हैं.
ईवान क्लिश कहते हैं कि रूस अफ़्रीका की तानाशाही सरकारों के साथ गठबंधन बना रहा है.
मिसाल के तौर पर अफ़्रीका के साहेल क्षेत्र के बुर्कीना फ़ासो, माली और नाइजर जैसे देश हैं जो पहले आतंकवाद विरोधी अभियान में पश्चिमी देशों के सहयोगी थे वो अब रूस के करीब आ गए हैं.
ईवान क्लिश यह भी कहते हैं कि रूस विश्व में एक नई व्यवस्था लाना चाहता है और यह दिखाना चाहता है कि लोकतंत्र ही शासन का एकमात्र जायज़ तरीका नहीं है.
वहीं राष्ट्रपति पुतिन की अफ़्रीका में प्रभाव बढ़ाने की नीति की एक सामरिक वजह भी है.
ईवान क्लिश कहते हैं कि एक महाद्वीप के तौर पर अफ़्रीका के संयुक्त राष्ट्र में सबसे अधिक वोट हैं. यानी अफ़्रीका एक बड़ा वोटिंग ब्लॉक है और कोई भी देश अंतरराष्ट्रीय मामलों में फ़ैसलों को प्रभावित करने के लिए इस बड़े वोटिंग ग्रुप का समर्थन प्राप्त करना चाहेगा.
रूस संयुक्त राष्ट्र महासभा में अफ़्रीका के 54 वोटों को अपने पक्ष में करना चाहता है और साथ ही अफ़्रीका के प्राकृतिक संसाधनों से भी फ़ायदा उठाना चाहता है.
दूसरी तरफ़ भौगोलिक दृष्टि से अफ़्रीका यूरोप के नज़दीक है इसलिए रूस अफ़्रीकी देशों को अपना सहयोगी बना कर यूरोप में अपने प्रतिद्वंद्वियों को घेरना भी चाहता है.
शतरंज के खिलाड़ी

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यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के प्रोफ़ेसर मार्क गेलियोटी कहते हैं कि राष्ट्रपति पुतिन की कार्यशैली में लचीलापन है. वो मौका देख कर कदम उठाते हैं. वो जानते हैं उन्हें क्या हासिल करना है लेकिन इस लक्ष्य का रास्ता अभी स्पष्ट नहीं है. मार्क गेलियोटी कहते हैं कि वो अपने गठजोड़ों और सॉफ़्टपावर को शतरंज के मोहरों की तरह इस्तेमाल करते हैं.
वो कहते हैं, “पुतिन गठबंधन के संबंधों को ऐसी वस्तु की तरह देखते हैं जिसका सौदा किया जा सकता है. वो चीन को एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में देखते हैं जिसकी रूस को ज़रूरत पड़ सकती है. लेकिन वो ईरान और उत्तर कोरिया के साथ संबंधों का सौदा कर सकते हैं.”
“अगर यूक्रेन युद्ध को समाप्त करने के लिए उनकी शर्तें मान ली जाती हैं तो बदले में वो उत्तर कोरिया और ईरान का साथ छोड़ सकते हैं और अफ़्रीकी देशों से भी पल्ला झाड़ सकते हैं. क्योंकि उनकी नज़र में यह संबंध नफ़ा नुकसान के आधार पर बनाये या तोड़े जा सकते हैं.”
मार्क गेलियोटी कहते हैं कि अगले दस सालों में पुतिन क्या चाहते हैं यह तो साफ़ है.
पुतिन रूस को एक बड़ी स्वायत्त शक्ति के रूप में दुनिया में स्थापित करना चाहते हैं.
मगर रूस अब उतना शक्तिशाली नहीं रहा जितना वह सोवियत काल में था. इसलिए अपने मकसद को हासिल करने के लिए वो दूसरी ताकतों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करना चाहते हैं. ख़ास तौर पर यूरोप के मामले में उनका रवैया राष्ट्रपति ट्रंप के रवैये से मेल खाता है. दोनों ही यूक्रेन का समर्थन करने के मुद्दे पर यूरोप को चुनौती देना चाहते हैं.
मार्क गेलियोटी ने कहा कि वो यूरोप में फूट डालना चाहते हैं, यूरोप में लोकलुभावन वादे करने वाली राजनीतिक ताकतों को प्रोत्साहित करना चाहते हैं ताकि यूरोप कमज़ोर हो जाए और पुतिन जो भी अपने देश या यूक्रेन में करना चाहते हैं उसमें बाधा ना बन पाए. साथ ही वो नहीं चाहते कि यूरोप की वजह से अपने देश पर उनकी पकड़ कमज़ोर हो.
तो क्या अगले दस सालों में रूस में पुतिन को कोई चुनौती दे सकता है?
इस बारे में मार्क गेलियोटी ने कहा कि यह सच है कि पुतिन ने सब बड़ी विपक्षी ताकतों को ख़त्म कर दिया है.
वो कहते हैं, “लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लोग उनसे ख़ुश हैं. लोगों की नाराज़गी साफ़ झलकती है. अगर कोई अनपेक्षित घटना हो जाए, मिसाल के तौर पर चेर्नोबिल जैसी कोई परमाणु दुर्घटना हो जाए या यूक्रेन युद्ध में रूस को बड़ा नुकसान उठाना पड़े या कोई बड़ा आर्थिक संकट आ जाए तो स्थिति बदल सकती है. और बदले हुए असमान्य हालात में नया नेतृत्व भी उभर सकता है. मगर सबके लिए चिंता की बात यह है कि कोई नहीं जानता वो नया नेतृत्व कैसा होगा और क्या चाहेगा.”
लेकिन रूस का वर्तमान नेतृत्व क्या चाहता है?

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मार्क गेलियोटी ने कहा, “पुतिन चाहते हैं कि रूस दुनिया में एक बड़ी ताकत बने. लेकिन इसके स्वरूप को लेकर उनकी धारणा 19वीं सदी की उपनिवेशवादी सोच जैसी है. इस मक़सद को हासिल करने के लिए वो ऐसे हालात पैदा करना चाहते हैं कि हमें रूस की ज़रूरत पड़े.”
“इसके लिए वो दुनिया को कमज़ोर करना चाहते हैं, उसमें फूट डालना चाहते है ताकि उनके हाथ मज़बूत हो सकें. लेकिन विडंबना यह है कि वो दिन अब लद गए हैं और इसकी वजह है पुतिन की यूक्रेन पर धाक जमाने की आकांक्षा.”
तो अब लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की तरफ कि राष्ट्रपति पुतिन अब क्या चाहते हैं?
पिछले तीन महीनों में विश्व व्यवस्था में बदलाव आए हैं. राष्ट्रपति ट्रंप राष्ट्रपति पुतिन की भाषा बोल रहे हैं.
लेकिन यह भी सच है कि अपने राष्ट्रीय मकसद के लिए यह दोनों ही एक दूसरे को दांव पर लगा सकते हैं. यह दोनों नेता कूटनीतिक संबंधों को सौदे की तरह देखते हैं.
राष्ट्रपति पुतिन विश्व में रूस का प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं जिसके लिए वो कोशिश करते रहेंगे. मगर यह स्पष्ट नहीं है कि दुनिया इसका जवाब कैसे देगी.
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SOURCE : BBC NEWS